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दोनों हाथों में लड्डू : सुशांत सिंह राजपूत

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-अजय ब्रह्मात्मज सुशांत सिंह राजपूत की ‘पीके’ इस महीने रिलीज होगी। ‘पीके’ में उनकी छोटी भूमिका है। दिबाकर बनर्जी की ‘ब्योमकेश बख्शी’ में हम उन्हें शीर्षक भूमिका में देखेंगे। झंकार के लिए हुई इस बातचीत में सुशांत सिंह राजपूत ने अपने अनुभवों, धारणाओं और परिवर्तनों की बातें की हैं।     फिल्मों में अक्सर किरदारों के चित्रण में कार्य-कारण संबंध दिखाया जाता है। लेखक और निर्देशक यह बताने की कोशिश करते हैं कि ऐसा हुआ, इसलिए वैसा हुआ। मुझे लगता है जिंदगी उससे अलग होती है। यहां सीधी वजह खोज पाना मुश्किल है। अभी मैं जैसी जिंदगी जी रहा हूं और जिन द्वंद्वों से गुजर रहा हूं, उनका मेरे बचपन की परवरिश से सीधा संबंध नहीं है। रियल इमोशन अलग होते हैं। पर्दे पर हम उन्हें बहुत ही नाटकीय बना देते हैं। पिछली दो फिल्मों के निर्देशकों की संगत से मेरी सोच में गुणात्मक बदलाव आ गया है। पहले राजकुमार हिरानी और फिर दिबाकर बनर्जी के निर्देशन में समझ में आया कि पिछले आठ सालों से जो मैं कर रहा था, वह एक्टिंग नहीं कुछ और थी। मैं आप को प्वॉइंट देकर नहीं बता सकता कि मैंने क्या सीखा, लेकिन बतौर अभिनेता मेरा विकास हुआ।

अब तीसरा शेड भी है सामने-राजपाल यादव

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-अजय ब्रह्मात्मज  ‘भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन’ की प्लानिंग 2010 में ही हो गई थी। मुंबई में 10-12 कलाकारों के पास इसकी स्क्रिप्ट गई। सभी मेरा किरदार मांग रहे थे। दिलीप की भूमिका चाहते थे। इसकी टीम में अनेक देशों के तकनीशियन शामिल थे। हैदराबाद में सेट लगा। यूनियन कार्बाइड का सेट लगाया गया था। मुझे लग तो गया था कि कोई बड़ी फिल्म बन रही है,लेकिन आश्वस्त नहीं था। इस फिल्म के दरम्यान मुझे हालीवुड की कुछ और फिल्में मिलीं। उनमें छोटे-मोटे किरदार थे। आखिरकार मैं इस फिल्म का इंतजार करता रहा।     मैंने अभी तक 150 से अधिक फिल्में कर ली हैं। 20-21 अभी अंडर प्रोडक्शन हैं। लगातार काम कर रहा हूं। लखनऊ के बीएनए और दिल्ली के एनएसडी से प्रशिक्षित होकर मुंबई आया तो कहां अंदाजा था कि मेरा ऐसा सफर होगा। 27 साल पहले स्टेज पर तीन पंक्तियां बोलने का मौका मिला था। शाहजहांपुर में स्टेज पर पहली बार चढ़ा और दर्शकों की तालियों और तारीफ ने ऐसा प्रेरित किया कि कदम इस तरफ चल पड़े। मैंने करीब से संघर्ष का अनुभव किया है। ‘भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन’ में दीपक का संघर्ष है। भोपाल के हादसे के बारे में सभी कुछ न कुछ जान

बदला जमाने के साथ : अदनान सामी

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-अजय ब्रह्मात्मज लंबे समय के बाद अदनान सामी की आवाज ‘किल दिल’ के गाने में सुनाई पड़ी। ‘साथिया’ के बाद शाद अली, गुलजार और अदनान की तिकड़ी का जादू जगा। अदनान इन दिनों गायकी के फ्रंट पर कम एक्टिव हैं। जिंदगी की मुश्किलों और रिश्तों में आए बदलाव से वे बेअसर नहीं रहे। हालांकि इस दरम्यान उन्होंने कोर्ट से निकल कर स्टूडियो में रिकॉर्डिंग भी की। एक तरफ मुकदमे की सुनवाई चलती रही और दूसरी तरफ उनकी गायकी, जो अब सुनाई पड़ी। अदनान का नाम जेहन में आते ही जो छवि कौंधती है, उससे वे काफी अलग हो गए हैं। उनका वजन कम हो गया है। अब वे अधिक स्फूर्ति महसूस करते हैं। उन्होंने घर को नए तरीके से सजाया है और फिर से एक नई दुनिया रच रहे हैं, जिसमें गीत-संगीत और म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट हैं। साथ नए जमाने के  नए जमाने के साथ कदम मिलाकर चल रहे अदनान सामी को नए गैजेट और तरीकों से कोई दिक्कत नहीं होती, अगर कोई संगीतकार उन्हें ह्वाट्स ऐप पर धुन भेजता है तो वे उसे सुनकर अपनी गायकी का रियाज कर लेते हैं। कई बार मोबाइल या फेसबुक के मैसेज के जरिए गीतों के बोल आ जाते हैं। अदनान मानते हैं कि इन तकनीकी सुविधाओं से हमारी जिंदगी

दरअसल : सेंसर के यू/ए सर्टिफिकेट का औचित्य

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अजय ब्रह्मात्मज अगर आप केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की हिंदी वेबसाइट पर जाएंगे तो वहां पहले पृष्ठ पर ही बताया गया है कि किन-किन श्रेणियों में प्रमाण पत्र दिए जाते हैं। चार श्रेणियां हैं- अंग्रेजी में उन्हें यू, यू/ए, ए और एस कहते हैं। हिंदी में उन्हें अ, व /अ और अ लिखा गया है। हिंदी में चौथी श्रेणी एस का विवरण नहीं है। इसके साथ सेंसर प्रमाणन बोर्ड के हिंदी पृष्ठ पर वर्तनी की अनेक गलतियां हैं। सबसे पहले तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय में सूचना को ही ‘सुचना’ लिखा गया है। नीचे उद्धृत पंक्तियों में दर्षक, प्रर्दषण, और मार्गदर्षन भी गलत लिखे गए हैं। चलचित्र अधिनियम, 1952, चलचित्र (प्रमाणन) नियम,1983 तथा 5 (ख) के तहत केन्द्र सरकार द्वारा जारी किए गए मार्गदर्शिका का अनुसरण करते हुए प्रमाणन की कार्यवाही की जाती है। फिल्मों को चार वर्गों के अन्तर्गत प्रमाणित करते हैं। ’ अ’- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्षन ’व’- वयस्क दर्षकों के लिए निर्बन्धित ’अव’- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रर्दषन के लिए किन्तु 12 वर्ष से कम आयु के बालक/बालिका को माता-पिता के मार्गदर्षन के साथ फिल्म देखन

‘3 इडियट’ के तीनों इडियट ही ला रहे हैं ‘पीके’

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आमिर खान ने आगामी फिल्म ‘पीके’ के प्रचार के लिए इस बार नया तरीका अनपाया है। वे इस फिल्म की टीम के साथ सात शहरों की यात्रा पर निकले हैं। आज पटना से इसकी शुरुआत हो रही है। इस अभियान में वे ‘3 इडियट’ का प्रदर्शन करेंगे और फिर आमंत्रित दर्शकों से बातचीत करेंगे। पटना के बाद वे बनारस, दिल्ली, अहमदाबाद, हैदराबाद, जयपुर और रायपुर भी जाएंगे। पटना के लिए उड़ान भरने से पहले उन्होंने अजय ब्रह्मात्माज से खास बातचीत की। प्रचार के इस नए तरीके के आयडिया के बारे में बताएं ? हमलोग ‘3 इडियट’ दिखा रहे हैं। मकसद यह बताने का है कि ‘3 इडियट’ की टीम एक बार फिर आ रही है। इस बार वही टीम ‘पीके’ ला रही है। ‘3 इडियट' के तीनो इडियट राजू,विनोद और मैं अब ‘पीके’ लेकर आ रहे हें। हमलोग तयशुदा सात शहरों में ‘3 इडियट’ की स्क्रीनिंग करेंगे। इस स्क्रीनिंग में आए लोगों के साथ फिल्म खत्म होने के बाद हमलोग बातचीत करेंगे। कोशिश है कि हमलोग ग्रास रूट के दर्शकों से मिलें। पटना से शुरूआत करने की कोई खास वजह...? पटना से शुरूआत करने की यही वजह है कि ‘पीके’ में मेरा किरदार भोजपुरी बोलता है। वास्तव में हमलो

दरअसल : पर्दे पर आम आदमी

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-अजय ब्रह्मात्मज फिल्में आमतौर पर भ्रम और फंतासी रचती हैं। इस रचना में समाज के वास्तविक किरदार भी पर्दे पर थोड़े नकली और नाटकीय हो जाते हैं। थिएटर में भी यह परंपरा रही है। भाषा, लहजा, कॉस्ट्यूम और भाव एवं संवादों की अदायगी में किरदारों को लार्जर दैन लाइफ कर दिया जाता है। माना जाता है कि इस लाउडनेस और अतिरंजना से कैरेक्टर और ड्रामा दर्शकों के करीब आ जाते हैं। हिंदी सिनेमा में लंबे समय तक इस लाउडनेस पर जोर रहा है। भारत में पहले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के आयोजन के बाद इतालवी यर्थाथवाद से प्रभावित होकर भारतीय फिल्मकारों ने सिनेमा में यर्थाथवादी स्थितियों और चरित्रों का चित्रण आरंभ किया। उस प्रभाव से सत्यजीत राय से लेकर श्याम बेनेगल तक जैसे निर्देशकों का आगमन हुआ। इन सभी ने सिनेमा में यथार्थ और वास्तविकता पर जोर दिया। सत्यजीत राय यर्थाथवादी सिनेमा के पुरोधा रहे और श्याम बेनेगल के सान्निध्य में आए फिल्मकारों ने पैरेलल सिनेमा को मजबूत किया। पैरेलल सिनेमा की व्याप्ति के दौर में कुछ बेहद मार्मिक, वास्तविक और प्रमाणिक फिल्में आईं। इस दौर की बड़ी दुविधा यह रही कि ज्यादातर फिल्

फिल्‍म समीक्षा : भोपाल-ए प्रेयर फॉर रेन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  अपने कथ्य और संदर्भ के कारण महत्वपूर्ण 'भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन' संगत और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ भोपाल गैस ट्रैजेडी का चित्रण करती तो प्रासंगिक और जरूरी फिल्म हो जाती। सन् 1984 में हुई भोपाल की गैस ट्रैजेडी पर बनी यह फिल्म 20वीं सदी के जानलेवा हादसे की वजहों और प्रभाव को समेट नहीं पाती। रवि कुमार इसे उस भयानक हादसे की साधारण कहानी बना देते हैं। 'भोपाल : ए प्रेयर फॉर रेन' की कहानी पत्रकार मोटवानी( फिल्म में उनका रोल पत्रकार राजकुमार केसवानी से प्रेशर है) के नजरिए से भी रखी जाती तो पता चलता कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां तीसरी दुनिया के देशों में किस तरह लाभ के कारोबार में जान-माल की चिंता नहीं करतीं। अफसोस की बात है कि उन्हें स्थानीय प्रशासन और सत्तारूढ़ पार्टियों की भी मदद मिलती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिंसक और हत्यारे पहलू को यह फिल्म ढंग से उजागर नहीं करती। निर्देशक ने तत्कालीन स्थितियों की गहराई में जाकर सार्वजनिक हो चुके तथ्यों को भी फिल्म में समाहित नहीं किया है। फिल्म में लगता है कि यूनियन कार्बाइड के आला अधिकारी चिंतित और

फिल्‍म समीक्षा : एक्‍शन जैक्‍सन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  सही कहते हैं। अगर बुरी प्रवृत्ति या आदत पर आरंभ में ही रोक न लगाई जाए तो वह आगे चल कर नासूर बन जाती है। प्रभु देवा ने फिल्म 'वांटेड' से हिंदी फिल्मों में कदम रखा। तभी टोक देना चाहिए था। वे रीमेक बना रहे हों या कथित ऑरिजिनल कहानी चुन रहे हों। उनकी फिल्में एक निश्चित फॉर्मूले पर ही चलती हैं। उनकी फिल्मों में एक्शन, वायलेंस, डांस, रोमांस... इन चार तत्वों का अनुपात और क्रम बदलता रहता है। कथानक पटकथा और संवाद जैसी चीजें तो भूल ही जाएं। प्रभु देवा शब्दों से ज्यादा दृश्यों में यकीन करते हैं। उनकी फिल्मों में स्क्रिप्ट राइटर से बड़ा योगदान कैमरामैन, साउंड रिकॉर्डिस्ट, कोरियोग्राफर, एक्शन डायरेक्टर और हीरो का होता है। 'एक्शन जैक्सन' में तो उन्होंने दो-दो अजय देवगन रखे हैं। दो हीरोइनें भी हैं - सोनाक्षी सिन्हा और मनस्वी ममगई। दोनों का काम या तो हीरो पर रीझना है या फिर खीझना है। 'एक्शन जैक्सन' जैसी फिल्में देखते समय अजय देवगन सरीखे कद्दावर और लोकप्रिय अभिनेता की बेचारगी का एहसास होता है। 'जख्म', 'तक्षक', 'अपहर

दरअसल : पिता सुखदेव की खोज में बेटी शबनम

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी में डॉक्युमेंट्री फिल्में कम बनती हैं। जो कुछ बनती हैं,उनमें सामाजिक मुद्दों, सांस्कृतिक समस्याओं और एनजीओ टाइप बहसों पर केंद्रित विषय होते हैं। बायोपिक फिल्मों की तरह डॉक्युमेंट्री भी व्यक्तियों के जीवन पर हो सकती हैं। पिछले 50-60 सालों में कुछ डॉक्युमेंट्री फिल्ममेकर ने मशहूर व्यक्तियों पर आधारित डॉक्युमेंट्री बनाने की कोशिश की। ये कोशिशें ज्यादातर सरल किस्म की जीवनियां बनकर रह गई हैं। उनमें व्यक्तियों के अंतर्विरोध और द्वंद्व पर कम ध्यान दिया गया है। वैसे भी भारतीय समाज में यह मजबूत धारणा है कि मरने के बाद किसी व्यक्ति की आलोचना नहीं करनी चाहिए। उसकी कमियों को उजागर तो नहीं ही करना चाहिए।     इस पृष्ठभूमि में शबनम सुखदेव की डॉक्युमेंट्री द लास्ट अदियू(आखिरी सलाम) उल्लेखनीय प्रयास है। इस डॉक्युमेंट्री में बेटी शबनम अपने पिता सुखदेव की तलाश करती है। सुखदेव की मृत्यु के समय उनकी बेटी सिर्फ 14 साल की थीं। दोनों के बीच दुराव रहा। पिता ने अपनी क्रिएटिव व्यस्तताओं के बीच बेटी पर ध्यान नहीं दिया। मां भी नहीं चाहती थीं कि बेटी पिता के करीब जाए। सुखदेव का अपनी पत्

खानत्रयी (आमिर,शाह रुख और सलमान) का साथ आना

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अजय ब्रह्मात्मज किसी कार्यक्रम में खानत्रयी (आमिर, शाह रुख और सलमान) का साथ आना निस्संदेह रोचक खबर है। रजत शर्मा के टीवी शो ‘आप की अदालत’ की 21वीं वर्षगांठ पर आमिर, शाह रुख और सलमान तीनों दिल्ली में थे। वे एक साथ मंच पर आए। उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी हैं। तीनों के प्रशंसक पहली बार सम्मिलित रूप से खुश हैं और समवेत स्वर में गा रहे हैं। तीनों के साथ आने का यह अवसर महत्वपूर्ण हो गया है। इस खबर को उस कार्यक्रम में आए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से अधिक कवरेज मिला है। हमारे दैनंदिन जीवन में मनोरंजन जगत की हस्तियों की बढ़ती दखल का यह लक्षण है। हम उन्हें देख कर खुश होते हैं। अपनी तकलीफें भूल जाते हैं। इस बार तो तीनों एक साथ आए। आमिर, शाह रुख और सलमान के इस सम्मिलन के बारे में कहा जा रहा है कि वे पहली बार एक साथ दिखे। इस खबर में सच्चाई है। शाह रुख-सलमान और आमिर-सलमान की फिल्में भी आ चुकी हैं, लेकिन तीनों एक साथ शायद ही कभी किसी कार्यक्रम में आए हों। ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता।साक्ष्य के लिए कोई तस्वीर नहीं है। दरअसल, पिछले आठ-दस सालों में मीडिया के प्रसार के