भटके हुए फोकस में मिस हुआ गोल

-अजय ब्रह्मात्मज

चक दे इंडिया से गोल की तुलना होना लाजिमी है। तुलना में गोल पिछड़ सकती है क्योंकि चक दे इंडिया लोकप्रिय हो चुकी है। चक दे.. अपेक्षाकृत बेहतर थी भी। गोल में निर्देशक विवेक अग्निहोत्री का फोकस कई बार भटका है। फिल्म ढीली होने के कारण लंबी लगती है। कई बार लगता है कि अनावश्यक रूप से खेल दिखाया जा रहा है।
प्राय: सभी खेल फिल्मों का यही फार्मूला है। एक कमजोर और हारी हुई टीम होती है। उसमें फिल्म के मध्यांतर तक टीम भावना और जीत की लालसा जागती है और अंत में पराजित या कमजोर टीम विजेता घोषित की जाती है। विवेक की गोल इंग्लैंड में बनी है। वहां की एशियाई बस्ती साउथ हाल के लोगों का यूनाइटेड क्लब है। क्लब कई साल से बदहाली है। टीम असंगठित है। कायदे का कोच भी नहीं है। सिटी काउंसिल के एक मेंबर के साथ ही बिल्डरों की नजर क्लब की जमीन पर लगी है। क्लब के सामने एक ही लक्ष्य है कि लीग में चैंपियन बने या जमीन से हाथ धो बैठे। कोच की तलाश होती है। पुराने खिलाड़ी टोनी (बोमन ईरानी) मिल जाते हैं। वह पहले तो कोच बनने से मना करते हैं। बाद में राजी होते हैं। उनकी समस्या है कि कमजोर टीम में जोश कैसे पैदा करें? वह खुद को ब्रिटिश समझ रहे खिलाड़ी सनी (जॉन अब्राहम) को किसी प्रकार राजी कर लेते हैं। सनी के आने के बाद टीम में जोश आता है। इस बीच क्लब बंद करवाने की साजिश में लगे लोग सनी को लालच देकर यूनाइटेड क्लब से अलग कर देते हैं। यहां निर्देशक थोड़ी एशियाई भावना और इंग्लैंड में मौजूद नस्लवाद का मसला ले आते हैं। थोड़ी चर्चा भारतीयता की होती है। तिरंगा भी दिखता है। साफ दिखने लगता है कि निर्देशक विभिन्न तबकों के दर्शकों को रिझाने की कोशिश में है। हल्के सस्पेंस और रोमांस के बाद यूनाइटेड क्लब की जीत होती है। हां, बीच में एक प्रेम कहानी भी पिरो दी गई है ताकि बिपाशा बसु के होने की सार्थकता सिद्ध की जा सके।
जॉन अब्राहम ने फिर एक बेहतर मौका गवां दिया। भावपूर्ण और नाटकीय दृश्यों में वह फिसल जाते हैं। अरशद वारसी, राज जुत्शी, दिब्येन्दु भट्टाचार्य और कुशल पंजाबी फिल्म की जॉन हैं। बोमन ईरानी ने कोच के रूप में संजीदा अभिनय किया है। कह सकते हैं कि गोल का कोच चक दे.. के कोच से अधिक वास्तविक और प्रभावशाली है।

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चवन्नी छाप में अजय ब्रह्मात्मज का कथन सोलह आने सच है। ब्लाग का नाम सोलह आने सच होना चाहिए।

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