छोटे फिल्म फेस्टिवल की सार्थकता

-अजय ब्रह्मात्मज

गोरखपुर, पटना, गया, भोपाल, जयपुर, शिमला जैसे शहरों के साथ ही मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों में भी छोटे पैमाने पर अनेक फिल्म फेस्टिवल होते रहते हैं। दरअसल, देश की दूसरी तमाम गतिविधियों की तरह फिल्म फेस्टिवल के भी श्रेणीकरण और वर्गीकरण हो गए हैं। और उन श्रेणियों और वर्गो के आधार पर उनकी चर्चा होती है और उनका पैमाना भी तय होता है।

एक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल है, जोकि पिछले चार सालों से गोवा में ही हो रहा है। भारत सरकार ने तय किया है कि वह हर साल इसे गोवा में ही आयोजित करेगी और चंद सालों में उसे कान, बर्लिन, वेनिस और टोरंटो की तरह महत्वपूर्ण इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल बना देगी। हालांकि पिछले चार सालों में ऐसा कोई संकेत नहीं मिला। लेकिन हो सकता है कि पांचवें साल में कोई चमत्कार हो जाए।

गोवा के अतिरिक्त कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, पुणे और तिरुअनंतपुरम के फिल्म फेस्टिवल राष्ट्रीय महत्व रखते हैं। क्योंकि इन फेस्टिवलों में भी सिनेप्रेमी और फिल्मकार पहुंचते हैं। चूंकि इन सभी फिल्म फेस्टिवल का बजट अपेक्षाकृत ज्यादा होता है, इसलिए फिल्मों का चुनाव अच्छा रहता है। देश और विदेश के फिल्मकारों की भागीदारी अच्छी रहती है। इन विशिष्ट आयोजनों से अलग हैं दूसरे शहरों और महानगरों में छोटे पैमाने पर आयोजित फिल्म फेस्टिवल। गोरखपुर में संजय जोशी के नेतृत्व में भी एक फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होता है। एक अच्छी बात यह है कि बगैर किसी प्रायोजक और बड़े सरकारी सहयोग के संजय जोशी और उनकी टीम इस फेस्टिवल का आयोजन कर रही है और उसे एक विशिष्ट स्वरूप देने की कोशिश कर रही है। पटना में पिछले तीन सालों से फिल्म फेस्टिवल आयोजित हो रहा है। सीमित बजट में आयोजित यह फेस्टिवल भी पटना के दर्शकों को बेहतरीन सिनेमा के प्रति जागृत करने में सफल रहा है। जयपुर के कुछ आयोजनों की भी काफी चर्चा रही है। कह सकते हैं कि सीमित संसाधनों के दम पर आयोजित इन फिल्म फेस्टिवल का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि यहां दिखावा नहीं होता। फिल्मकारों और बड़ी हस्तियों के अभाव में फेस्टिवल का स्वरूप संतुलित बना रहता है और छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन ये फेस्टिवल अपना उद्देश्य पूरा जरूर करते हैं। जरूरत है कि दर्शक ऐसे फेस्टिवल का समर्थन करें और अपने शहरों में आयोजित फेस्टिवल का हिस्सा बनें। वैसे, ऐसे छोटे आयोजनों को प्रशासनिक सुविधाएं भी मिलनी चाहिए। प्रायोजकों से परहेज करने के बजाए उन्हें ऐसे आयोजनों के लिए प्रेरित भी करना चाहिए। सच तो यह है कि देश के छोटे शहरों में फेस्टिवल होंगे, तो निश्चित रूप से बेहतरीन फिल्मों के निर्माण और प्रदर्शन का माहौल बनेगा और कई नई प्रतिभाएं भी सामने आएंगी। हां, अगर विभिन्न प्रदेशों से आए फिल्मकार और कलाकार ऐसे आयोजनों को सहयोग दें, तो फेस्टिवल का आकर्षण बढ़ सकता है। मुख्य धारा की रोचक व सफल फिल्में भी ऐसे फिल्म फेस्टिवल में शामिल की जा सकती हैं, जैसे कि चक दे इंडिया, तारे जमीन पर, गांधी माई फादर आदि।

फिल्मों के डिजीटल होने के बाद तो अब प्रिंट, प्रोजेक्टर और थिएटर की भी आवश्यकता नहीं रह गई है। अगर छोटे-मझोले शहरों में सिने सोसायटी गठित हों और वे अपने स्तर पर मासिक, त्रैमासिक या वार्षिक रूप से किसी विषय, फिल्मकार, भाषा या देश पर केंद्रित फिल्मों का फेस्टिवल करे, तो कम खर्च में एक अभियान चलाया जा सकता है। आप यकीन करें कि इस अभियान को सुधी दर्शकों का समर्थन मिलेगा और साथ ही सार्थक फिल्मों का एक माहौल बनेगा।

Comments

Anonymous said…
ye sahi kahi aapne sir,
wakai bade sahron ke ye five starry aayozano se cinema aam darshakon se door hi hai agar ish tarah ke upakaram chote centres par bhi kiye jaayein to isse cinema ka hi fayda hoga.

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