हर फिल्म में अपना आर्टिस्टिक वॉयस मिले: किरण राव

खुद को ढूंढती हूं फिल्ममेकिंग में: किरण राव-अजय ब्रह्मात्मज

किरण राव स्वतंत्र सोच की लेखक और निर्देशक हैं। उनकी पहली फिल्म इसी महीने रिलीज हो रही है। इस इंटरव्यू में किरण राव ने निर्देशन की अपनी तैयारी शेयर की है। लेफ्ट टू द सेंटरसोच की किरण की कोशिश अपने आसपास के लोगों को समझने और उसे बेहतर करने की है। उन्हें लगता है कि इसी कोशिश में किसी दिन वह खुद का पा लेंगी।

- हिंदी फिल्मों से पहला परिचय कब और कैसे हुआ?

0 बचपन मेरा कोलकाता में गुजरा। मेरा परिवार फिल्में नहीं देखता था। हमें हिंदी फिल्मों का कोई शौक नहीं था। वहां हमलोग एक क्लब मे जाकर फिल्में देखते थे। शायद शोलेवगैरह देखी। नौवें दशक के अंत में हमारे घर में वीसीआर आया तो ज्यादा फिल्में देखने लगे। इसे इत्तफाक ही कहेंगे कि पहली फिल्म हमने कयामत से कयामत तकही देखी। । उस तरह के सिनेमा से वह मेरा पहला परिचय था। उसके पहले दूरदर्शन के जरिए ही हिंदी फिल्में देख पाए थे।

- क्या आप के परिवार में फिल्में देखने का चलन ही नहीं था?

0 मेरे परिवार में फिल्मों का कोई शौक नहीं था। वे फिल्मों के खिलाफ नहीं थे, लेकिन उनकी रुचि थिएटर और संगीत में थी। साथ में रहने से उसी दिशा में मेरी रुचि बढ़ी। कोलकाता में चार्ली चैप्लिन आदि की फिल्में देखीं। हमलोग सेंट्रल कोलकाता में कामा स्ट्रीट के पास रहते थे। वहां क्लब में हर हफ्ते फिल्में दिखाई जाती थीं, लेकिन वह मिलने-जुलने का बहाना ही था। वीसीआर आने के बाद ही चुन के फिल्में लाना और देखना आरंभ हुआ।

- स्कूल के दिनों में क्या गतिविधियां रहती थीं आप की। सिर्फ पढ़ाई या उसके साथ कुछ अन्य चीजें भी...

0 पढ़ाई तो थी ही। मैं पढऩे में अच्छी थी। पियानो बजाती थी। ड्रामा, खेल,वाद-विवाद और अन्य कल्चरल गतिविधियों में हिस्सा लेती थी। यही कहूंगी कि फिल्मों की तरफ अधिक ध्यान नहीं था। कॉलेज आने तक थिएटर में जाकर कोई हिंदी फिल्म नहीं देखी मैंने। कुछ अंग्रेजी और बंगाली फिल्में जरूर देखी थीं। थोड़ी-बहुत हिंदी फिल्में मुंबई में सोफाया और दिल्ली में जामिया में पढ़ते समय देखीं। वह भी गिनी-चुनी। आज भी थिएटर में जाकर फिल्में देखने का शौक नहीं है। स्कूल-कॉलेज के दिनों में मेरा ज्यादा समय लायब्रेरी में गुजरता था। कोलकाता के क्लब की अच्छी लायब्रेरी थी। म्यूजिक कंसर्ट में खूब जाते थे। थिएटर का बहुत पैशन था और एक्टिंग का शौक था। स्कूल के दिनों में एक्टिंग करती रही। थिएटर वर्कशॉप में हिस्सा लेती थी।

- मुंबई और दिल्ली प्रवास के बारे में बताएं। उन दिनों फिल्मों से किस प्रकार का रिश्ता बना?

0 सोफाया में हॉस्टल में रहती थी। उसके अपने नियम-कानून थे। ज्यादा निकल नहीं सकते थे। हॉस्टल में एक टीवी पर सौ दर्शक रहते थे तो अपनी पसंद की फिल्म या टीवी शो देखने का मौका नहीं रहता था। मैं मुंबई में 1992 से 1995 के बीच रही। उन दिनों टीवी और फिल्मों से रिश्ता कट गया था। सोफाया में पढ़ाई के दौरान भी म्यूजिक कंसर्ट वगैरह के लिए ही निकलती थी। सोफाया के नाटक देखती थी। वहां के स्टाफ हमलोगों को थिएटर के कोने में घुसने की इजाजत दे देते थे। एनसीपीए, टाटा थिएटर, षणमुखानंद और दादर टीटी के पास के हॉल में जाती थी। हमलोग देर रात के प्रोग्राम में नहीं जा पाते थे। सेंट जेवियर्स में गणतंत्र दिवस के समय लाइव हिंदुस्तानी संगीत समारोह में अवश्य जाती थी। गंगूबाई हंगल,रशीद खान,वीणा सहस्त्रबुद्धेे और अन्य बड़े संगीतज्ञों को उसी में सुना था।

- संगीत के प्रति यह रुझान केवल सुनने भर था या आप स्वयं भी गीत-संगीत का अभ्यास करती थीं?

0 कोलकाता में मैंने संगीत सीखना आरंभ किया था। लेकिन वह सिलसिला नहीं चल पाया। टीचर पसंद नहीं आई। मैं उस उम्र में थी, जब कई चीजें एक साथ करने का मन करता है। चंचल मन से सब कुछ करती रही। तभी पियानो बजाना सीखा। वेस्टर्न क्लासिक में रॉयल स्कूल म्यूजिक की ग्रेड 2 तक मैंने परीक्षा दी। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत नहीं सीख पाई। मेरी इच्छा है कि कभी कोई गुरू मिले और मैं थोड़ा अभ्यास कर सकूं। मुझे कर्नाटक संगीत का भी शौक है।

- फिर सिनेमा या मास मीडिया में रुचि कैसे जगी। आप ने तो जामिया में यही पढ़ाई की और फिर से मुंबई आईं ...

0 अभी बताती हूं। 1995 में जामिया चली गई। तभी आदित्य चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगेआई थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि थिएटर में जाकर वही पहली फिल्म देखी थी। मैं उसे अपनी फस्र्ट हिंदी फिल्म कहूंगी। तब मेरी उम्र 22 साल थी।

- कयामत से कयामत तकऔर फिर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे ... इन दो फिल्मों के आधार पर हिंदी फिल्मों के प्रति आप की क्या धारणा बनी?

0कयामत से कयामत तकदेखते समय मैं पूरी तरह इनवॉल्व हो गई थी। वह फिल्म मेरी उम्र के लिए थी। टीनएजर थी मैं। प्यार और फस्र्ट लव की फीलिंग आने लगी थी। उस फिल्म ने मेरी कल्पना को झकझोर दिया। गाने भी कमाल के थे। मैंने कम से कम 12-15 बार देखी थी फिल्म। बहुत पसंद आई थी। मुझे वह कंटेपररी फिल्म लगी थी। कुछ और फिल्में भी देखी होंगी, लेकिन याद नहीं है। कुछ ही दिनों में वीसीआर का मजा जाता रहा। दो-तीन सालों के बाद केबल टीवी और फिर सैटेलाइट टीवी आ गया तो अपनी पसंद से फिल्में लाने और देखने का चक्कर खत्म हो गया।

- ऐसा लगता है कि आप की देखी फिल्मों को उंगलियों पर गिना जा सकता है?

0 ऐसा भी नहीं है। इतनी कम फिल्में भी नहीं देखी हैं। मैंने हिंदी से ज्यादा वल्र्ड सिनेमा देखा है। अब मैं हिंदी फिल्में देख रही हूं। अपनी पढ़ाई और जानकारी के लिए देखना चाहती हूं। आमिर भी कुछ महान फिल्मों का जिक्र करते हैं। मैं भी प्लान कर रही हूं। हिंदी फिल्मों के ट्रैडीशन को समझना है। ऐसे कौन से फिल्म मेकर और फिल्में हैं, जो देखी जानी चाहिए। दिल्ली में रहते समय विभिन्न दूतावासों में जाकर फिल्में देखती थी। वहां मुफ्त में देख लेते थे। योरोप का सिनेमा खूब देखा। इफ्फी (इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल) पहले दिल्ली में हुआ करता था। उस दरम्यान हमलोग वहीं रहते थे। वहां एक-एक दिन में पांच फिल्में देखते थे। आज की फिल्में कभी-कभार जाकर देख लेती हूं। मैंने पिछले दिनों एलएसडीऔर रावणदेखी। कुछ डायरेक्टर मुझे पसंद हैं तो उनकी फिल्में देखती थी।

- मीडिया की पढ़ाई में अपने इंटरेस्ट के बारे में आप ने नहीं बताया?

0 शुरू से थिएटर में इंटरेस्ट था। पोएट्री और शॉर्ट स्टोरी लिखती थी। मैंने स्कूल और कॉलेज की मैग्जीन भी एडिट की थी। मैं पेंटिंग भी करना चाहती थी, लेकिन उधर ध्यान नहीं लगा सकी। शुरू में इरादा था कि डेवलेपमेंट फिल्ममेकिंग सीखूं।

डेवलपमेंट वर्क में मेरा इंटरेस्ट था। मैंने इकॉनोमिक्स और इंग्लिश में बीए किया था। यही सोचा था कि डेवलपमेंट का काम करूं। उसी में फिल्ममेकिंग करने का इरादा था। कॉलेज खत्म होने के बाद मुझे लगा कि अपने इंटरेस्ट की पढ़ाई करनी चाहिए। तब मेरा इंटरेस्ट आर्ट में था। आप देखें तो सिनेमा में सारे आर्ट समाहित हैं। एक ही मीडियम में सब मौजूद है। तब निश्चित नहीं थी कि डायरेक्टर बनना है। मैंने सोचा कि पता करते हैं। इसी वजह से मैं एफटीआईआई नहीं गई। मैं एडीटिंग या डायरेक्शन की स्पेसफिक पढ़ाई नहीं करना चाहती थी। मॉस कॉम में एडमिशन लेने पर फोटोग्राफी में मेरी रुचि बढ़ गई। तब हमलोग केवल स्टिल फोटोग्राफी करते थे। उसी समय साउंड भी सीखा। उस कोर्स में परफार्मेंस का भी स्कोप था। स्ट्रीट थिएटर, पपेट्री वगैरह भी किया।

- टीचर या साथ के लोग कौन थे?

0 हबीब किदवई डीन थे। जनम के सुधन्वा देशपांडे थिएटर पढ़ाते थे। विजुअल कम्युनिकेशन में राजीव लोचन थे। बहुत इंटरेस्टिंग था वह कोर्स। पपेट्री में वरुण नारायण थे। फोटोग्राफी में मिस्टर खान थे ़ ़ ़ तब फोटोग्राफी में इंटरेस्ट था। सेकेंड ईयर में फिल्म की ट्रेनिंग तो यों लगा कि कोई तार बजा। फिर तय कर लिया कि यही करना है। पहली कुछ फिल्मों में सारा काम हमें ही करना पड़ता था। मुझे इतना मजा आया। ऐसा लगा कि अपने काम की चीज मिल गई। फिल्ममेकिंग में जाना तय कर लिया। अब दुविधा थी कि फिल्ममेकिंग में क्या करना है? शुरू में सिनेमैटोग्राफी में मजा आया। सब कुछ सोचना, अरेंज करना ़ ़ ़ सब अच्छा लगता था। फिर एक प्रोफेसर ने कहा कि नहीं, तुम्हारा ओरियंटेशन तो डायरेक्शन का है। तुम डायरेक्शन ही करो ़ ़ ़ फिर समझ में आया कि डायरेक्टर बनना है।

- वह पहला काम कौन सा था ़ ़ ़ वह कौन सी खास बात हुई?

0 एक घटना या एक क्षण का उल्लेख नहीं कर सकती। पूरे दो साल का असर रहा। मुझे धीरे-धीरे अहसास होने लगा था कि यह मेरा कार्यक्षेत्र हो सकता है। मैं उसमें इस तरह बह कर निकली कि अपनी मंजिल तक पहुंच ही गई। सब कुछ स्वत: होता गया। मैंने अलग से कुछ सीखने, जानने, समझने की कोशिश नहीं की। मैंने कहीं हाथ आजमाने की भी कोशिश नहीं की। पढ़ाई खत्म होते ही वापस मुंबई आ गई कि अब डायरेक्शन में जाना है।

- मुंबई आने के समय क्या सोचा था? फिल्म, टीवी या कुछ और ़ ़ ़ एक तो तरीका होता है कि जो काम मिलेगा, कर लेंगे। फिर अपने मन का काम करेंगे?

0 मैं एकदम स्पष्ट थी कि मुझे टीवी नहीं करना है। मेरे साथ की लड़कियों ने टीवी में काम किया। कुछ लड़कियां तो एनडीटीवी में चली गईं। जामिया से निकला पूरा का पूरा बैच टीवी में गया। उनके लिए अच्छी बात होगी। मेरा टीवी में इंटरेस्ट नहीं था। मुझे पता था कि फिल्म में इंटरेस्ट है और वही करना है। पढ़ाई खत्म होने के एक हफ्ते के बाद मैं मुंबई आ गई थी। यहां एक हफ्ते तक इधर-उधर हाथ मारती रही। किसी से कोई जान-पहचान नहीं थी। मेरे एक-दो दोस्त असिस्टैंट थे। मैं 1998 की बात कर रही हूं। उस वक्त इस तरह की फिल्में भी नहीं बन रही थीं। चूंकि मैं फिल्में देख कर नहीं आई थी तो यह भी ठीक से नहीं मालूम था कि किस डायरेक्टर के साथ काम करना चाहिए। किसे अप्रोच करना चाहिए। फिर काम की तलाश आरंभ हुई। मुंबई में रहने के लिए कुछ तो करना था। मैंने एडवर्टाइजिंग में काम शुरू कर दिया। मुंबई आने के एक हफ्ते के अंदर काम मिल गया। रहने की समस्या खत्म हो गई तो फिर फिल्मों के लिए सोचना शुरू किया।

- एडवल्र्ड में किस तरह के काम किए और कैसे अपने फोकस को बचाए रखा। अमूमन काम के साथ पैसे मिलने लगें तो सुविधाएं अच्छी लगने लगती हैं और हम ठहर या भटक जाते हैं ़ ़ ़

0 फिल्म तो मुझे बनानी ही थी। एड का काम तो खुद को मुंबई में बनाए रखने के लिए था। मैं शुरू में शॉर्ट एंड द डार्क कंपनी के साथ थी। फिर ढेर सारी फ्रीलांसिंग की। हाईलाइट फिल्म्स ़ ़ ़ पोपोय के साथ काम किया। अच्छा एक्सपीरिएंस हो गया।

- फिर फिल्मों की तरफ कैसे छलांग लगी ़ ़ ़ शायद लगानमें आप आशुतोष गोवारीकर की असिस्टैंट थीं?

0 रीमा कागटी ने मुझ से पूछा कि लगानफिल्म बन रही है। वहां सीख सकोगी। काम करना है तो बोलो? तो लगानके लिए मैं भुज चली गई। वह मेरा फस्र्ट एक्सपीरिएंस था। इतना अच्छा एक्सपीरिएंस तो बहुत कम लोगों को मिल पाता है।

- कैसा एक्सपीरिएंस रहा?

0 मेरे लिए बहुत ही एक्साइटिंग एक्सपीरिएंस रहा। एक एडवेंचर की तरह था। हम सब यहां से ट्रेन से गांधीधाम गए। फिर गाड़ी से भुज गए। वह हमारे लिए एक नई दुनिया थी। ऐसा नहीं था कि फिल्मसिटी जा रहे हैं। गए भी तो कच्छ गए। सेट पर सब कुछ जादुई था। सेट पर जाने के पहले मुंबई में एक महीना प्री प्रोडक्शन का काम करते रहे। 2 जनवरी 2000 को हमलोग भुज के लिए निकले। 3 को वहां पहुंचे। मैं वहां तीसरी असिस्टैंट थी। इतना मजा आया। मेरे लिए वह वंडरलैंड ही था। उस समय तक सेट का काम चल रहा था। आशुतोष गोवारीकर से तो मुंबई में मुलाकात हो चुकी थी। वहां कैमरामैन अनिल मेहता से मिले। उन दोनों की बातचीत सुनना और समझना। मैं खुद एक्टर की इंचार्ज थी। मुझे सब पता रखना था कि किस एक्टर को कब क्या करना है, क्या पहनना है? मुझे कंटीन्यूटी का भी रिकॉर्ड रखना था। मुझे 20-25 एक्टर मैनेज करने पड़ते थे। सभी को डेढ़-दो घंटे में तैयार करवाना होता था।

- काम करते हुए आप सीखते हैं तो वह व्यावहारिक प्रशिक्षण होता है। आप यह भी सीख रही होती हैं कि मुझे क्या-क्या नहीं करना है? क्या कुछ शेयर करेंगी?

0 एक तो लगानबड़ी फिल्म थी और बड़े पैमाने पर बनी थी। कई बार ऐसा लगा कि फिल्म नहीं बन पाएगी। कभी डर होता था कि हम कर भी पाएंगे या नहीं? मैं तो यही कहूंगी कि वह जितना चैलैंजिंग था, उतना ही रिवार्डिंग भी था। उस फिल्म से हमें बहुत कुछ मिला। लगानके सेट से मुझे जिंदगी के अविस्मरणीय अनुभव मिले। मैं कभी उन्हें मैं कभी भूल नहीं सकती।

- आप के लिए तो छात्रवृत्ति के साथ प्रशिक्षण हो गया?

0 बिल्कुल ़ ़ ़ अब गाने कैसे शूट किए जाते हैं? एड फिल्म करने से शूटिंग की बेसिक जानकारी हो गई थी, लेकिन फिल्म की शूटिंग तो बिल्कुल नया अनुभव था। घनन घननगाना हर दिन शाम को खास लाइट में शूट होता था। आशु जी से मैंने बहुत कुछ सीखा। एक्टर से काम निकालने का तरीका सीखा। वे बहुत बारीकी और धैर्य से काम लेते हैं। उस फिल्म से क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिएभी अच्छी तरह समझ में आया। हमलोग छह महीने वहां रहे। सभी एक साथ रहते थे। वैसी फिल्म न तो पहले बनी थी और न आगे बन पाएगी।

- लगानके साथ जुडऩे से आप को कम समय में ज्यादा प्रशिक्षण मिल गया। उस अनुभव के बाद क्या सोचा? क्या वह पर्याप्त था या कुछ और सीखने-समझने की जरूरत बाकी रही?

0 मेरे पास कुछ कहने को होगा, तभी मैं फिल्म करूंगी। पहले ऐसा सोचती थी और आज भी ऐसा ही सोचती हूं। सिर्फ फिल्म बनाने के लिए मुझे कोई फिल्म नहीं बनानी है। पैसे तो मैं कैसे भी कमा सकती हूं। मुझे पैसों के लिए फिल्म नहीं बनानी है। मुझे फिल्ममेकिंग के क्रिएटिव प्रोसेस में ज्यादा मजा आता है। उस प्रोसेस में तभी जाऊंगी, जब मैं कुछ कहना चाहूंगी। मुझे अपनी बात एक्साइट करे। मुझे उसमें अपना हिस्सा दिखे। मैं पर्सनलाइज्ड फिल्में बनाना चाहती हूं। मुझे हर फिल्म में अपना आर्टिस्टिक वॉयस मिले। मैं खुद को पा सकूं। मुझे फिल्म तो बनानी थी, लेकिन खुद में ही ढूंढना था कि मुझे क्या बनाना है? मेरी खुद की प्योर क्रिएटिविटी क्या है? मैंने कोशिश शुरू की। शुरू के दिन तो घर चलाने के लिए पैसे कमाने में निकल गए। मैं बांद्रा में फ्लैट लेकर अकेली रहती थी। 2002-3 में मैंने लिखना शुरू कर दिया था। कुछ इंटरेस्टिंग आयडिया पर काम करने लगी। उसके पहले कभी स्क्रिप्ट नहीं लिखी थी तो अभ्यास भी करना था। कुछ विचारों को कागज पर उतारना शुरू किया।

- लगानके बाद किसी फिल्म से आप नहीं जुड़ीं? क्या यह तय कर लिया था कि अब अपनी फिल्म करनी है। अपने आर्टिस्टिक वॉयस को खोजना है?

0लगानके बाद मैंने मानसून वेडिंगमें असिस्ट किया। एक-दो छोटी फिल्में कीं। वहां से लौट कर आने के बाद फिर से एडवर्टाइजिंग का काम किया। दिल चाहता हैमें गोवा की कास्टिंग में मदद की। हाईलाइट फिल्म्स में प्रसून पांडे के साथ काफी काम किया। उससे मेरा गुजर-बसर हो जाता था। सोचती थी कि समय मिलेगा तो कुछ लिखूंगी। फिर 2003 में फैसला कर लिया कि अब लिखना है। तब मुझे मालूम था कि जो लिख रही हूं, उस पर फिल्म नहीं बनानी है। फिर भी प्रैक्टिश के लिए लिखना जरूरी था। ऐसा नहीं होता है कि आप कुछ लिखें और वह मास्टरपीस हो जाए। बगैर लिखे अभ्यास नहीं होता। 75 प्रतिशत तो अभ्यास ही काम आता है।

- स्क्रिप्ट लिखने के पहले आप स्क्रिप्ट लेखन की किताबें या फिल्मों की स्क्रिप्ट नहीं पढ़ी?

0 बिल्कुल नहीं ़ ़ ़ मैंने कोई किताब नहीं पढ़ी। बस, लिखना शुरू किया। जो लिखा, वह अच्छा नहीं लगा। अच्छा था भी नहीं। फिर भी लेखन का प्रैक्टिश हुआ। मैंने स्क्रिप्ट का स्ट्रक्चर समझा या यों कहें कि अपनी बात कागज पर उतारना आया। कैरेक्टर को डेवलप करने के लिए क्या करना पड़ता है? उस दरम्यान मैंने दिल चाहता हैऔर मणि रत्नम की बांबेदेखी। मेरे ऊपर हिंदी फिल्मों का सीधा प्रभाव नहीं था, फिर भी इतना अहसास हो रहा था कि मेरा लिखा हिंदी सिनेमा जैसा नहीं है। मैं समझ तो रही थी। मेरे पास कोई रेफरेंस पाइंट नहीं था। हर लेखक किसी विचार के साथ लिखना शुरू करता है और कहीं पहुंच जाता है।

- ऐसा संभव है क्या कि बगैर किसी रेफरेंस पाइंट के कोई फिल्म की कहानी लिखे और उस पर फिल्म बनाने की सोचे। मुमकिन है आप की सोच आर्गेनिक हो, लेकिन वह भी तो कहीं से बनती है?

- मैंने विदेशी फिल्में काफी देखी हैं। योरोप का सिनेमा देखा है। मुझे किस्लोवस्की की फिल्में अच्छी लगती थीं। हंगरी का भी सिनेमा देखा था। मेरे प्रभाव यहां के नहीं हैं। भारत में बनी कुछ अंग्रेजी फिल्में भी देखीं। डाक्यूमेंट्री फिल्में खूब देखी हैं। --- बहुत अच्छे डाक्यूमेंट्री मेकर हैं। उनका म्यूजिक का ज्ञान बहुत अच्छा है। जामिया फिल्म फेस्टिवल और इधर-उधर की कुछ फिल्में देखीं। ईरान की फिल्मों से प्रभावित रहीं।

- हिंदी फिल्मों की फैंटेसी से आप बची रहीं?

0 मैं उस फैंटेसी में कभी गई ही नहीं। मुझे पता था कि मैं जो लिखने जा रही हूं, वह मेरे अंदर से आना चाहिए। मैंने पहले से कुछ सोचा ही नहीं कि किस दर्शक के लिए और क्या लिखना है? मेरे लिए फिल्ममेकिंग खुद को समझने की कोशिश हैं। खुद को एक्सप्रेस करने के साथ खुद को बेहतर करने की कोशिश है। खुद के विचार को मथने के साथ अपना विकास है। मैं तो आर्ट के सभी क्षेत्रों में इंटरेस्टेड हूं। मैं सबकुछ करना चाहती हूं। म्यूजिक में मेरा मन लगता है। मेरी कोशिश रही कि मैं अपनी रुचि और पसंद की चीजों को जोड़ कर अपने समय के मनुष्य की स्थिति और उनकी भावनाओं को समझूं और उन्हें पर्दे पर पेश करूं। कभी किसी की किताब अच्छी लगी तो उस पर भी फिल्म बना सकती हूं, लेकिन मुझे लिखने का शौक पहले से रहा है। बचपन में कुछ कविताएं प्रकाशित भी हुई थीं। मैंने स्कूल-कॉलेज में मैग्जिन एडिट किए और आर्टिकल भी लिखे। लिखना मेरे लिए फिल्म का बहुत एक्साइटिंग हिस्सा है। चरित्र गढऩे में मुझे मजा आता है। सिनेमा के हर पहलू पर अधिकार पाना चाहती हूं। मुझे अपनी क्षमता का अहसास हो जाता है करते-करते। काम पूरा हो जाने के बाद मुझे साफ दिखता है कि तब जो आशंका थी, अब वह कमी के रूप में सामने दिख रही है।

- धोबी घाटके पहले कितनी स्क्रिप्ट लिखी आप ने? कितना अभ्यास करना पड़ा?

0 एक भी पूरी स्क्रिप्ट नहीं लिखी। मैंने दो कहानियां लिखीं। एक पूरी कर पाई। एक अधूरी रह गई।

अधूरी कहानी सिर्फ मजे के लिए लिखी थी। एक विचार परेशान कर रहा था तो उसे लिख डाला था।

- आप वैचारिक रूप से कितनी संपन्न हैं। अपनी मुलाकातों और बातों में मैंने पाया है कि आप लेफ्ट ऑफ द सेंटरसोच की हैं ़ ़ ़

0 शुरूआती जीवन कोलकाता में बीता है। उसका असर हो सकता है। मैं मानती हूं कि कोलकाता, मेरे माता-पिता की विचारधारा, आर्ट्स में मेरी रुचि, एकाकी रह कर काम करने की आदत ने मुझे गढ़ा है और मेरे विचार तय किए हैं। मैं लेफ्ट ऑफ द सेंटरहूं। मैं डेवलपमेंट वर्क करना चाहती थी। हमारे पास के लोगों की दशा बदले। अलग-अलग लोगों की दुनिया कैसे अलग-अलग होती है और कैसे उनके अनुभव उन्हें बदलते हैं? मेरी जिज्ञासा इस विषय में है। एक ही शहर में रह कर कैसे लोग अलग शहर में रहते हैं।

- फिल्म लेखन और निर्देशन में जो जीवन आप ने जिया है, उसे कैसे ला पाती हैं और फिर उसके प्रति सम्यक दृष्टिकोण कैसे बनती है?

0 यह चुनौती है। जिन किरदारों के चारीत्रिक विशेषताओं के अनुभव मुझे नहीं हैं, उन्हें गढ़ते समय मैं उनसे सहानुभूति रखती हूं। समान परिस्थिति में खुद को डालकर देखती और सोचती हूं कि मेरा अनुभव कैसा रहता? या मैं कैसे रिएक्ट करती? यह सब असर मेरी फिल्म में रहा है। धोबी घाटमेरी जिंदगी, मेरे आउटलुक और मेरी धारणाओं का फिल्म है। यह मेरे बारे में नहीं है, लेकिन मैं पर्सनल फिल्में बनाना चाहती हूं।

- हालांकि आप कोलकाता और दिल्ली जैसे महानगरों में रह चुकी हैं, लेकिन क्या कभी मुंबई ने डराया आप को?

0 बचपन की तो याद नहीं। सिर्फ समुद्र की लहरें याद हैं। बाद में अपनी बहन की शादी में आई थी तो लगा था कि मुझे इसी शहर में रहना चाहिए। इस शहर की इलेक्ट्रिक एनर्जी है। वह जकड़ लेती है आप को। आप शहर छोड़ देते हैं तो भी वह आप के साथ रहती है। कोलकाता और दिल्ली भी मुझे पसंद हैं। मुझे दिल्ली बहुत अच्छी लगती है, लेकिन अब मैं मुंबई गर्ल हूं। मुंबईकर हूं। मेरी अभी तक की आधी जिंदगी यहीं गुजरी है। यहां आने पर मुझे हमेशा लगा कि मैं यहीं की हूं। यों समझें कि मुझे मुंबई में जड़ दिया गया और मैं फिट हो गई। मुझे कभी डर नहीं लगा। कॉलेज के दिनों में मुझे घूमना बहुत पसंद था। मैं पेडर रोड में रहती थी। बहुत घूमती थी।

- तब किसी फिल्म स्टार से मिलने या फिल्म की शूटिंग देखने का मन नहीं किया?

0 बिल्कुल नहीं ़ ़ ़ आश्चर्य है ना? मेरा थिएटर का शौक था। थिएटर देखती थी। सोफाया कालेज के भाभा हॉल में जाकर नाटक देखती थी। वह कंपाउंड के अंदर था, इसलिए कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।

- धोबी घाटका आइडिया कहां से आया?

0 मुंबई में इतने सालों रही। यह शहर मुझे बहुत प्रभावित करता है। मुझे इस शहर पर ही कोई फिल्म करनी थी। मैं शहर के भिन्न स्तर और लेयर को समझना चाहती थी। उन्हें पर्दे पर लाना चाहती थी। मैंने स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की तो दो रफ आइडियाज थे। लिखते-लिखते वे दोनों आइडिया जाकर मिल गए। एक आइडिया यह था कि एक धोबी है, जो अलग-अलग घरों में जाता है। उनसे मिलता है। उनका रहन-सहन देखता है। वह खुद कहीं और रहता है। कैसे वह कई लोगों को जोड़ता है? मैं उसकी कहानी कहना चाहती थी। मुझे यह भी दिखाना था कि इस शहर में हम अपने अतीत को हम भुला सकते हैं। यहां आ कर नया फ्यूचर बना सकते हैं। एक लडक़ी बाहर से आती है। वह इस शहर को फोटो के जरिए डाक्यूमेंट करना चाहती है। दोनों की दोस्ती हो जाती है। क्या उनकी दोस्ती प्यार में बढ़ सकती है? मैं यह देखना चाहती थी कि इस इंटरनेशनल शहर में दो वर्ग के बीच में क्या हो सकता है? यह एक आइडिया था। इसके अलावा जब मैं मुंबई आई थी तो मुझे काफी घर बदलने पड़े थे। ग्यारह महीनों का चक्कर रहता था। सालों तक मैं वैसे ही रही। मैं उस पर एक फिल्म बनाना चाहती थी। उसे मैंने शूट करना शुरू कर दिया था अ सिंगल वीमैन लुकिंग फॉर अ हाउस। मैं जानना चाहती थी कि क्या-क्या होता है? मैं मकान खोजने के प्रोसेस को डाक्यूमेंट कर रही थी। क्या-क्या जगह मिलती है? कैसे सवाल पूछे जाते हैं। वन बीएचके, टू बीएचके ़ ़ ़ लड़कियों के साथ तो और भी पाबंदियां रहती हैं। उस पर फिल्म बना रही थी तो सोचती थी कि हर बार एक नए घर में जाने के बाद अपनी पसंद की चीजें डाल कर उसे अपना घर बनाते हैं। दो हफ्ते पहले वही घर किसी और का होता है। किसी और की पर्सनल जगह थी वह। उनकी समस्याएं और खुशियां थीं। क्या उनके निशान भी वहां होंगे? एक ही मकान को कितने लोग शेयर करते हैं। चाहती थी कि किसी का छोड़ा कुछ मिले और फिर मुझे उस शख्स की जिंदगी का कोई रहस्य मिले ़ ़ ़ यह मेरी स्टोरी का आइडिया था। अगर वे उसे लेने आए तो एक फ्रेंडशिप डेवलप हो सकता है। कैसे मैं उनके प्राब्लम से जुड़ती हूं। यह सेकेंड आइडिया था ़ ़ ़ बाद में दोनों आइडिया फिल्म में जुड़ गए। यह धोबी घाटका स्टार्र्टिंग पाइंट था।

- सारी दुनिया जानती है कि आप आमिर खान की पत्नी हैं। आमिर खान प्रोडक्शन पर आप का हक है, इसलिए धोबी घाटको फ्लोर पर ले जाने में कोई दिक्कत नहीं हुई होगी?

0 आमिर को स्क्रिप्ट पसंद नहीं आती तो फिल्म ही नहीं बनती। सबसे पहले तो उन्हें कहानी सुनानी थी। मैंने आमिर से वक्त मांगा तो उन्होंने कहा कि हमलोग कुन्नूर जा रहे हैं। वहीं मंसूर और टीना के साथ सुनेंगे। बाद में पता चला कि उन्हें डर था कि अच्छी नहीं लगी तो वे मुझे कैसे बताएंगे? अगर मंसूर को भी अच्छी नहीं लगी तो मिलकर बता देंगे। उन्हें कहानी सुनाई तो कहानी पसंद आई। फिल्म तय हो गई तो आमिर ने पूछा कि कैसे बनाना है? मैं छोटी फिल्म चाहती थी। तब मैं चाहती थी कि खुद शूट करूंगी। जल्दी ही वह आइडिया छोड़ दिया। मैंने यही कहा कि मैं पो्रड्यूस करूंगी ़ ़ ़ आप थोड़ा सा पैसा दीजिए। मैंने अपना प्रोडक्शन हाउस खोला था।

- ऐसा क्यों?

0 मैं नहीं चाहती थी कि आमिर खान प्रोडक्शन के नाम से काम करूं। उसकी व्यावहारिक दिक्कतें थीं। मैं नहीं चाहती थी कि बड़ी फिल्म के तौर पर यह प्रचारित हो। अपनी सुविधा के लिए मैं इसे छोटे स्तर पर अलग प्रोडक्शन कंपनी के नाम से बनाना चाहती थी। इसे छोटे बजट में शुरू किया था।

- क्या नाम था प्रोडक्शन हाउस का?

0 सिनेमा 73 ़ ़ ़ वह मेरी पैदाइश का साल है। इसी उद्देश्य से अपना काम शुरू किया। आइडिया था कि पहले फिल्म बना लूंगी। फिर आमिर खान प्रोडक्शन जुड़ेगा और उस बैनर से फिल्म आएगी। आमिर तो मेरे प्रोड्यूसर के साथ मेरे एडवाइजर भी थे। उनको मैं हर चीज दिखाती थी। हर पाइंट पर सलाह लेती थी। उन्हें कास्टिंग और लोकेशन दिखाती थी। फिल्म से वे तब जुड़े जब उनके रोल के लिए कोई नहीं मिला। उनका इंटरेस्ट पहले से था। वे मुन्ना का रोल चाहते थे, लेकिन वह बहुत यंग था उनके लिए। मैं अपनी फिल्म में बड़ा स्टार लेकर फिल्म का कीमत नहीं बढ़ाना चाहती थी। जब उस रोल में कोई मिला ही नहीं तो फिर मैंने उनका आडिशन लिया। उस रोल में बोलना कम था और परफार्मेंस ज्यादा था। उस लेवल का परफार्मर चाहिए थे। बाकी कलाकार तो नए थे। उन्हें उसी वजह से चुना था कि उन्हें कोई नहीं जानता। फिर कोई नहीं मिला तो आमिर ने कहा कि मैं आडिशन करता हूं और बताता हूं कि इन रोल में क्या-क्या हो सकता है। यह बता दूं कि रोल को कहां तक पहुंचाया जा सकता है। उन्होंने टेस्ट दिया तो वे अच्छे लगे। वे परीक्षा में पास हो गए। फिर भी हमने फायनल नहीं किया और सोचने का वक्त मांगा।

Comments

Manoj Mairta said…
the first thing i like to do in early morning is to go through the interviews that publish in newspaper. this one is also interesting!
Yayaver said…
wah yahan interview padne ka maza hee kuch aur. Ek quality rahti hai.
वाह! मजा आ गया उपरोक्त साक्षात्कार को पढ़कर. यह अखबार में प्रकाशित करने के योग्य के साथ बेहद दिलचस्प भी है! इसमें अपनी धुन में लगे रहने का सबक मिला है और दूसरों से हटकर कुछ कर दिखने की प्रेरणा भी. अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए किये एक संघर्ष की कहानी भी है.


.इन्टरनेट या अन्य सोफ्टवेयर में हिंदी की टाइपिंग कैसे करें और हिंदी में ईमेल कैसे भेजें जाने. नियमित रूप से मेरा ब्लॉग http://rksirfiraa.blogspot.com , http://sirfiraa.blogspot.com, http://mubarakbad.blogspot.com, http://aapkomubarakho.blogspot.com, http://aap-ki-shayari.blogspot.com & http://sachchadost.blogspot.com देखें और अपने बहूमूल्य सुझाव व शिकायतें अवश्य भेजकर मेरा मार्गदर्शन करें. अच्छी या बुरी टिप्पणियाँ आप भी करें और अपने दोस्तों को भी करने के लिए कहे.# निष्पक्ष, निडर, अपराध विरोधी व आजाद विचारधारा वाला प्रकाशक, मुद्रक, संपादक, स्वतंत्र पत्रकार, कवि व लेखक रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" फ़ोन:9868262751, 9910350461 email: sirfiraa@gmail.com
Waah , Bahut hi Sundar, Sada aur Behtareen Interview, Maza Aa gaya 2017 ki pahli subeh ko padh ke :)

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