फिल्‍म समीक्षा : रॉकस्‍टार

रॉकस्टार : हीर का मॉर्डन प्रेमी जार्डन-अजय ब्रह्मात्‍मज

युवा फिल्मकारों में इम्तियाज अली की फिल्में मुख्य रूप से प्रेम कहानियां होती हैं। यह उनकी चौथी फिल्म है। शिल्प के स्तर पर थोड़ी उलझी हुई, लेकिन सोच के स्तर पर पहले की तरह ही स्पष्ट... मिलना, बिछुड़ना और फिर मिलना। आखिरी मिलन कई बार सुखद तो कभी दुखद भी होता है। इस बार इम्तियाज अली प्रसंगों को तार्किक तरीके से जोड़ते नहीं चलते हैं। कई प्रसंगअव्यक्त और अव्याख्यायित रह जाते हैं और रॉकस्टार अतृप्त प्रेम कहानी बन जाती है। एहसास जागता है कि कुछ और भी जोड़ा जा सकता था... कुछ और भी कहा जा सकता था।

रॉकस्टार की नायिका हीर है और नायक जनार्दन जाखड़... जो बाद में हीर के दिए नाम जॉर्डन को अपना लेता है। वह मशहूर रॉकस्टार बन जाता है, लेकिन इस प्रक्रिया में अंदर से छीजता जाता है। वह हीर से उत्कट प्रेम करता है, लेकिन उसके साथ जी नहीं सकता... रह नहीं सकता। कॉलेज के कैंटीन के मालिक खटाना ने उसे मजाक-मजाक में कलाकार होने की तकलीफ की जानकारी दी थी। यही तकलीफ अब उसकी जिंदगी बन गई है। वह सब कुछ हासिल कर लेने के बाद भी अंदर से खाली हो जाता है, क्योंकि उसकी हीर तो किसी और की हो चुकी है... छिन गई है उसकी हीर। क्या इम्तियाज अली ने वारिस शाह की हीर रांझा से प्रेरित होकर इस फिल्म की कहानी लिखी है? यहां भी हीर अमीर परिवार की खूबसूरत लड़की है और रांझा की तरह जॉर्डन संगीतज्ञ है। रांझा की जिंदगी में बाबा गोरखनाथ आए थे और अलख जगा गए थे। इस फिल्म में जॉर्डन उस्ताद जमील खान के संपर्क में आता है और निजामुद्दीन औलिया की दरगाह की कव्वाली के दौरान उसके अंदर के तार बजते हैं।

ओरिजनल रांझा की तरह पूरी जिंदगी जॉर्डन भी भटकता रहता है और हीर से मिलकर भी नहीं मिल पाता।

इम्तियाज अली ने हीर रांझा की कहानी को आधुनिक परिवेश में हीर-जॉर्डन की कहानी बना दिया है। रॉकस्टार जनार्दन के जॉर्डन बनने की भी कहानी है। एक संगीतज्ञ और कलाकार की जेनेसिस के रूप में इसे देखें तो पाएंगे कि साधारण व्यक्ति की जिंदगी की साधारण घटनाएं ही कई बार व्यक्ति के अंदर असाधारण विस्फोट करती हैं और उसे विशेष बना देती है। रूपांतरण की यह घटना आकस्मिक नहीं होती। कलाकार इससे अनजान रहता है। जॉर्डन के जीवन का द्वंद्व, विरोधाभास और सब कुछ हासिल कर उन्हें गंवा देने की सहज प्रवृत्ति अविश्वसनीय होने के बावजूद स्वाभाविक है।

रॉकस्टार एक विलक्षण प्रेम कहानी भी है। हीर और जॉर्डन के बीच प्रेम पनपता है तो वह नैतिकता और अनैतिकता ही परवाह नहीं करता। दोनों अपने प्रेम की अनैतिकता को जानते हुए भी उसमें डूबते जाते हैं, क्योंकि वे विवश हैं। उनका रिश्ता सही और गलत के परे है। साथ आते ही उनके बीच जादुई रिश्ता बनता है, जो मेडिकल साइंस को भी झुठला देता है। तर्क के तराजू पर तौलने चलें तो रॉकस्टार में कई कमियां नजर आएंगी। इस फिल्म का आनंद इसके उद्दाम भावनात्मक संवेग में है, जो किनारों और नियमों को तोड़ता बहता है।।

यह फिल्म सिर्फ रणबीर कपूर के लिए भी देखी जा सकती है। रणबीर अपनी पीढ़ी के समर्थ और सक्षम अभिनेता हैं। उन्होंने जनार्दन की सादगी और जॉर्डन की तकलीफ को अचछी तरह चित्रित किया है। वे एक कलाकार के दर्द, चुभन खालीपन, निराशा, जोश, खुशी सभी भावों को दृश्य के मुताबिक जीते हैं। रॉकस्टार में उनके अभिनय के रेंज की जानकारी मिलती है। फिल्म का कमजोर पक्ष नरगिस फाखरी का चुनाव है। वह सुंदर हैं, लेकिन भावपूर्ण नहीं हैं। फिल्म के महत्वपूर्ण दृश्यों को वह कमजोर कर देती हैं। सहयोगी कलाकारों में कुमुद मिश्रा और पियूष मिश्रा उल्लेखनीय हैं। दोनों सहज, स्वाभाविक और चरित्र के अनुरूप हैं।

इस फिल्म के गीत-संगीत की चर्चा पहले से है। इरशाद कामिल ने जॉर्डन की तकलीफ को उचित शब्द दिए हैं। उन्हें ए.आर. रहमान ने भाव के अनुरूप संगीत से सजाया है।

रेटिंग- *** 1/2 साढ़े तीन स्टार

Comments

Anonymous said…
वाह सर जी आपको तो लिखने का अंदाज निराला है... सबकुछ कहा भी लेकिन ऐसे कि किसी के दिल पर न लगे...
Shanan said…
अजय ब्रह्मात्मज जी कब तक आप लोगो के तलवे चाट चाट कर अपना गुजरा करना चाहते है.आप जैसे लोगों को शर्म आना चाहिए की जब बबी कोई बेकार फिल्मे आती है आप लोग उसको मुहीम बता देते है.आप जैसे जात-पात के नाम पर कितना दिन कातीयेगा.कभी आप दलित लोग के साथ कभी आप किसी और समाज के साथ.आपलोगों की वजह से बिहारी कहीं सर्र नहीं उठा पाते हैं.आप लोग राम विलास पासवान और शत्र्य्घन सिन्हा,कितना पैसा मिलता होगा आपको इनसब चीज़ों से प्लेअसे फॉर गोद सके ऐसा न हो भोजपुरी एक PHD का सब्जेक्ट बन जाए .
chavannichap said…
shanan
आप की नाराजगी स्‍पष्‍ट नहीं हुई। सीधे शब्‍दों में अपनी बात कहें तो....
mukti said…
इस फिल्म को अलग-अलग समीक्षकों ने अलग-अलग रेटिंग्स दी हैं, इसलिए कन्फ्यूज हो गयी हूँ. मैं मानती हूँ कि इम्तियाज़ की फ़िल्में कथ्य के आधार पर जितनी सशक्त होती हैं, शिल्प या तकनीकी के आधार पर नहीं. लेकिन कुछ चीज़ों को तर्क के परे रखकर देखना ज्यादा अच्छा होता है.
बहुत ही सुंदर समीक्षा बन पडी है अजय जी ।

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