अपना नज़रिया रखते थे दिलीप कुमार - प्रभात रंजन


'कोठागोई' के लेखक प्रभात रंजन को हम ने अनचोके पकड़ लिया। वे दिलीप कुमार की अंग्रेजी में छपी आत्‍मकथा का हिंदी अनुवाद कर रहे हैं। उन्‍होंने दिलीप कुमार के बारे में कुछ बातें कहीं। अगर उन्‍हें लिखने का मौका मिलता तो वे ज्‍यादा बेहतर तरीके से अपनी बात कहते। यहां उन्‍होंने झटपट अपनी बात रखी है।
-प्रभात रंजन
         दिलीप कुमार की फिल्‍में देख कर बोलने की भाषा सीखी जा सकती है1मैंने तो उर्दू ज़ुबान उनसे ही सीखी। दिलीप कुमार की आत्‍मकथा में सलीम खान ने इसका उल्‍लेख किया है। उनके उच्‍चारण में परफेक्‍शन है। उनकी एक्टिंग की तरह... आप देवदास देख लें। उसमें उपन्‍यास वाला देवदास उभर कर आता है। उनकी आत्‍मकथा में मुझे लेखकों के उल्‍लेख ने बहुत प्रभावित किया है। उन्‍होंने बहुत सारे लेखकों को याद किया है। पंडित नरेन्‍द्र शर्मा,भगवती चरण वर्मा,राजेन्‍दर सिंह बेदी...राजेन्‍दर सिंह बेदी के बारे में उन्‍होंने लिखा है कि उनके जैसे संवाद लिखने वाले कम थेत्र वे कम शब्‍दों में संवाद लिख देते थे। कम शब्‍दों में अर्थपूर्ण लिखने की शैली उनसे सीखी जा सकती है। चार शब्‍दों के भी संवाद हैं देवदास में।
    आत्‍मकथा पढ़ने के बाद समझ में आया कि वे जितने बड़े अभिनेता है,उतने ही बड़े स्‍कॉलर थे। सभी चीजों के बारे में अपना नज़रिया रखते थे। बहुत ही विनम्र व्‍यक्ति थे। अपनी किताब में उन्‍होंने मुकरी को दो पन्‍ने दिए हैं। कोई मुकरी को याद करेगा। दोनों स्‍कूल में साथ पढ़े थे। उन्‍होंने ज़‍िक्र किया है कि एक बार मुकरी ने सेट पर बदतमीजी की। एक बार तो उनके कमरे में जाकर उनकी रजाई में सो गए।
    हम उनकी आत्‍मकथा में मधुबाला प्रसंग पढ़ना चाहते थे। वह नहीं है। फिर भी 1945 के समय के समाज और बाद के दिनों को हम देख पाते हैं। उन्‍होंने बांबे टाकीज पर भी लिखा है। जॉय मुखर्जी के पिता एस मुखर्जी बांबे टाकीज में थे। उनकी आत्‍मकथा से शशधर मुखर्जी का व्‍यक्तित्‍व बहुत अच्‍छी तरह समझ में आया।
    उनकी फिल्‍मों में राजनीतिक पक्ष भी रहता था। सामाजिक पहलू तो रहता ही था। उनकी आखिरी फिल्‍मों में सगीना को ही देख लें। उसमें राजनीतिक संदेश था। मुझे लगता है कि दिलीप कुमार नेहरू युग का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। मिली-जुली सामासिक संस्‍कृति के वे हिमायती थे। हिंदी फिल्‍मों के वे पहले मुसलमान नायक थे। हालांकि उन्‍होंने अपना नाम दिलीप कुमार किया,लेकिन सभी जानते थे कि वे युसूफ खान हैं। हिंदी फिल्‍मों में उनका होना और लोकप्रिय होना धर्मनिरपेक्षता का बड़ा उदाहरण है। उन्‍होंने अपनी फिल्‍मों में ऐसे संदेश दिए। लीडर और नया दौर के उदाहरण दिए जा सकते हैं।
    उर्दू तो उनकी साफ है ही। उन्‍होंने दूसरी भाषाएं भी सही लहजे में बोलीं। हरियाणवी हो या अवधी हो। बड़ा कलाकार वह है तो अपने परिवेश और परवरिश से अलग हट कर कुछ दिखाए। गंगा जमुना में पेशावर के व्‍यक्ति ने पूर्वी उत्‍तरप्रदेश के किरदार को बखूबी निभाया। बुजुर्ग होने पर भी उन्‍होंने अलग ढंग के किरदार निभाए और नायकों पर हावी रहे। किताब में ज्रिक्र आता है कि यश चोपड़ा से उनका संबंध नया दौर के समय से था,लेकिन कभी कोई ऐसी स्क्रिप्‍ट नहीं मिली कि वे दिलीप कुमार के साथ काम कर सकें। आखिरकार मशाल में वह मौका मिला। इसमें 30 साल लग गए। क्रंाति का किस्‍सा है कि मनोज कुमार ने उन्‍हें अचारी आमलेट खिला और सिखला कर अपनी फिल्‍म के लिए राजी कर लिया था।
    ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्‍होंने पैसों के लिए कोई काम किया हो। कई बार तो निर्माताओं के पैसे लौटा दिए। अभी ऐसा कोई कर सकता है क्या ?  मुझे आमिर खान में वैसी बात दिखती है,लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं। दिलीप कुमार बहुत अच्‍छे वक्‍ता भी थे। संसद में नेहरू के सामने बहुत अच्‍छा भाषण दिया था। उनके जैसा विराट व्‍यक्तित्‍व और प्रभाव नहीं दिखता। राज कपूर जिंदा रहते तो शायद उनके समकक्ष रहते। अभी की पीढ़ी में केवल आमिर खान में वैसे गुण दिखते हैं। दिलीप कुमार जैसे जागरूक एक्‍टर आए ही नहीं।

Comments

Rajneesh K Jha said…
वाह ....... बेहतरीन ........
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-12-2015) को "सहिष्णु देश का नागरिक" (चर्चा अंक-2188) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर,दिलीप साहिब के लिए जितना भी लिखा गया, उत्तम। आपका शुक्रिया...

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