सपनों को समर्पित है ‘दंगल’ : नीतेश तिवारी
सपनों को
समर्पित है ‘दंगल’ : नीतेश तिवारी
आमिर खान
गीता-बबीता और महावीर फोगाट की कहानी तो जानते थे। वह भी ‘सत्यमेव जयते’ के जमाने
से। ऐसे में उन्हें कहानी से चौंकाना मुश्किल काम था। वे हम लोगों की अप्रोच से
इंप्रेस हुए। हमने इरादतन एक गंभीर विषय को ह्यूमर के साथ पेश किया। वह इसलिए कि
इससे हम ढाई घंटे तक दर्शकों को बांधे रख सकते हैं। वह चीज आमिर सर को पसंद आई।
उन्होंने कहा कि हास-परिहास वे प्रभावित
हुए हैं। किस्सागोई के इस तरीके से एक साथ ढेर सारे लोगों तक पहुंचा जा सकता है।
राष्ट्रीय फिल्म
पुरस्कार विजेता नीतेश तिवारी अब महावीर फोगाट और उनकी बेटियों की बायोपिक ‘दंगल’
लेकर आए हैं। फिल्म निर्माण और उसकी थीम के अन्तर्भाव क्या हैं, पढिए उनकी
जुबानी:-
-अजय ब्रह्मात्मज/अमित कर्ण
-यूं हतप्रभ हुए
आमिर खान
आमिर खान
गीता-बबीता और महावीर फोगाट की कहानी तो जानते थे। वह भी ‘सत्यमेव जयते’ के जमाने
से। ऐसे में उन्हें कहानी से चौंकाना मुश्किल काम था। वे हम लोगों की अप्रोच से
इंप्रेस हुए। हमने इरादतन एक गंभीर विषय को ह्यूमर के साथ पेश किया। वह इसलिए कि
इससे हम ढाई घंटे तक दर्शकों को बांधे रख सकते हैं। वह चीज आमिर सर को पसंद आई।
उन्होंने कहा कि हास-परिहास वे प्रभावित
हुए हैं। किस्सागोई के इस तरीके से एक साथ ढेर सारे लोगों तक पहुंचा जा सकता है।
-अनकहे-अनसुने
किस्सों का पुलिंदा
हमने एक तो
गीता-बबीता और महावीर फोगाट के ढेर सारे अनकहे व अनसुने किस्से बयान किए हैं।
दूसरा यह कि लोग यह अंदाजा नहीं लगा पाएंगे कि हम उनकी गाथा को किस तरह कह रहे
हैं। मेरी नजरों में ‘क्या कहना’ के साथ-साथ ‘कैसे कहना’ भी अहम है। दोनों ही
चीजें दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखती हैं। मैं दर्शकों को तीक्ष्ण बुद्धि वाला
मानता हूं। लिहाजा मैं उन्हें औसत लेखनी से रिझाने की कोशिश नहीं करता। ‘जो जीता
वही सिकंदर’ का संजय या ‘लगान’ का भुवन जीतेगा। पर वे दोनों कैसे जीत हासिल
करेंगे, उससे मामला रोचक और रोमांचक बन जाता है। इससे दर्शक संजय व भुवन के साथ
सफर पर चल पड़ते हैं।
- देखी गई चीजों का
दुहराव नहीं
मैंने इसे तीन
लोगों के साथ मिलकर डेवलप किया है। मेरा मानना है कि अगर आप ने कागज पर उम्दा
कहानी उतारी है तो आपने आधी से ज्यादा जंग जीत ली समझो। इससे पहले ‘चिल्लर
पार्टी’ के साथ भी यही हुआ था। विकास बहल के साथ मिलकर मैंने साधारण कहानी के
किरदारों का सफर असाधारण कर दिया। मैं दरअसल पहले रायटर हूं, फिर डायरेक्टर। मेरे
ख्याल से आप की कहानी में इमोशन के खूबसूरत रंग हैं तो लोग आप की खामियों को भूल
जाएंगे।
-विजुअल को शब्दों
का साथ है मुश्किल
फिल्म एक विजुअल
मीडियम तो है। कई लेखक सीन जहन में रख पटकथा लिखते हैं। ढेर सारे कागज पर खालिस
शब्दों में सीन को लिखते हैं। मैं लिखते वक्त रायटर के रोल में रहता हूं।
डायरेक्टर बन कर लिखूं तो मैं पक्षपाती बन जाऊंगा। बाद में बतौर डायरेक्टर लिखी गई
चीज में वैल्यू ऐड नहीं कर सकेंगे।
लिहाजा जो डायरेक्टर भी खुद ही हैं, उनके लिए यह काम चुनौतीपूर्ण तो होता है। सीन
को शब्दों का साथ मिलना बड़ा मुश्किल होता है। मैं कई बार अनूठा, अतरंगी लिख तो
लेता हूं, पर बाद मैं डायरेक्टर के तौर पर खुद को गालियां भी देता हूं। मिसाल के
तौर पर ‘तीसरी कसम’ के नॉवेल में फणीश्वर नाथ रेणु जी ने एक जगह लिखा है ‘रीढ की
हड्डी’ में गुदगुदी होना’। अब इस लिखी हुई चीज को हम भला कैसे फिल्मा सकते हैं।
ऐसी चीजें मेरे साथ भी हुई हैं। लिहाजा मैं जिन फिल्मों में महज रायटर था, वहां
डायरेक्टरों ने मुझे गालियां तो दीं। मुझ से कहा कि मैंने लिख तो अच्छा लिया, मगर
वह अब फिल्माया कैसे जाए।
-खुद को बहुत कोसा
मैंने
‘दंगल’ में भी
मैंने अपनी लिखी चीज को भी खूब कोसा। मसलन, हमने लिख तो लिया कि क्वॉर्टर फाइनल
मैच ऐसा होगा। गीता इस को इस तरह से जीतेगी। मगर हूबहू लिखी गई चीज को हम फिल्मा
नहीं सकते थे। वह इसलिए कि लिखते वक्त हम रेसलिंग के नियमों से वाकिफ नहीं थे। तो
शूटिंग से पहले हमने रेसलिंग की बारीकियां सीखीं। रेसलर के कॉस्टयूम से लेकर
अखाड़े, रिंग आदि तक का हमने ख्याल रखा। रिंग में कौन ‘एक्टिव’ और ‘पैसिव’ एरिया
है, उस पर रिसर्च किया। तब जाकर हमने फिल्म शूट की।
-परिजनों का सपना
गलत नहीं
फिल्म में महावीर
फोगाट अपने अधूरे सपने अपनी बेटियों के हाथों सच करवाता है, जबकि आज की तारीख में
बच्चे अपना करियर खुद चुनना चाहते हैं। इसकी दो व्याख्या है। एक तो यह कि फोगाट
ने बेटियों की क्षमता उनके बचपन में ही भांप ली थी। उसके अनुरूप बेटियों को
पहलवानवाजी के लिए प्रेरित किया। साथ ही यह कहानी 2016 की नहीं है। बात 1999 की
है। वे हरियाणा के हैं। मुझे नहीं मालूम कि वहां लिंगानुपात क्यों बदतर रहे हैं।
बेटियां पैदा होने से पहले मार दी जाती हैं। लड़कियां कितनी ही कोशिश क्यों न
करें, उन्हें बढावा नहीं दिया जाता है। ऐसे माहौल में बेटियों से पहलवानबाजी
करवाने की बात सोचना बहुत बड़ी बात है। यह उस समाज के लिए बहुत बड़ी घटना थी। दूसरी
चीज यह कि अगर मुझे अपने बच्चों में एक खास क्षमता महसूस हो, फिर भी मैं उन्हें उस
दिशा में प्रोत्साहित न करूं तो वह उनके साथ नाइंसाफी करने जैसा ही होगा।
-गीता-बबीता की मां
मूक समर्थक
फोगाट के इस सपने
में उसकी पत्नी यानी गीता-बबीता की मां मूक समर्थक है। वह समाज के ताने सुनती है।
सबसे ज्यादा औरतों के। इसके बावजूद वह अपनी बेटियों और पति के साथ खड़ी रहती है।
परिवार को बेटा न देने पर वहां की महिलाएं उसे ही गलत ठहराती हैं। वह फिर भी कुछ
नहीं बोलती। बेटियों के उठने से पहले उनके लिए नाश्ता बना लेती है। बेटियों को
इमोशनल सपोर्ट देती है। असल जिंदगी में उनकी मां का नाम दया कौर है। फिल्म में
हमने उस किरदार को नाम नहीं दिया है।
- अली अब्बास जफर
से बातचीत
’सुल्तान’ की जब
घोषणा हुई तो खुद अली अब्बास जफर मेरे पास आए थे। हम दोनों ने एक-दूसरे से नोट्स
साझा किए ताकि किसी चीज का दुहराव न हो। यह उनका बहुत अच्छा जेस्चर था। बाकि दोनों
फिल्मों के तेवर और कलेवर अलग हैं। रेसलिंग शब्द के अलावा दोनों में समानता नहीं
है। खुद हम दोनों अलग मिजाज के फिल्मकार हैं।

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