एक म्‍यूजिकल स्‍केच है जग्‍गा जासूस

एक म्यूज़िकल स्केच है 'जग्‍गा जासूस'
-अनुराग आर्य


कहानियो में दिलचस्पी पिता के एक दोस्त ने किताबे गिफ्ट कर के डाली। फिर कहानिया ढूंढ ढूंढ कर पढ़ने का शौक चढ़ा फिर कहानिया देखने का। उम्र कम थी और समांनातर सिनेमा के कुछ फिल्मे बच्चो के लिए वर्जित। दूरदर्शन ही एक खिड़की था उस दुनिया का.शहर में लिमिटेड सिनेमा हाल थे। पर जहाँ मौका लगता फिल्मे देखते। पिता अनुशासन वाले रहे फिल्मो से दूर फिर भी देहरादून स्कूलिंग ने नए दोस्त जोड़े और उनके जरिये नयी फिल्मे। मेडिकल कॉलेज एडमिशन गुजरात के सूरत में हुआ जहाँ इंग्लिश फिल्मो के दो सिनेमाघर होते , और एक थियेटर हॉस्टल के लड़को के मुफीद। तब तक शयाम बेनेगल ,मणि कॉल ,गोविन्द निहालिनी ,सत्यजीत रे ,गुरुदत्त ,चेतन आनद और राज कपूर के सिनेमा से वाकिफ हो चुके थे। सुधीर मिश्रा ,केतन मेहता भी इम्प्रेस करने लगे। सूरत के एक पिक्चर हॉल पर कभी कभी ओल्ड क्लासिक दिखलाता। मदर इण्डिया भी वही देखी। हॉस्टल के दोस्तों ने कई इंग्लिश क्लासिक से इंट्रोडक्शन करवाया ,और एक दोस्त ने ईरानी फिल्मो से। तब लगा कैमरे के जरिये कहानी कहने में कितनी ताकत है दूसरी जबान का आदमी भी वो समझ लेता है जो आप कहना चाहते है
 



एक गाँव का ,लकड़ी से बने घर का हॉस्पिटल और हॉस्टल के बीच गुजरी दुनिया का जिसमे अपना वज़ूद तलाशता अधूरा बच्चा है बोलने वाली इस दुनिया में वो अधूरा है क्यूंकि दुनिया की तरह नहीं बोल पाता। हॉस्पिटल में दया से उपजे स्नेह की कमी नहीं है पर बचपन को बैठकर सुनने का वक़्त किसी के पास नहीं है इसलिए वे कहना छोड़ देता है सुनने का वक़्त सिर्फ अपनों के पास होता है। इत्तेफ़ाक़ का एक रेड सर्कल है ,एक दायरा जो उसके आस पास खिंचता है उसमे मिला एक अजनबी उसे बैठकर सुनता है ,सुनने से उसमे हौसला जगता है कहने का।

उसकी लड़ाई लफ्ज़ो से है वो अपनी लड़ाई लड़ना सीख गया है ,कहना सीख गया है ,लोग उसे सुनने लगे है। ज़िंदगी में स्नेह और दया से अलग एक और प्यार होता है बिना शर्त वो उसे पहचानने लगा है पर इत्तेफ़ाक़ के सर्कल की एक लिमिट है वो जल्दी पूरा होता है ,कभी कभी वक़्त से पहले।
इस दफे उसकी ज़िंदगी में हॉस्टल है ,छोटे से कसबे में एक हॉस्टल। वो अपनी पहचान बनाना सीख गया है। लड़ना सीख गया है उसके हौसले की चाभी है जो हर साल एक नयी चाभी लेकर आता है ज़िंदगी के कई दरवाजे है दरवाजो को खोलने के लिए। इत्तेफ़ाक़ का रेड सर्कल अभी ख़त्म नहीं हुआ है ,इन दरवाजो के पार मिले किरदार उसे उसका वज़ूद देते है। अपनी तरह से कहने वाला बच्चा अपनी लिमिटेशन को दूसरी काबिलियत से भरने लगा है ,चीज़ो को देखने परखने और ब्रेन के एक हिस्से को उसने मजबूत कर लिया है जिसने उसे भीड़ से अलग कर लिया है। फेलुदा और शर्लोक होम्ज़ को नायक मानता हुआ वो घटनाओ को अपनी तरह से देखने लगा है उसकी विजन शक्ति मजबूत हुई है ,थ्री डायमेंशन से बाहर।
वही उसे नयी पहचान देती है ,रिकॉग्नाइजेशन।
इत्तेफ़ाक़ का दूसरा रेड सर्कल है हमशक़्ल सा लगता किरदार ! पहले रेड सर्कल की तलाश वो इस किरदार की मदद से पूरी करके दोनों रेड सर्कल कम्प्लीट करता है।
"जग्गा जासूस" एक फेंटेसी है
एक अधूरे बच्चे की रंग बिरंगी फेंटेसी!

जो इस दुनिया में मिसफिट है। उसी के तरीके से सुनाई गयी दास्तान हिंदी सिनेमा में इस तरह दास्ताँ कहने का ये पहला वाक्या है ,इंडियन सिनेमा में अलबत्ता एक दूसरे तरीके का सक्सेसफुल एक्सपेरिमेंट कई साल पहले "पुष्पक" के जरिये हो चूका है। हॉलीवुड में लीड एक्टर को लेकर म्यूजिकल फिल्मे बनी है 2002 की "शिकागो" को याद करिये. .
एक लय और बीट्स पर शुरू हुई इस फिल्म चेलेंज इस बीट्स पर कायम रहने का है। जो आखिर तक आते आते अपनी पकड़ खोने लगता है।
पुष्पक की ताकत उसकी एडिटिंग थी ,उसकी लम्बाई। इस तरह कीफिल्मो में कहते हुए बहुत कुछ कह जाने का खतरा बना रहता है .अनुराग बासु उस लाइन को क्रॉस कर गए है इसलिए शुरुआत से एक क्रिएटिव कॉम्पेक्ट बनाती हुई फिल्म अंत में उस क्राफ्ट को छोड़ देती है। फिल्म अंत में फिसल गयी है।
फिल्म एक फतांसी है ,सूत्रधार जो फिल्म का किरदार है वो फिल्म में ही कह रहा है के ये एक फतांसी है।इस तरह कहानी कहने में एक साहस है
एक विजन !

अनुराग जैसे अपने बचपन की कई चीज़ो को रिक्रिएट कर रहे है ,किताबों ,अपने नायको को ट्रिब्यूट दे रहे है। फेलुदा जैसे सत्यजीत रे के रचे किरदारों को इस रंग बिरंगी बचपन की फतांसी को अनुराग बड़ो की दुनिया में खींच लाये है ,वे अपनी दुनिया को एक्स्टेंड कर रहे है ,बड़ो को फ्लैशबैक में ले जाने की कोशिश। पर कितने लोग उससे रिकनेक्ट होंगे यही जोखिम है
फतांसी कहते हुए अलबत्ता वे कई जगह छोटे छोटे सटायर करते है ,जिन्हे पकड़ना पड़ता है
पोलिस के काम करने के तरीके पर एक बनी हुई
ओपिनियन पर इन्वेस्टिगेशन करने पर
मिडिल क्लास के सेल्फ सेंटर्ड रहने पर (खाना खाकर दारु पी कर चले गये )
नक्सल मूवमेंट की क्रान्ति पर लड़ी लड़ाई पर
ब्यरोक्रेट्स और हथियार बनाने वाले नेक्सस पर
मीडिया पर।

फिल्म में कई सीन्स बिना डायलॉग्स के है लेकिन बहुत कुछ कह जाते है इसमें सिनेफोटोग्राफी का कमाल है। कई सीन ब्रिलिएंटली कैप्चर हुए है
पेड़ से लटका हुआ झूला
पेड़ के पास खड़ी रेड कार
मचान पर बैठकर डाकिये का इंतज़ार करता बच्चा
थाने में मौजूद कई टेलीफोन
हॉस्टल की सुबह का शोर
मणिपुर की सड़को और गलियों में अपने किस्म की साइकिल पर जग्गा
होठो के पास जाकर चूमने की कोशिशे
सबसे अच्छा दास्ताँ कहने और जोड़ने का नेरेटिव !
नहीं नहीं
मेरे कहने पर फिल्म मत देखिये। ये एक एक्स्ट्रा ऑडनरी बिरलिएंट फिल्म नहीं है ,ना मै कोई रेगुलर क्रिटिक।

ये एक शुरआती एफर्ट है फतांसी कहने का हिंदी सिनेमा में। इसे फेंटेसी समझ कर ही देखने जाइये। इस फिल्म में नार्मल डायलॉग डिलीवरी नहीं है यही इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष भी है ,आम दर्शक इसी वजह से इससे डिस्कनेक्ट महसूस करते है। वे कुछ सीन्स के लिए तो तैयार रहते है पर बड़े होते रणबीर के साथ संवादों की इस स्टाइल से वे असहज होने लगते है उन्हें इसकी आदत नहीं है। रणबीर अलबत्ता ऊर्जा से भरे हुए है। अनकन्विंसिंग से लगते किरदार को अपनी बॉडी लेंग्वेज से मुकम्मल करते है अपना 100 परसेंट उन्होंने इस फिल्म में दिया है। एक एक्टर की रेंज पता चलती है अलबत्ता कैटरीना उनके एनर्जी लेवल से मैच करती नजर नहीं आती। अमिताभ उपाध्याय ने लिरिक्स में कमाल किया है उतना ही प्रीतम ने म्युज़िक में और क्रोयोग्राफ़र ने डांस मूवमेंट में। कैमरा रंगो को ,जगहों को इतनी खूबसूरत तरीके से कैप्चर करता है के हॉल पर रंग बिखर जाते है। फिल्म को किसी दूसरे तरीके से ट्रीटमेंट की जरुरत थी ,अनुराग बासु को इसे अपने दायरे से बाहर आकर कनेक्ट करवाना था तब ये मासेस को अपील करती। फिल्म एक ख़ास मूड में देखने वाली फिल्म है शायद नार्मल डायलॉग डिलीवरी होती और आखिर के सीन्स में कुछ कनेक्टिविटी और आसान होते तो फिल्म मासेस को तो अपील करती ही बिरलिएंट फिल्म बन जाती।

Comments

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-07-2017) को "तरीक़े तलाश रहा हूँ" (चर्चा अंक 2681) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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