वैजयन्ती माला : जिनकी कला का इन्द्रधनुष स्वर्ग को छू सकता है - राजिंदर सिंह बेदी

वैजयन्ती माला
जिनकी कला का इन्द्रधनुष स्वर्ग को छू सकता है
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   राजिंदर सिंह बेदी 
   
  प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय सदस्य और उर्दू के लेखक राजिंदर सिंह बेदी ने 'देवड़ा' और 'मधुमति' जैसी फिल्मों के संवाद लिखने के साथ खुद के लिए भी कुछ फ़िल्में लिखी और निर्देशित की. उन्होंने अभिनेत्री वैजयन्ती माला पर यह लेख 1964 में माधुरी पत्रिका के 8 मई के अंक में लिखा था.इस लेख में उन्होंने वैजयन्ती माला की प्रतिभा का बखान किया है. महत्वपूर्ण है कि अपने समय का एक महत्वपूर्ण लेखक किसी समकालीन अभिनेत्री पर लिख रहा है.क्या यह अभी संभव है? मैंने तो किसी लेखक को विद्या बालन या आलिया भट्ट पर कुछ लिखते नहीं देखा या पढ़ा है. मुझे पूरी उम्मीद है की किसी दिन मेरे मित्र विनीत कुमार दीपिका पादुकोण पर एक लेख ज़रूर लिखेंगे.

 

यद्यपि हिन्दुस्तानी फिल्मों में पुरुष कलाकार ज्यादा पैसे लेते हैं और वितरक अक्सर उन्हीं के नाम से तस्वीरें उठाते हैं, लेकिन मेरे ख्याल से अगर कुल मिलाकर देखा जाये तो औरतें इनसे बेहतर कलाकार भी हैं और इन्सान भी.
            लाख सिर पटकने के बावजूद हमारी फिल्मी दुनिया गीता बाली, सुचित्रा सेन, मीना कुमारी, वहीदा रहमान और ललिता पवार से बेहतर पुरुष कलाकार नहीं पैदा कर सकी. अगर वे अभिनय के हिसाब से कहीं कम पड़ती हुई मालूम भी होती हैं, तो सिर्फ इसलिए कि मर्दों की दुनिया में उनके लिए मुकाबला बहुत कड़ा है. या तो उन्हें किसी हीरो-निर्माता की तस्वीर में काम करना पड़ता है, जिसमें सारी कहानी और उसके दृश्य हीरो को नजर में रखकर लिखे होते हैं और या हीरो की कीमत ज्यादा होने और उसके नाम पर फिल्म का सौदा होने की वजह से वह निर्माता, निर्देशक और लेखक पर छाया होता है और अपने मुकाबले में हीरो इनके लिए इतना स्कोप नहीं रहने देता, जितना वह अपने लिए देखना चाहता है. मगर इस थोड़े से स्कोप में भी जब हीरोइन हीरो मियां के सामने आती है, तो वह अपने चेहरे की एक ही शिकन से वह बात कह जाती है, जो हीरो की पूरी उछल-कूद नहीं कह पाती. कैमरे के दृष्टिकोण से हीरो को दी गयी प्रधानता भी हीरोइन की क्षमताओं को नहीं छिपा सकती. आज के बाद किसी भी नाटकीय दृश्य में आप हीरो और हीरोइन को एक जगह देखिये, तब आपको मेरी बात की इस सच्चाई का अन्दाजा होगा.
            फिल्म में लिये जाने और सिनेमा हाल में लोकप्रियता हासिल करने के लिए बड़ी योग्यता की जरूरत होती है. वैजयन्ती माला को ही लीजिए. इससे पहले कि वे फिल्मों में जगह पातीं, उन्होंने खुद में योग्यता पैदा करने के सिलसिले में दक्षिण भारत के किस-किस गुरु के कठोर अनुशासन में नृत्य की शिक्षा पायी होगी. एक-एक मुद्रा के लिए कितना-कितना खून पसीना एक किया होगा. बरसों की साधना के बाद उन्होंने फुट लाइट्स के सामने आने का साहस किया होगा और इस तरह रजटपट पर अपने को पेश करने का. इसके विपरीत हमारे हीरो लोगों ने थोड़ी सी तालीम और अच्छे से चौखटें ही को बस समझा है.
            हीरोइनों में वैजयन्ती माला एक विशेष स्थान रखती हैं. उन पर नजर डालते ही दो बातों का साफ एहसास होता है-एक सुन्दरता और दूसरे सद्व्यवहार. हमारी हीरोइनों में वैजयन्ती माला ही मर्दों जैसे लम्बे कद की है--फारसी शायरी के माशूक की तरह. उनको देखकर किसी बड़े कलाकार की चित्रकारी का एहसास होता है, जिसमें रेखाएं एक आराम और हल्केपन से बहती, लहराती हुई नजर आती है. शरीर की सुडौलता और सुन्दरता को स्थायी रखने में एक तरफ उनका नृत्य और उसकी विधिपूर्वक साधना सहायक है, तो दूसरी ओर खाने-पीने के विषय में एक कठोर अनुशासन भी. ब्राह्मण होने के नाते शाकाहारी तो हैं ही, इस पर भी वे इतना नहीं खातीं, जिससे शरीर की रेखाएं कुरूप हो जायें. दिन में शूटिंग के वक्त, दोपहर के खाने में मैंने उन्हें सिर्फ फलों का रस पीते देखा है, या एकाध प्याला काफी. काफी बनाने का पूरा साजो सामान उनकी नौकरानी का बूढ़ा नौकर राजन अपने साथ लाता है, क्योंकि काफी दक्षिण भारत के लोगों से बेहतर कोई नहीं बना सकता.
उन्हें पीछे भी दिखायी देता है
            इस दक्षिण भारत की औरतों के बदन की ही गठन है, जो अपने अन्दर पूर्ण नारीत्व के साथ-साथ एक भरा-पूरापन और मांसलता लिये होती है, सिके कारण अजन्ता और एलोरा के शिल्पियों ने उन्हें अपना माडल बनाया. फिर उनमें आयंगर और नायर ब्राह्मण रंग के भी बहुत साफ होते हैं. कहीं बीच में स्याही की चाशनी से ऐसा सलोनापन पैदा होता है, जो बंगाल के सिवा और कहीं नजर नहीं आता. वैजयन्ती का चेहरा अण्डाकार है. चेहरे इस सुगठित तिकोन की रेखाएं ठोडी की तरफ धनुषाकार हो जाती है, जहां एक आकर्षक सा गड्ढा पड़ता है. जिसमें देखने वाले एक बार गिर पड़ते हैं, तो फिर नहीं उठते.
            वैयजन्ती माला की आंखें बहुत बड़ी हैं. मालूम होता है कुदरत ने नहीं, यामिनी राय ने बनायी है. वे थोड़ा कानों की तरफ खिंची हुई हैं. यों जान पड़ता है, वे सामने जाती हैं, तो पीछे भी दिखायी देता होगा. ऐसी आंखें जलाल में आ जाये तो क्या होता होगा! डनसे बरसता तेज मैंने नाटकीय दृश्यों में देखा है, जहां इन्हीं आंखों की वजह से ज्यादा डायलाग लिखने और बोलने की जरूरत नहीं पड़ती.
            अपने उठने-बैठने के सलीके, अपनी चालढाल के कारण वैजयन्ती अभिनेत्रियों में मलिका नजर आती हैं. आम तौरपर ये सादी पोशाक पहनती हैं, जिसकी अपनी खूबसूरती है, लेकिन जब वे फिल्म और नृत्य के लिए पूरी सज-धज के साथ मंच पर आती हैं, तो कोई रास्ते में नहीं ठहर सकता. न सिर्फ अपने मुल्क में, बल्कि बाहर के मुल्कों में जाकर भी वैयजन्ती ने लोगों के दिलों को जीता है. यह हुस्न और बांकपन अगर एक तरीके से अच्छे हैं तो दूसरे से बुरे भी, क्योंकि दृष्टि प्रकृति और कला दोनों में विभाजित होकर रह जाती है.
            भरत नाट्यम की इस वक्त सबसे बड़ी कलाकार हिन्दुस्तान में बाला सरस्वती हैं, जो अपने अंगों की साधारण सी भंगिमा से सौ सौ तस्वीरें पैदा करती हैं. अन्तर उनमें और वैजयन्ती में यह है कि एक ने कला की आराधना में स्वयं को मिटा दिया है और दूसरी ने कमर्शियलिज्म में पड़कर अपनी योग्यताओं को बांट दिया है. इसके बावजूद दक्षिण-भारत के गत और तोड़े के साथ वैजयन्ती माला का नृत्य देखने वालों को हैरत में डाल देता है.
            मुझे वैयजन्ती माला के साथ में चार फिल्मों में काम करने का मौका मिला. उनमें से दो विमल राय की देवदासऔर मधुमतिथीं, तीसरी जे. ओमप्रकाश की आस का पंछीऔर चौथा मेरी अपनी तस्वीर रंगोली.
वैजयन्ती बनाम चन्द्रमुखी
            ‘देवदासके जमाने में वैजयन्ती माला ने मद्रास की दो-एक हिन्दी तस्वीरों में काम किया और नाम बनाया था, चुनांचे बिमल राय ने उन्हें अपनी फिल्म में रोल देने का फैसला कर लिया. फिल्मों में निर्माता की अपनी निगाह तो काम करती ही है, लेकिन वह भनक ज्यादा असर डालती है, जो वितरकों की जबानी कान में पड़ती है. और फिर रोल के साथ-साथ अगर नाच की सूरत में दिल बहलाव का सामान भी हो जाये, तो एक तीर से दो शिकार हो गये--देवदास में एक वेश्या का रोल था, जो किसी तरह से भी हीरोइन का रोल नहीं कहा जा सकता, लेकिन जिन्होंने शरत् का उपन्यास देवदास पढ़ा है वे जानते हैं कि चन्द्रमुखी का रोल संक्षिप्त होने के बावजूद अपने आप में वह तीखापन रखता है, जो हीरोइन पारों के हिस्से में भी नहीं आता.
            जब वैयजन्ती माला आयीं तो हम उन्हें एक गुड़िया से ज्यादा नहीं समझते थे, जो चाबी लगाने के साथ ही अपने हाथ-पैर चलाने लगती हैं. उनके सामने हीरोइन के रोल में बंगाली अभिनेत्री सुचित्रा सेन थीं, जो सलोनी सुन्दरता रखने के साथ-साथ ऊंचे दर्जे की कलाकार भी हैं. हाल ही में उन्होंने एक अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार भी पाया है. उनके रोल के सामने वैजयन्ती का जमना बड़ी मुश्किल बात थी. और फिर रोल में इस कदर गहराई थी कि उसकी थाह को पहुंचना किसी ऐरे-गैरे का काम न था. वैश्या चन्द्रमुखी गिरे पड़े देवदास से इसलिए मुहब्बत करती है कि वह पहला मर्द था, जिसने उससे नफरत की. वर्ना लोभ-मोह का पुतला मर्द हर औरत को खूबसूरत भी कहता है और अपनी मुहब्बत का दावा भी करता है, हालांकि उसका मकसद उसमें घड़ी दो घड़ी रास रचाने के सिवा और कुछ नहीं होता. हर व्यक्ति की जिन्दगी के दो पहलू होतें हैं, एक अच्छा और एक बुरा. फिर नफरत भी पाजीटिव भाव है. जिसने चन्द्रमुखी में बुरीऔरत को हमेशा के लिए खत्म कर दिया और वह अपना धन्धा छोड़कर शरीर के बजाय आत्मा हो गयी, जिसका पर्यवसान मोक्ष में हो चुका था. वैजयन्ती ने चन्द उदास सी उदासी अदाओं और बहकी-बहकी निगाहों से इस निहायत मुश्किल रोल को बड़े खूबसूरत तरीके से निभा दिया. जहां उनका नाच मनोरंजन का साधन था, वहां उनका अभिनय आत्मा की खुराक.
वैजयन्ती बनाम मधुमति
            शायद इसीलिए विमल राय ने वैजयन्ती माला को अपनी अगली तस्वीर मधुमतिमें हिन्दुस्तानी फिल्म के सबसे बड़े अभिनेता दिलीप कुमार के साथ चुन लिया मधुमतिमें वैयजन्ती एक सीधी-सादी पहाड़ी लड़की का रोल निहायत खूबसूरती से अदा करती हैं और तब तक चैन नहीं पातीं, जब तक अपने प्रेम को प्राप्त न कर लें. दिलीप कुमार के साथ फिल्म देखने वालों की हमदर्दी होना लाजिमी था. पहले तो  इसलिए कि वे हमारी फिल्मों के सबसे बड़े ट्रेजेडियन हैं और दूसरे इसलिए कि उनके रोल का मतलब साकार प्रेम था, जो सुन्दरता की खोज में मारा-मारा फिरता है. लेकिन क्षण भर दिखायी देकर गुम हो जाना सुन्दरता का चलन था, जो तेज और बिजली होती है. जैसे प्रकाश और ध्वनि विश्लेषण करने पर आखिर में एक निकलते हैं, उसी तरह सौन्दर्य और प्रेम भी एक है. मधुमतिमें कई ऐसे स्थल आते हैं, जहां दिलीप कुमार सौन्दर्य हो जाता है और वैजयन्ती प्रेम. न सिर्फ वैयजन्ती को सौन्दर्य से प्रेम में रूपान्तरित होने में कोई कठिनाई हुई, बल्कि उन्होंने इस रूपान्तरण की प्रक्रिया में बड़े-बड़े अभिनेताओं को मात कर दिया. सम्भतः यही कारण फिल्मी सफलता का भी था. वैयजन्ती ने दर्शकों के सामने प्रेम का वह चित्र उपस्थित कर दिया था, जिसे पाने के लिए वे आवागमन की मुसीबतों को भी सहन करने के लिए तैयार रहते हैं--अगर यह आवागमन का सिलसिला न होता तो मैं इस फिल्म को कैसे लिखता.
            ‘आस का पंछीमें वैजयन्ती माला का एक आम रोल था और उसका कैनवास भी हीरो के रोल की तुलना में कम था. नारी जीवन में एक निष्क्रिय शक्ति है, लेकिन है शक्ति. वह सदा पृष्ठभूमि में रहती है और अपने आपको मिटाकर जीवन का प्रमाण देती है, क्योंकि पुरुष की वीरता उसका श्रम और साधना और अन्त में जीवन पर विजय प्राप्त करने में नारी ही प्रेरक साबित होती है. इसलिए जिन्दगी में हार खाये हुए राजेन्द्र कुमार से वह एक ही बात की फरमाइश करती है कि तुम अपने सब दुःख मुझे दे दो. एक-एक करके वह हीरो के सारे दुख अपने ऊपर ले लेती है और यों वह उसे दरिद्रता और निराशा की दलदल से निकालती है और उस वक्त तक दम नहीं लेती, जब तक उसका प्रेमी राजेन्द्र कुमार सफलता के आकाश पर नक्षत्र के समान नहीं चमकता. रोल के छोटे होने के बावजूद वैजयन्ती ने श्रेष्ठ अभिनय का प्रमाण दिया था.
            ‘रंगोलीमैंने खुद बनायी और लिखी थी, तब मुझे वैजयन्ती माला और उसके अभिभावकों से सीधा वास्ता पड़ा, जिसमें कडुवे अनुभव भी हुए और मीठे भी. लेकिन बात तो वैजयन्ती के हक में जाती है, वह यह है कि वैजयन्ती माला एक बार काल शीटमंजूर कर लेने के बाद बाकी लोगों की बनिस्बत उसमें कम हेरफेर करती, और सेट पर बहुत शिष्ट व्यवहार करती हैं. रंगोलीफिल्म की शुरूआत में पहले ही रोज लम्बे संवादों वाला नाटकीय दृश्य वैजयन्ती माला को दिया गया. हमार ख्याल था कि तमिल भाषा-भाषी होने की वजह से वह हिन्दी के लहजे को आसानी से न अपना सकेंगी. सीन शाम के करीब घर भेज दिया. अगले रोज जब वैजयन्ती सैट पर आयीं, तो उन्हें न सिर्फ उस सीन का एक-एक शब्द कण्ठस्थ था, बल्कि लहजा और अदायगी दोनों बहुत ही सुन्दर थीं.
कला का इन्द्रधनुष : धरती से स्वर्ग तक
            एक फिल्म जिसमें वैजयन्ती माला अपने कला के चरम विकास पर पहुंची, वह दिलीप कुमार के खुद कर्ता-धर्ता होने बावजूद दृश्य ज्यादातर उनके दृष्टिकोण से लिखे होने और कैमरे के सामने उनकी प्रधानता होने हुए भी भावों की अभिव्यक्ति के सिलसिले में वैजयन्ती माला दिलीप कुमार के बराबर आयीं. अगर वे कहीं उनकी तुलना में कम पड़ती हुई मालूम भी होती हैं, तो इसलिए कि कहानी के सब दांव-पेंच फिल्म के हीरो दिलीप कुमार के हाथ में है. अगर वह अपने आपको बेईमान कहलाये जाने पर एक तीव्र प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति करते हैं, तो सीन उनके हाथ में होता है और अगर डाकू बनने के बाद वे कानून की गोद में इसलिए लौट आना चाहते हैं कि धन्नो के बच्चा होने वाला है, तो सीन उनके हाथ में. कम ही सीन वैजयन्ती माला को दृष्टि में रखकर लिखे गये हैं. इसके बावजूद वैजयन्ती माला पूरब की एक सीधी, अल्हड़ देहाती लड़की का पार्ट बड़ी खूबी से अदा करती हैं. हैरानी इस बात की है कि देश के एक विशेष अंचल की भाषा जिसका अपना खास लहजा है, वैजयन्ती बड़ी ही सफाई के साथ बोलती है. अब और बहुत सी फिल्मों के अलावा राज कपूर की तस्वीर संगममें आ रही हैं. सुना है, इसमें उन्होंने बहुत ही तंदेही से काम किया है. लेकिन यहां भी वही कठिनाई सामने आती है. राज कूपर ही इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक होने के साथ साथ हीरो भी हैं. ऐसी व्यवस्था करने वाले महानुभाव कुछ दृश्य हीरोइन के हाथ में देते दिखायी देते जरूर हैं, लेकिन कहानी अक्सर ब्वाय स्टोरीहोती है और हीरोइन को अपनी कला को खुलकर दिखाने का मौका नहीं मिलता. काश कोई निर्माता वैजयन्ती माला की क्षमता और सामर्थ्य का सही-सही अनुमान लगाकर कोई ऐसी कहानी फिल्माये, जो हीरोइन को दृष्टि में रखकर लिखी गयी हो और फिर वैयजन्ती माला की सुन्दरता और कला खुलकर सामने आये और जनता को पता चले, कि इस अभिनेत्री की क्षमताओं का इन्द्रधनुष स्वर्ग को भी छू सकता है.
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