फिल्म लॉन्ड्री : आज़ादी के बाद की ऐतिहासिक फ़िल्में



आज़ादी के बाद की ऐतिहासिक फ़िल्में
ऐतिहासिक फिल्में पार्ट 3: यथार्थ और ख्याली दुनिया का कॉकटेल
-अजय ब्रह्मात्मज
(अभी तक हम ने मूक फिल्मों और उसके बाद आज़ादी तक की बोलती फिल्मों के दौर की ऐतिहासिक फिल्मों का उल्लेख और आकलन किया.इस कड़ी में हम आज़ादी के बाद से लेकर 20वीं सदी के आखिरी दशक तक की ऐतिहासिक फिल्मों की चर्चा करेंगे.)

देश की आज़ादी और बंटवारे के पहले मुंबई के साथ कोलकाता और लाहौर भी हिंदी फिल्मों का निर्माण केंद्र था.आज़ादी के बाद लाहौर पाकिस्तान का शहर हो गया और कोलकाता में हिंदी फिल्मों का निर्माण ठहर सा गया.न्यू थिएटर के साथ जुड़ी अनेक प्रतिभाएं बेहतर मौके की तलाश में मुंबई आ गयीं.हिंदी फिल्मों के निर्माण की गतिविधियाँ मुंबई में ऐसी सिमटीं की महाराष्ट्र के कोल्हापुर और पुणे से भी निर्माता,निर्देशक,कलाकार और तकनीशियन खिसक का मुंबई आ गए.
मुंबई में नयी रवानी थी.नया जोश था.लाहौर और कोलकाता से आई प्रतिभाओं ने हिंदी फिल्म इंदस्ट्री को मजबूत और समृद्ध किया.देश के विभिन्न शहरों से आई प्रतिभाओं ने हिंदी फिल्मों को बहुमुखी विस्तार दिया.इसी विविधता से माना जाता है कि पांचवा और छठा दशक हिंदी फिल्मों का स्वर्णकाल है,जिसकी आभा सातवें दशक में भी दिखाई पड़ती है.आज़ादी के तुरंत बाद के सालों में ऐतिहासिक फिल्मों के प्रति रुझान नहीं दिखाई देता,जबकि कुछ सालों पहले तक मुगलों,मराठों और राजस्थान के राजपूत राजाओं की शौर्य गाथाओं पर फ़िल्में बन रही थी.आज़ादी के पहले इन फिल्मों से राष्ट्रीय चेतना का उद्बोधन किया जा रहा था.मुमकिन है आज़ादी के बाद फिल्मकारों को ऐसे उद्बोधन की प्रासंगिकता नहीं दिखी हो.
सोहराब मोदी और उनकी ऐतिहासिक फ़िल्में
आज़ादी के पहले ‘पुकार(1939),’सिकंदर(1941) और ‘पृथ्वी वल्लभ(1943) जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में निर्देशित कर चुके सोहराब मोदी ने अजाची के बाद पहले ‘शीशमहल(1950) नामक सोशल फिल्म का निर्देशन किया.फिर 1952 में उन्होंने महत्वाकांक्षी फिल्म ‘झाँसी की रानी का निर्माण और निर्देशन किया.यह फिल्म जनवरी 1953 में रिलीज हुई थी.इसका एक अंग्रेजी संस्करण भी बना था. अंग्रेजी में इसका शीर्षक था ‘द टाइगर एंड द फ्लेम. बता दें कि अंग्रेजी में डब करने के बजाय अलग से साथ में ही शूटिंग की गयी थी.इस वजह से फिल्म के सेट और शूटिंग पर भारी खर्च हुआ था.इस फिल्म की नायिका सोहराब मोदी की पत्नी महताब थीं.कहते हैं कि महताब रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका में नहीं जंची थीं.उनकी उम्र किरदार की उम्र से ज्यादा लग रही थी.लिहाजा दर्शकों ने फिल्म नापसंद कर दी थी.हिंदी की पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘झाँसी की रानी का अब सिर्फ श्वेत-श्याम प्रिंट ही बचा हुआ हैं.अध्येता बताते हैं कि अंग्रेजी संस्करण का टेक्नीकलर प्रिंट मौजूद है. इस फिल्म से सोहराब मोदी को बड़ा नुकसान हुआ.
फिर भी दो सालों के अन्दर सोहराब मोदी ने ‘मिर्ज़ा ग़ालिब का निर्माण और निर्देशन किया.किस्सा है कि पंडित जवाहरलाल नेहरु को एक साल जन्मदिन की बधाई देने पहुंचे सोहराब मोदी ने ग़ालिब का शेर सुनाया तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हर बरस के दिन हों पचास हज़ार
नेहरु ने शायर का नाम पूछा और सोहराब मोदी से उनके ऊपर फिल्म बनाने की बात कही.सोहराब मोदी ने उनकी बात मान ली. भारत भूषण और सुरैया के साथ उन्होंने ‘मिर्ज़ा ग़ालिब बना डाली.इस फिल्म को पहला राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला.फिल्म में सुरैया ने ग़ालिब की ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी.जिन्हें सुन कर नेहरु ने सुरैया से कहा था,’आप ने तो मिर्ज़ा ग़ालिब की रूह को जिंदा कर दिया.’पुरस्कृत और प्रशंसित होने के बावजूद ‘मिर्ज़ा ग़ालिब नहीं चली थी.सोहराब मोदी इस उम्मीद में आगे फ़िल्में बनाते रहे कि किसी एक फिल्म के चलने से उनके स्टूडियो की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी.ऐसा नहीं हो सका.एक दिन ऐसा आया कि मिनर्वा मूवीटोन बिक गया.
सोहराब मोदी ने बाद में ‘नौशेरवां-ए-एदिल’ और ‘यहूदी जैसी ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण किया.सोहराब मोदी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अकेले फ़िल्मकार हैं,जिन्होंने आज़ादी के पहले और बाद के सालों में ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण और निर्देशन पर जोर दिया.उनके समकालीनों ने छिटपुट रूप से ही इस विधा पर ध्यान दिया.
सामान्य उदासीनता के बावजूद
यह अध्ययन का विषय हो सकता है कि आज़ादी के बाद के सालों में ऐतिहासिक फिल्मों के प्रति क्यों उदासीनता रही? देश के आजाद होने के बाद राष्ट्र निर्माण की भावना से नयी कहानी लिखने-रचने का जोश कहीं न कहीं नेहरु के सपनों के भारत के मेल में था.नए दौर में फ़िल्मकार आत्म निर्भरता की चेतना से सामाजिक बदलाव की भी कहानियां लिख रहे थे.और जैसा कि हम ने पहले कहा कि देशभक्ति की भावना और राष्ट्रीय चेतना का फोकस बदल जाने से सामाजिक और पारिवारिक फिल्मों का चलन बढ़ा.प्रेम कहानियों में नायक-नायिका के बीच सामाजिक,आर्थिक और शहर-देहात का फर्क रखा गया.उनके मिलन की बाधाओं के ड्रामे में पुरानी धारणाओं और रुढियों को तोड़ने का प्रयास दिखा.प्रगतिशील और सेक्युलर समाज की चिंताएं फिल्मकारों की कोशिशों में जाहिर हो रही थीं.
कुछ फिल्मकारों ने मुग़लों और मराठों की कहानियों को दोहराया.ऐतिहासिक फिल्मों के सन्दर्भ में हम बार-बार उल्लेख कर रहे हैं कि फ़िल्मकार नयी कहानियों की तलाश में कम रहे हैं.आज़ादी के बाद के दौर में भी सलीम-अनारकली,जहाँगीर,शाहजहाँ आदि मुग़ल बादशाहों के महलों के आसपास ही हमारे फ़िल्मकार भटकते रहे.सलीम-अनारकली की काल्पनिक प्रेमकहानी पर पहले ‘अनारकली और फिर ‘मुग़लेआज़म’ जैसी मनोरंजक और भव्य फिल्म आई.’अनारकली में प्रदीप कुमार और बीना राय की जोड़ी थी.इस फिल्म में अकबर की भूमिका मुबारक ने निभाई थी.फिल्म के निर्देशक नन्दलाल जसवंतलाल थे. ‘मुग़लेआज़म’ में के आसिफ ने पृथ्वीराज कपूर,दिलीप कुमार और मधुबाला के साथ ऐसी कहानी रची कि फिर कोई इस कमाल के साथ इसे नहीं दोहरा सका.हाँ,तीन सालों के बाद ए के नाडियाडवाला ने ज़रूर एम सादिक के निर्देशन में प्रदीप कुमार और बीना राय के साथ ‘ताजमहल का निर्माण किया.साहिर लुधियानवी और रोशन की जोड़ी के रचे गीत-संगीत ने धूम मचा दी थी.एम् सादिक ने फिर प्रदीप कुमार और मीना कुमारी के साथ ‘नूरजहाँ का निर्देशन किया.इसके निर्माता शेख मुख़्तार थे.उन्होंने इस फिल्म में एक किरदार भी निभाया था.इस फिल्म के बाद शेख मुख़्तार फिल्म लेकर पाकिस्तान चले गए थे.भारत में यह फिल्म दर्शकों को अधिक पसंद नहीं आई थी,जबकि पाकिस्तान में यह फिल्म खूब चली.
समकालीन नायक और जीवनीपरक फ़िल्में
ऐतिहासिक फिल्मों के विस्तार के रूप में हम राजनेताओं पर बनी जीवनीपरक फिल्मों को देख सकते हैं.अभी बायोपिक फैशन में है.गौर करें तो बायोपिक की शुरुआत स्वतंत्रता सेनानियों पर बनी फिल्मों से होती है.आज़ादी के पहले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी राजनेताओं का नाम लेना और उनके ऊपर फिल्म बनाना मुमकिन नहीं था.ब्रिटिश हुकूमत बर्दाश्त नहीं कर पाती थी.आज़ादी के बाद लोकमान्य तिलक,भगत सिंह,गाँधी,सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेताओं पर फ़िल्में बनीं.आज़ादी के बाद 20वीं सदी के पांच दशकों में नौवें दशक में अनेक राजनेताओं पर फ़िल्में बनीं.रिचर्ड एटेनबरो की ‘गाँधी के निर्देशक भले ही विदेशी हों,लेकिन यह भारत सरकार के सहयोग से बनी फिल्म थी.’गाँधी(1982) और ‘मेकिंग ऑफ़ महात्मा(1996) एक साथ देख लें तो महात्मा गाँधी के जीवन और कार्य को आसानी से सम्पूर्णता में समझा जा सकता है.शहीदेआज़म भगत सिंह के जीवन पर बनी ‘शहीद ने बहुत खूबसूरती से किंवदंती बन चुके क्रान्तिकारी के जीवन को राष्ट्र धर्म और मर्म के सन्दर्भ में पेश किया.भगत सिंह की जन्म शताब्दी के समय 2002 में एक साथ अनेक फ़िल्में हिंदी और अन्य भाषाओँ में बनी.यहाँ तक कि राकेश ओमप्रकाश मेहरा की आमिर खान अभिनीत ‘रंग दे बसंती भी उनके जीवन से प्रेरित थी.
अन्य ऐतिहासिक फिल्मे
आज़ादी के बाद की अन्य ऐतिहासिक फिल्मों में हेमेश गुप्ता की ‘आनंद मठ(1952),केदार शर्मा की ‘नीलकमल(1947),सत्यजित राय की ‘शतरंज के खिलाडी(1977),लेख टंडन की ‘आम्रपाली(1966),एम् एस सथ्यू की ‘गर्म हवा(1974),श्याम बेनेगल की ‘जुनून’(1978),केतन मेहता की ‘सरदार(1993} आदि का उल्लेख आवश्यक होगा.इन फिल्मों के निर्देशकों ने समय की प्रवृतियों से अलग जाकर महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं पर काल्पनिक कथा बुनी या ऐतिहासिक प्रसंगों के सन्दर्भ के साथ उनका चित्रण किया.एक कमी तो खटकती है कि स्वाधीनता आन्दोलन,प्रथम स्वतंत्रता संग्राम,भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन युद्ध,देश में चले सुधार आन्दोलन,किसानों और मजदूरों के अभियान और संघर्ष जैसे सामयिक विषयों पर फिल्मकारों ने ध्यान नहीं दिया.देश के विभाजन की राजनीतिक और मार्मिक कथा भी नहीं कही गयी.हम अपने अतीत के यथार्थ से भागते रहे.हिंदी फ़िल्में और कमोबेश सभी भारतीय फ़िल्में मुख्य रूप से ख्याली दुनिया में ही उलझी रहीं.अर्द्धसामन्ती देश में प्रेम कहानियां भी एक तरह से विद्रोह की ही दास्तानें हैं,लेकिन फिल्मों में इसकी अति दिखाई पड़ती है.
21वीं सदी में अलबत्ता अनेक ऐतिहासिक फ़िल्में बनती हैं.साधन और सुविधा के साथ भव्यता की चाहत ने फिल्मकारों को ऐतिहासिक फिल्मों के लिए प्रेरित किया है.पिछले दो सालों में अनेक फ़िल्में प्रदर्शित हुई हैं और अभी कुछ ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण में लोकप्रिय और बड़े बैनर संलग्न हैं.

 
प्रसंग  
पारसी परिवार में जन्मे सोहराब मोदी का बचपन मुंबई की पारसी कॉलोनी में बीता था.किशोर उम्र में वे अपने पिता के साथ उत्तर प्रदेश के रामपुर चले गए थे.उनके पिता रामपुर के राजा के मुलाजिम थे.सोहराब मोदी का मन पढ़ाई-लिखाई में अधिक नहीं लगता था.खास कर इतिहास में वे फिसड्डी थे.शिक्षकों ने कई बार उनके पिता को उलाहना भी दिया था.सोहराब का मन खेल और कसरत में अधिक लगता था.14-15 की उम्र में सोहराब को रंगमंच का शौक चढ़ा और वे शेक्सपियर के नाटक करने लगे,उनके भाई रुस्तम भी उनका साथ देते थे.विडम्बना देखें कि इतिहास की पढाई में कमज़ोर सोहराब मोदी भविष्य में ऐतिहासिक फिल्मों के बड़े फ़िल्मकार हुए.उन्होंने अनेक ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया.उन्होंने एक बार कहा था,’हिंदी फिल्मों में प्रवेश करने के बाद मैंने ध्यान से इतिहास पढ़ना आरम्भ किया.फिर एहसास हुआ कि इतिहास में कितना ज्ञान छिपा है.अगर हम ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन का अनुसरण करें और उनसे शिक्षा लें तो हम अपना जीवन बदल सकते हैं.मुझे लगा कि मेरी तरह अनेक छात्र इतिहास पढ़ने में रूचि नहीं रखते होंगे.क्यों न उन सभी के लिए ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण करूं? इन फिल्मों से उनकी इतिहास की समझदारी बढ़ेगी और वे इतिहास के सबक से अपना भविष्य संवार सकेंगे.

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम