गाँधी माई फ़ादर

कथा कहने (नैरेशन) और काल (पीरियड) में सही सामंजस्य हो तो फिल्म संपूर्णता में प्रभावशाली होती है। किसी एक पक्ष के कमजोर होने पर फिल्म का प्रभाव घटता है। 'गांधी माई फादर' में निर्देशक फिरोज अब्बास खान और कला निर्देशक नितिन देसाई की कल्पना व सोच तत्कालीन परिवेश को गढ़ने में सफल रहे हैं। हां, चरित्र चित्रण और निर्वाह में स्पष्टता व तारतम्य की कमी से फिल्म अपने अंतिम प्रभाव में उतनी असरदार साबित नहीं होती। महात्मा 'बनने' से पहले ही गांधी और उनके बेटे के बीच तनाव के बीज पड़ गए थे। गांधी की महत्वाकांक्षा और व्यापक सोच के आगे परिजनों का हित छोटा हो गया था। हर बे टे की तरह हरिलाल भी अपने पिता की तरह बनना चाहते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि वह भी वकालत की पढ़ाई करें और पिता की तरह बैरिस्टर बनें। बेटे की इस ख्वाहिश को गांधी ने प्रश्रय नहीं दिया। वे अपने बेटे को जीवन और समाज सेवा की पाठशाला में प्रशिक्षित करना चाहते थे। पिता-पुत्र के बीच मनमुटाव बढ़ता गया। फिल्म में यह मनमुटाव अनेक प्रसंगों और घटनाओं से सामने आता है। हरिलाल अपनी सीमाओं के चलते ग्रंथियों से ग्रस्त होते चले गए। उन्हें लगता था कि गांधी उसके पिता न होते तो बेहतर होता। बेटे को न समझा पाने और सही राह पर न ला पाने की तकलीफ गांधी के मन में भी रही। वह अंतिम दिनों में हरिलाल से मिलना भी चाहते थे, किंतु परिस्थितियों ने पिता-पुत्र को दो छोरों पर ले जाकर खड़ा कर दिया था। अक्षय खन्ना ने हरिलाल की भूमिका में तकनीकी टीम की मदद से रूप तो ले लिया है, लेकिन उस चरित्र में उनका कायांतरण नहीं हो सका है। निर्देशक की हिदायतों से कुछ दृश्यों में वे हरिलाल को जीवंत करते दिखते हैं। कामर्शियल फिल्मों के एक्टर की यह बड़ी समस्या है। वे अपने मूल हाव-भाव को भूल नहीं पाते। गांधी की भूमिका में दर्शन जरीवाला और 'बा' की भूमिका में शेफाली शाह स्वाभाविक और दृश्यानुरूप लगे। गांधी की छवि के रूप में बेन किंग्सले की याद इतनी सशक्त है कि बाकी अभिनेता गांधी की भूमिका में कमजोर नजर आते हैं। हरिलाल की पत्नी गुलाब की भूमिका में भूमिका चावला इसलिए भी अच्छी लगती हैं कि हम गुलाब के बारे में पहले से कुछ नहीं जानते। निर्माता अनिल कपूर बधाई के पात्र हैं। उन्होंने घोर व्यावसायिक दौर में ऐसे विषय पर फिल्म बनाने की हिम्मत दिखाई है। 'गांधी माई फादर' इसलिए भी दर्शनीय है कि वह महात्मा गांधी के व्यक्तिगत जीवन के दुखद पहलू को प्रकाशित करती है। कला निर्देशक नितिन देसाई और कास्ट्यूम डिजाइनर सुजाता शर्मा ने परिवेश गढ़ने में निर्देशक की पूरी मदद की है। पियूष कनौजिया का संगीत काल और परिवेश के हिसाब से उपयुक्त है।

Comments

Anonymous said…
पता नही, निर्देशक का उद्देश्य क्या था इस फ़िल्म के पीछे? गांधी को नीचा दिखाना चाह रहे थे या फ़िर
उनके पहले से ही उंचे कद को और उंचा करना
चाह रहे थे?
कुल मिला कर फ़िल्म मुझे कमज़ोर लगी।
किसी प्रकार का संदेश भी नही छोड़ती नज़र आई।
अंकित माथुर...

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