सी ग्रेड फिल्मों का संसार

पिछले दिनों पानीपत से गुजरने का मौका मिला . जो पानीपत के बारे में नही जानते,उनकी जानकारी के लिये पानीपत में १५२८,१५५६ और १७६१ में तीन बडे युद्ध हुए.उसके बाद भारत का भूगोल और पॉलिटिकल इतिहास बदल gayaa .पानीपत अभी हरियाणा का प्रमुख शहर है.
बहरहाल,पानीपत की सड़कों, chauraahon, दुकानों पर लगे फिल्मों के posTer ने मेरा ध्यान खिंचा.मर्द-औरत की कामुक तस्वीरें इन पोस्तेर्स पर थीं.फिल्मों के नाम थे-हसीं रातें,मस्तानी गिर्ल्स,नादाँ तितलियाँ,गरम होंठ,प्यासीमोहब्बत,अजनबी साया…एक दोस्त ने बताया की ज़रूरी नही की सारी फिल्में हिंदी में बनी होन.येह दूब फिल्में भी हो सकती हैं.गौर से पोस्तेर्स के चेहरे देखे तो उनमे से कुछ सचमुच विदेशी थे.
सिर्फ पानीपत ही क्यों,मुम्बई और देल्ही से लेकर हर छोटे,मझोले और बडे शहरों में कुछ ठेत्रेस में ऐसी ही फिल्में चलती हैं.ठेत्रे के मलिक और दर्शक दोनों खुश रहते हैं.
-पिछले साल २०-२५ ऐसी फिल्में बनी थीं.येह तो हिंदी में बनी और सन्सोरेड फिल्में थीं.इनके अलावा और भी कितनी फिल्में दूब होकर रेलेअसे हुई होंगी.कुछ फिल्मों के तित्लेस बदल दिये जाते हैं.
-ज्यादातर शहरों की गरीब बस्तियों,रैल्वाय स्तातिओंस और बस्स स्तान्ड्स के पास के ठेअरेस ऐसी ही फिल्म्स दिखाते हैं.ट्रांसित औदडेंस को भी सुविधा रहती है.ट्रेन या बस्स का टिम होते ही वोह निकल जाते हैं.
-क्या हमारे फिल्म sameekshak और हिस्तोरिंस कभी ऐसी फिल्मों के दर्शकों के ऊपर रिसर्च करेंगे या इल्लित्रते औददिंस उनके दिस्कुस्सिओंस से बहार ही रहेंगे? अगर औददिंस हैं तो यूएन पर और उनकी रूचि के सिनेमा पर भी बात होनी चाहिये.
-सेक्स,स्लेअज़ और होर्रोर गेंरे की क ग्रेड फिल्मों की अप्पाल को महेश भट्ट,राम गोपाल वर्मा और कुछ दुसरे फिल्म्मकेर्स ने मुल्तिप्लेक्ष् तक पहुँचा दिया और मैन्स्त्रें आ और ब ग्रेड के दर्शकों को भी ऐसी फिल्मों का दीवाना बना दिया.
-एक ज़माने में मिथुन चक्रवर्ती,धर्मेंद्र और कदर खान भी ऐसी फिल्में कर राहे थे.प्रोदुसर्स उनके साथ २ से १० दिन शूट करते थे और उनका चेहरा पूरी फिल्म में दिख जता था.ऐसी फिल्मों के करण धर्मेंद्र की काफी बदनामी हुई थी.
-इधर ऐसी फिल्मों के औदडेंस को भोजपुरी फिल्मों ने हथिया लिया है.क ग्रेड फिल्मों वाले ठेत्रेस में भोजपुरी फिल्में लग रही हैं.भोजपुरी फिल्मों भी दो लहक्दार गाने तो होते ही हैं.
कभी ऐसी फिल्मों और उनके औदडेंस पर भी बात हो.लितेरतुरे में प्रेमचंद हैं,लेकिन मस्तराम के भी रेअदेर्स कम नही है.क्या हम उन्हें नज़रअंदाज करते राहे?
कुछ और फिल्मों के नाम हैं-बोलता जिस्म,बीवी की सहेली,एक बार आओ ना,एक से मेरा क्या होगा,रसभरी जवानी,तड़पती जवानी,मस्त चालाक छोकरी,होत गर्ल,आइटम गर्ल,प्राइवेट सेक्रेतार्य,रेड लिघ्त,ब्यूटी बोंद ००७…

Comments

Sanjay Tiwari said…
अजय जी आपको बहुत दिनों से अखबारों में देखता हूं. बंबई में था तो आपके बारे में सुनता भी रहता था. मुझे नहीं मालूम था कि यह चिट्ठा आप लिख रहे हैं. जाहिर है फिल्मों पर आप लिखेंगे तो कुछ बेहतर ही होगा.
कुछ सुझाव हैं. केवल सुझाव हैं इसे सलाह न समझें.
1. लेख का शीर्षक हिन्दी में देने में क्या हर्ज है? यह भ्रम है कि अंग्रेजी के शीर्षक होने के कारण सर्च इंजन लेखों को खोजते हैं. इससे बेहतर होगा कि आप सर्च इंजन की सुविधा पाने के लिए लेख के महत्वपूर्ण पात्रों, विषयों को कोष्ठक में अंग्रेजी में दे. सर्च इंजन उसका बेहतर परिणाम देते हैं.
2. लेख का शीर्षक अंग्रेजी में देने से विषय और भाषा दोनों के साथ अन्याय हो जाता है. कहीं न कहीं हमारी हीनभावना भी दिखती है.

3. चिट्ठे का शीर्षक हिन्दी में हो तो अच्छा रहेगा. क्योंकि सर्च इंजन हमारे यूआरएल से हमें पकड़ लेता है. हम शीर्षक किस भाषा में देते हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

4. मेरा मानना है कि हम हिन्दीवालों के लिए काम कर रहे हैं. हिन्दी भाषा का विकास भी इसी में निहित है कि स्तरीय काम उस भाषा में हो, अंग्रेजी के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन उस भाषा में कुछ लोगों ने काम किया है तभी आज वह वहां है. बालीवुड में अंग्रेजी और अंग्रेजियत की दासता साफ दिखती है. यही कारण है कि भारतीय सिनेमा पूरी तरह से अभारतीय होता जा रहा है.
यह सुझाव हैं. सलाह कतई नहीं. आप इसे पढ़कर भूल भी सकते हैं, ठीक लगे तो एक बार विचार भी कर सकते हैं. कुछ अन्यथा लगे तो कमअक्ल समझकर क्षमा कर दिजीएगा.

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