महेश भट्ट का आलेख जागरण में

ऊंचे आदर्शों का अभाव
हमारे मौजूदा दौर की अजीब त्रासदी है। पहले हमारे आदर्श मूल्यों और आकांक्षाओं के प्रतीक होते थे, जैसे गांधी जी। आजकल आदर्श के स्थान पर उनके प्रतिरूप होने लगे हैं जिन्हें हम आयकॉन कहते हैं। अब तो उससे भी एक कदम आगे स्टाइल आयकॉन की बातें होने लगी हैं। आदर्श से स्टाइल आयकॉन तक के इस सफर को समझना जरूरी है। आदर्श अपने मूल्यों के प्रति समर्पित होते थे। स्टाइल आयकॉन केवल स्टाइल हैं। वे मूल्यों के संवाहक नहीं हैं। इसलिए समाज से उनका लगाव भी ऊपरी है। उनके अंदर यह प्यास भी नहीं है कि चलो अपने खोखलेपन को पूरा करने के लिए खुद को कुछ ऐसे मूल्यों से जोड़ें जो उन्हें संपूर्ण बनाए। यह पैकेजिंग इंडस्ट्री की देन है, जहां पर केवल रूप-रंग और वस्त्र ही महत्वपूर्ण हो गया है। उपभोक्ता संस्कृति और जंक मानसिकता ने इसे हमारे लिए जरूरी बना दिया है। इस दौर में हम स्टाइल आयकॉन क्रिएट करते हैं। आज हमारे स्टाइल आयकॉन वे लोग हैं जिनकी जड़ें नहीं हैं। हम जिस संस्कृति में जीते हैं उसे आदर्शीकृत करने के लिए कुछ को मुखौटा दे दिया जाता है, मगर देखने वाला जानता है और पहनने वाला भी कि यह केवल मुखौटा ही है। हमारा सामाजिक अस्तित्व स्टाइल से प्रेरित हो गया है। आजादी के बाद सपनों के टूटने से मोहभंग हुआ और हम ठोस वैचारिक आधार के अभाव में अपनी जड़ों से कटते गए। हमारी कला और संस्कृ ति में भी जड़हीनता दिखती है। सोल्जेनित्सिन कहते थे कि समाज के संभावित बदलाव की झलक पहले कला में दिखती है। किसी समाज के खोखलेपन को देखना है तो आप उसकी कला देखो। आप फिल्म संगीत ले लीजिए। मुकेश, रफी, किशोर कुमार, मन्ना डे, हेमंत कुमार के दौर से जब ढलान शुरू हुई तो नकल तो दूर अब निहायत बुरे सिंगर आ गए हैं। वे सुर में नहीं हैं और उनमें गहराई भी नहीं है। जिस समाज में नंबर वन बनना ही सबसे बड़ा मूल्य हो गया हो, जहां बैंक बैलेंस से प्रतिष्ठा मापी जाती हो और जहां न्याय और करुणा की अहमियत न हो उस समाज का कोई भविष्य नहीं है। मैं मकर संक्राति के दिन वाराणसी में था। वहां जब पचास लाख आदमी मोक्ष के लिए डुबकी लगा रहे थे तो मैंने देखा कि वहां एक लाश पड़ी थी, जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। वहां से थोड़ी दूरी पर सारनाथ है। जहां पर गौतम बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन दिया था। उन्होंने पुण्य भूमि बनारस की तरफ पीठ कर कहा था कि मैं उस समाज में वापस जाऊंगा जहां पर तकलीफ है, दर्द है। जब तक हर एक इंसान को मैंने मोक्ष तक नहीं पहुंचा दिया तब तक मैं खुद प्रवेश नहीं करूंगा। गौतम बुद्ध ने व्यक्तिगत मोक्ष की जगह सामाजिक मोक्ष और मुक्ति की बात की,लेकिन हमने क्या किया? हमने उनके धर्म और सिद्धांत को देश निकाला दे दिया। समाज क्या होता है? संस्कृति क्या होती है? संस्कृति के लिए मूल्य और उनके प्रति समर्पण चाहिए। जिस समाज में मूल्य नहीं रहते हैं वह पूरी तरह से उद्देश्यहीन हो जाता है। उद्देश्यहीन समाज ही स्टाइल आयकॉन पैदा करता है। फिर वह वह आम आदमी के अंदर हीनता बोध पैदा करता है। वह पूरे समाज को दिगभ्रमित करता है। सफलता और लोकप्रियता का कंफ्यूजन होता है। गांधी और अमिताभ को समान महत्व मिलने लगे तो समझो मामला गड़बड़ है। सफलता गांधी हैं और लोकप्रियता अमिताभ। अगर समाज के अंदर यह द्वंद्व चल रहा है कि अमिताभ या शाहरुख खान अन्य ऐसा कोई स्टाइल आयकॉन बन जाएं तो समाज का भविष्य चिंतनीय है। स्टाइल आयकॉन मेन्यू की तरह होते हैं। वे खुराक नहीं हैं। स्टाइल आयकॉन विचार नहीं बांट रहे हैं। वे जीवन दर्शन नहीं, केवल जीवनशैली की बातें करते हैं। क्या खाओ, क्या पहनो और क्या खरीदो? इन दिनों प्रदर्शन पर ज्यादा जोर है। अच्छा दिखना है, अच्छा बनना नहीं है। आज दिखने पर पूरा जोर है। सब कुछ दिखावा है। लिखना और बोलना भी दिखावटी है। जिस जरह अपना तन ढकने के लिए हम वस्त्र पहन लेते हैं वैसे ही मन छिपाने के लिए विचार ओढ़ लेते हैं। हम लफ्ज पहनने लगे हैं। यह ऐसा दौर है जब कलम के शिल्पी भ्रष्ट राजनेताओं के लिए भाषण लिखने लगे हैं। वे अपने भाषणों से देश को गुमराह कर रहे हैं। समाज के इसी दौर की अभिव्यक्ति है स्टाइल आयकॉन। मुझे अपने बचपन की याद है: बलराज साहनी ब्रीच कैंडी के आगे खड़े हो गए थे, क्योंकि आजादी के बाद भी वहां हिंदुस्तानी लोगों को प्रवेश करने का अधिकार नहीं था। नेहरू मुंबई आते थे तो फिल्मों के लोग उनसे जाकर मिलते थे। इन मुलाकातों में उन्हें अपनी कमतरी का एहसास रहता था। उस जमाने के लोग एंटरटेनर और रीयल लाइफ आयकॉन का अंतर समझते थे। आज की तारीख में यह है कि एंटरटेनर का कद राजनेताओं से बड़ा हो गया है, क्योंकि राजनेताओं में नैतिकता नहीं रह गई है। ऐसे में स्टाइल आयकॉन का कद बड़ा तो हो ही जाएगा। आज काल्पनिक दुनिया के लोग ज्यादा अहमियत रखने लगे हैं। समाज की समस्याएं सिनेमा हाल में नहीं सुलझ सकतीं। आप ही बताएं क्रिकेट, टेनिस और सिनेमा के आयकॉन, जिनका असलियत से कोई लेना-देना नहीं वे क्या कर सकेंगे? वे जीवन नहीं बदल सकते, लेकिन वे हमारी-आपकी जीवनशैली बदलने की मुहिम में शामिल हैं और बाजार उनके समर्थन में खड़ा है। मुझे बड़ा तरस आता है हिंदुस्तान पर, खासकर मीडिया के एक वर्ग के रवैये पर। संजय दत्त मेरा दोस्त है। साधारण सा व्यक्ति है। गिरता-पड़ता यहां तक आ गया। उसके जीवन में पिता का बहुत योगदान रहा है, जिसकी वजह से वह आग की लपटों से बचा रहा। उसकी फिल्म मुन्नाभाई.. एक फिल्म मात्र थी। यदि आप फिल्म के एक रोल को उसकी असलियत समझ लेंगे और उसे आयडियल बना देंगे तो यह एक त्रासदी होगी।

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम