दरअसल:महिलाएं जगह बना रही हैं!

-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की सक्रियता बढ़ी है। समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह फिल्म इंडस्ट्री में विभिन्न स्तरों और विभागों में महिलाएं दिखने लगी हैं। किसी भी फिल्म की शूटिंग में आप महिला सहायकों को भागदौड़ करते देख सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे केवल निर्देशन में सहायता कर रही हों। कैमरा, साउंड और प्रोडक्शन की जिम्मेदारी निभाती सहायिकाओं से अमिताभ बच्चन तक प्रभावित हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग में कई बार इस तब्दीली का उल्लेख भी किया है। हम महिला निर्देशकों के नाम से परिचित हैं। बाकी विभागों के तकनीशियन चेहरे और नाम से नहीं जाने जाते हैं। हम लोग कितने कैमरामैन, साउंड इंजीनियर या एडीटर के बारे में विस्तृत जानकारी रखते हैं? फिल्म इंडस्ट्री के बीच कुशल और योग्य तकनीशियनों की मांग रहती है। फिर भी मीडिया और फिल्म के प्रचार में न तो इन तकनीशियनों के नाम का सहारा लिया जाता है और न ही ऐसी जरूरत समझी जाती है कि दर्शकों को उनके बारे में बताया जाए! परिणामस्वरूप वे सभी गुमनाम ही रह जाते हैं।
बहरहाल, इधर दो-चार साल की फिल्मों की तकनीकी टीम पर नजर डालें, तो हम पाएंगे कि महिलाओं की तादाद बढ़ी है। एफटीआईआई, जामिया मिल्लिया और दूसरे संस्थानों से डिग्री लेकर आई लड़कियां प्रोडक्शन के विभिन्न विभागों के लिए उपयोगी साबित हो रही हैं। इधर एक नया ट्रेंड दिख रहा है। हर निर्देशक अपने सहायक के रूप में लड़कियों को तरजीह देता है। इसके पीछे कोई यौन ग्रंथि या दूषित मानसिकता नहीं है। सामान्य धारणा है कि लड़कियां अच्छी सहयोगी होती हैं। सेट पर माहौल अच्छा रहता है और टीम में जान आ जाती है। सच तो यह है कि लड़कियों की मौजूदगी की वजह से अप्रत्यक्ष अनुशासन भी रहता है। भाषा संयमित रहती है। इसके अलावा, लड़कियां सौंपे गए काम को पूरे मनोयोग से समय पर खत्म भी कर देती हैं।
छोटे शहरों से फिल्मों में आने के लिए लालायित लड़कियों को समझना चाहिए कि फिल्म निर्माण में उनके लिए रोजगार के अवसर बढ़े हैं। अगर वे योग्य और समक्ष हैं, तो उन्हें काम अवश्य मिलेगा। प्रतिभा और अवसर का संयोग बैठ गया, तो वे अपने विभाग और क्षेत्र में स्वतंत्र पहचान भी बना सकती हैं।
हिंदी फिल्मों के दर्शक के रूप में हम हेमंती सरकार, आरती बजाज, दीपा भाटिया (सभी एडिटर), दीप्ति गुप्ता, सबिता सिंह, बकुल शर्मा (कैमरामैन), भवानी अय्यर, शगुफ्ता रफीक, अन्विता दत्त गुप्त, शिवानी कश्यप (रायटर) और नताशा निश्चल (मेकअप आर्टिस्ट) के नामों से परिचित नहीं हो पाते! इनके बारे में पत्र-पत्रिकाओं में लिखा नहीं जाता और न ही इन्हें फिल्म प्रचार के लिए उपयोगी समझा जाता है, लेकिन पिछले वर्षो में आया यह बहुत बड़ा बदलाव है। अब महिलाएं सिर्फ निर्देशन और संगीत निर्देशन तक सीमित नहीं रहीं।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रचलित पुरुष साम्राज्य के संदर्भ में एक मजाक किया जाता है कि अगर पा‌र्श्वगायन में महिलाओं की आवाज में पुरुष गा सकते हैं, तो शायद सुरैया से लेकर श्रेया घोषाल तक को मौका नहीं मिलता! ऐसी इंडस्ट्री में अब महिलाओं ने भी स्पेस लेना शुरू कर दिया है! इस बदलते ट्रेंड के साथ यह भी सच है कि महिलाओं को किसी भी विभाग की स्वतंत्र जिम्मेदारी देने से पहले निर्माता हजार बार सोचता है। जैसे हम अपने परिवार और समाज में आसानी से महिलाओं को निर्णायक पद देने में हिचकते हैं, वैसे ही फिल्म निर्माण के निर्णायक पदों तक पहुंचने में महिलाओं को मुश्किल होती है। फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें सहायक का काम तो आसानी से मिल जाता है, लेकिन सहायक निर्देशक से निर्देशक बनने में उन्हें पुरुषों की तुलना में ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है। यही कारण है कि हर साल रिलीज हो रही सौ से अधिक फिल्मों में से केवल दो-चार फिल्मों की निर्देशक ही महिलाएं होती हैं। इस कड़वी सच्चाई के बावजूद फिल्म निर्माण में महिलाओं की तादाद बढ़ रही है। मुमकिन है, आगामी कुछ वर्षो में फिल्म निर्माण के निर्णायक पदों पर महिलाओं की बराबर की हिस्सेदारी हो।

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स्‍पेस की इस रेस में
महिलाएं जीत रही हैं
जीतनी भी चाहिएं
भीत पुरानी रीत रही हैं
रीतनी भी चाहिएं।

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