जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है देश-महेश भट्ट


देशभक्ति क्या है? अपनी जन्मभूमि, बचपन की उम्मीदों, आकांक्षाओं और सपनों का प्रेम है या उस भूमि से प्रेम है, जहां अपनी मां के घुटनों के पास बैठ कर हमने देश के लिए स्वतंत्रता की लडाई लडने वाले महान नेताओं गांधी, नेहरू और तिलक के महान कार्यो के किस्से सुने या झांसी की रानी और मंगल पांडे के साहसी कारनामे सुने, जिन्होंने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों को आडे हाथों लिया था? संक्षेप में, क्या देशभक्ति एक खास जगह से प्रेम है, जहां की हर इंच जमीन आनंद और खुशी से भरपूर बचपन की प्रिय और कीमती यादों से भरी होती है?
मां सुनाओ मुझे वो कहानी
अगर यही देशभक्ति है तो ग्लोबलाइजेशन और शहरीकरण के इस दौर में चंद भारतीयों को ही यह तमगा मिलेगा, क्योंकि उनके खेल के मैदान अब हाइवे, फैक्ट्री और शॉपिंग मॉल में तब्दील हो गए हैं। चिडियों की चहचहाहट को गाडियों और मशीनों के शोर ने दबा दिया है। अब हमें महान कार्यो के किस्से भी नहीं सुनाए जाते। आज की मां अगर किस्से सुनाने बैठे तो उसे अमीर और गरीब के बीच की बढती खाई, शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच न पटने वाली दूरी और गांधी की भूमि में भडकी सांप्रदायिक हिंसा के न सुनाने लायक किस्से सुनाने होंगे।
ऐ मेरे वतन के लोगों
तो फिर देशभक्ति क्या है? बट्र्रेड रसेल के मुताबिक, देशभक्ति छोटी वजह के लिए मरने-मारने की इच्छा है।
लियो तोलस्तोय ने कहा है, देशभक्ति वह सिद्धांत है, जो थोक हत्याओं को उचित ठहराता है। यह ऐसा व्यापार है, जिसमें मनुष्य की हत्या के लिए बेहतर हथियारों की जरूरत होती है। इस व्यापार में जूते, कपडे और मकान जैसी जिंदगी की जरूरतों पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसमें लिप्त व्यक्तियों को आम आदमी से अधिक फायदे और बडी ख्याति मिलती है।
लेकिन हिंदी सिनेमा में देशभक्ति को किस तरह परिभाषित और चित्रित किया गया है? पीछे पलट कर देखता हूं तो मुझे अपने कानों में बजते देशभक्ति के गीत सुनाई पडते हैं। हिंदी फिल्मों ने ऐसे अनगिनत गीतों की रचना की। ये गीत करोडों भारतीय गुनगुनाते रहे। इन गीतों ने हमें जोडे रखा और देशप्रेम की भावना के लिए एकत्रित किया। मेरी उम्र उस समय मुश्किल से 13 साल होगी, जब मैंने पहली बार कवि प्रदीप का लिखा गीत ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी.. सुना। इसे स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने गाया था। यह गीत पहली बार देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने 1964 में गाया गया था, जिसे सुन कर उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। 21वीं सदी में भी टीवी या रेडियो से आती इस गीत की आवाज को सुन कर हर भारतीय की आंखें भीग जाती हैं।
हम उस देश के वासी हैं
किसी भी प्रभुतासंपन्न और आत्मसम्मान के धनी राष्ट्र के लिए देशभक्ति उसके नागरिकों के दिलों की धडकन है। देशभक्ति की भावना से ही सदियों-सहस्त्राब्दियों के बाद भी राष्ट्र बने रहे और उनके विकास की प्रक्रिया सुनिश्चित हुई। देशभक्ति के अभाव में देशों का पतन होता है और वे दुनिया के नक्शे से गायब हो जाते हैं। लंबे समय के बाद देश के राजनीतिज्ञों और समाजशास्त्रियों ने महसूस किया कि हिंदी सिनेमा राष्ट्र की छवि को सबसे ज्यादा कारगर तरीके से पेश करता है। हिमालय की चोटियों से लेकर तीन तरफ से समुद्र से घिरे इस देश में बहती गंगा, यमुना और गोदावरी जैसी पवित्र नदियों और प्राकृतिक सौंदर्य और समृद्ध स्त्रोतों से संपन्न भूमि का फिल्मों में बहुत सुंदर बखान किया गया है।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
देश के आम नागरिकों के लिए राष्ट्रनायकों, शहीदों, पूर्वजों के संघर्ष और कुर्बानियों, समाज सुधारकों के कार्यो, आजादी के पहले और बाद की लडाइयों, सीमा पार के आतंकवाद से चल रहे हाल के युद्धों और स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक देश की प्रगति और उपलब्धियों के बारे में हर प्रकार की जानकारी हासिल करने का पहला प्रभावशाली स्त्रोत फिल्में हैं।
शायद ही कोई इस तथ्य से इंकार करे कि भारतीय सिनेमा और खासकर हिंदी सिनेमा ने राष्ट्रीय एकता की भावना को सबसे जोरदार तरीके से पेश किया है। अलगाववादी शक्तियों की आलोचना की है और देश के इतिहास से दर्शकों का परिचय कराया है। इन जानकारियों के साथ फिल्मों ने हमारे अंदर मातृभूमि के प्रति प्रेम और गर्व की भावना भरी है।
हिंदी फिल्मों में देशभक्ति के विषय पर आरंभिक दिनों से ही फिल्में बन रही हैं। अंग्रेजों के शासन के समय फिल्मों ने देशभक्ति की भावना जगाने का कार्य किया। 1941 में आई सोहराब मोदी की सिकंदर में सबसे पहले अप्रत्यक्ष तरीके से देशभक्तिकी भावना का चित्रण किया गया था। आक्रामक सिकंदर के खिलाफ भारतीय राजा पोरस की साहसिक लडाई के बहाने देशभक्ति का संदेश दिया गया था। उन दिनों हमारे फिल्मकारों ने स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद करने की लडाई लडी थी।
शस्य श्यामलां मातरम
और फिर जब 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हुआ तो फिल्म इंडस्ट्री ने उन ऐतिहासिक क्षणों को फिल्मों में चित्रित किया। उन दिनों नए भारत के सपनों और आकांक्षाओं को फिल्मों का विषय बनाया गया। प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के दिखाए सपनों और राहों पर आधारित नया दौर (1957), हम हिंदुस्तानी (1960), आनंद मठ (1952), जागृति (1954) और लीडर (1964) जैसी फिल्में बनीं, जिनमें सपनों, संघर्षो और आजाद भारत के बढते कदमों का चित्रण किया गया था। स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के जीवन पर भी इस दौर में फिल्में बनीं। सिकंदर-ए-आजम (1965) और जिस देश में गंगा बहती है (1960) के गीतों में भारत की महानता का उल्लेख किया गया। फिर देश की सीमाओं को पार करने की दुश्मनों की कोशिशों पर भी फिल्में बनीं। 1962 के भारत-चीन युद्ध पर चेतन आनंद की फिल्म हकीकत आई थी। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत हकीकत इस विधा की श्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है।
रंग दे बसंती चोला
सातवें, आठवें और नौवें दशक की देशभक्ति वाली फिल्मों का जिक्र आने पर स्वाभाविक रूप से मनोज कुमार याद आते हैं। मनोज कुमार को भारतीय सिनेमा का देशभक्त चेहरा माना जाता है। यहां तक कि उन्हें भारत कुमार नाम भी दे दिया गया। इस स्थान से उन्हें कोई नहीं हटा सकता। सन 1965 में पहली बार हमने मनोज कुमार को फिल्म शहीद में मेरा रंग दे बसंती चोला गाते देखा था। इस फिल्म में उन्होंने भगत सिंह की भूमिका निभाई थी और कहते हैं कि उन्होंने इसका परोक्ष निर्देशन भी किया था। मेरे खयाल में देशभक्ति की भावना मुख्यधारा की बनी फिल्मों में श्रेष्ठ फिल्म शहीद है। मुझे याद है कि जब मैं अठारह का हुआ था तो मेरे दोस्तों ने मनोज कुमार की पहली फिल्म उपकार देखकर मेरे जन्मदिन का जश्न मनाया था। पर्दे पर जब मेरे देश की धरती गीत आया तो पूरा थिएटर उठ कर नाचने लगा था। मनोज कुमार ने बाद में पूरब और पश्चिम (1970) और क्रांति (1981) भी निर्देशित की। इन फिल्मों में उनकी पहली फिल्म की ईमानदारी और एकाग्रता नहीं दिखी।
चक दे इंडिया
हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों ने बहुत पहले समझ लिया था कि देशभक्ति की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा व्यवसाय करती हैं। पिछले साल आजादी की साठवीं वर्षगांठ के मौके पर आई शाहरुख खान की फिल्म चक दे इंडिया में देशभक्ति को नए अंदाज में पेश किया गया था। शाहरुख खान की चक दे इंडिया हमारी आम हिंदी फिल्मों से अलग थी। हिंदी फिल्मों में आम तौर पर महिलाओं की भूमिका गौण होती है, ज्यादातर पुरुष ही नेतृत्व करते हैं और देश के सम्मान की रक्षा करते हैं। चक दे इंडिया में 17 लडकियां यह काम करती हैं और हाकी का व‌र्ल्ड कप जीतकर लौटती हैं।
आमिर खान ने भी रंग दे बसंती से दर्शकों को सम्मोहित किया। इस फिल्म में युवकों का एक समूह क्रांतिकारियों से प्रेरित होकर देश को भ्रष्ट नेताओं से मुक्त कराने के लिए हिंसा का मार्ग चुनता है। आमिर खान ने पहली बार इस फिल्म में देशभक्त का रोल नहीं निभाया था। उन्होंने लगान में एक ग्रामीण किसान की भूमिका निभाई थी, जो अंग्रेजों को क्रिकेट में हराता है। उन्होंने सरफरोश में भी देशभक्त पुलिस अधिकारी को पर्दे पर जीवंत किया था।
ये जो देश है तेरा
हाल की फिल्मों में मेरी व्यक्तिगत पसंद आशुतोष गोवारिकर की स्वदेस है। यह फिल्म देश की कडवी सच्चाई को सामने ले आती है। शहरों की आर्थिक प्रगति, तकनीकी छलांग और सॉफ्टवेयर की धूम तो हम सभी देख रहे हैं, लेकिन देश के ग्रामीण इलाके आज भी जिंदगी की बुनियादी जरूरतों पानी और बिजली के लिए जूझ रहे हैं। गांव से शहरों में ग्रामीणों के पलायन के ज्वलंत मुद्दे पर बनी इस फिल्म में अच्छे भविष्य की उम्मीद में देश से विदेश पलायन कर रहे प्रतिभाशाली युवकों का भी उल्लेख किया गया है। दोनों तरह के पलायनों का एक ही जवाब मिलता है कि यहां रोजगार की संभावनाएं कम हैं।
स्वदेस में संदेश दिया गया है कि स्थानीय स्तर पर अवसर जुटाए जा सकते हैं। खासकर ग्रामीण इलाकों में इस पर ध्यान देना चाहिए। इस फिल्म का नायक नासा में वैज्ञानिक है, लेकिन वह भारत लौटने का फैसला लेता है। आदर्शवादी शहरी युवक के रूप में सामाजिक मुद्दों पर उसके विचारों में हम अपनी निराशा और जिज्ञासा की झलक देख सकते हैं।
इस लेख को पाकिस्तान विरोधी फिल्मों का जिक्र किए बिना पूरा नहीं किया जा सकता। एक दौर में पाकिस्तान के खिलाफ बन रही फिल्मों को ही देशभक्त की फिल्म माना जाता था। सन 2003 में बनी सनी देओल की द हीरो पाकिस्तान के खिलाफ बोले गए संवादों के बावजूद सिनेमाघरों में नहीं चल सकी। गदर से आरंभ हुई पाकिस्तान विरोध की देशभक्ति की भावना द हीरो के फ्लॉप होने के बाद खत्म हुई। इस बीच पाकिस्तान हिंदी फिल्मों का प्रमुख खलनायक बना रहा।
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों
देशभक्ति की भावना को हिंदी फिल्मों में देखें तो पाएंगे कि आरंभिक फिल्मों से लेकर मनोज कुमार, सनी देओल और चक दे इंडिया की 17 लडकियों के जरिये बदलती हुई देशभक्ति की भावना व्यक्त की जाती रही है। कभी साम्राज्यवादियों के खिलाफ लडाई देशभक्ति रही तो कभी सीमा पार के दुश्मनों से चल रही जंग देशभक्ति का पर्याय बनी। देश के भीतर के दुश्मनों के खिलाफ लिया गया मोर्चा भी देशभक्ति माना गया तो विश्वशक्ति के तौर पर उभरे भारत को अब विभिन्न तरीकों से फिल्मों में पेश किया जा रहा है। यह भी देशभक्ति है।
हमें यह सबक लेने की जरूरत है कि भावनाओं का तात्कालिक विस्फोट देशभक्ति नहीं है, जिसमें हम पडोसियों के खून के प्यासे हो जाते हैं। जिन मूल्यों के आधार पर आजादी हासिल की गई, उन मूल्यों के प्रति ईमानदार और आजीवन समर्पण ही देशभक्ति है। किसी भी व्यक्ति के लिए देश जमीन का टुकडा मात्र नहीं होता, जहां नदियां पहाड और जंगल होते हैं। देश के कुछ आधारभूत सिद्धांत होते हैं और उन सिद्धांतों के प्रति समर्पण ही असल देशभक्ति है।

Comments

Asha Joglekar said…
फिल्म एक बहुत सशक्त माध्यम है और समाज की सोच बदलने का माद्दा रखता है । जरूरत है निर्माता निर्देशकों के आगे आकर ज्यादा से ज्यादा ऐसी फिल्में बनाने की ।
गीत भी देशभक्ती की भावना को जगाने का और उभारने का काम करते हैं। नये गीतकार ज्यादा से ज्यादा ओजपूर्ण गीत दें तो ये सच्ची देशसेवा होगी ।
Anil Kumar said…
आपका आलेख मैंने पूरा पढा. धीरे-धीरे, एक-एक शब्द को चखते-परखते हुये पढा. ऐसा क्यों किया, इसका एक कारण है. जब मैंने नयी-नयी हिंदी चिट्ठाकारी शुरू की थी, तो मैंने देशभक्ति पर कुछ लिखा था. उस लेख पर मुझे एक ही टिप्पणी प्राप्त हुयी थी. उन महाशय ने आंग्लभाषा में लिख छोडा "देशभक्ति को परिभाषित करें".

मेरी उस पोस्ट का मूल उद्देश्य था देश की नाजुक हालत के प्रति भारतीयों को सचेत करना, लेकिन जवाब में देशभक्ति जैसे विषय पर ही सवालिया निशान लगा दिया गया.

कभी कभी सोचता हूँ उस सज्जन ने ऐसा क्यों किया होगा? शायद अपने "ज्ञान" को खुलेआम प्रदर्शित करने के लिये? शायद उसकी अपनी सोयी आत्मा को शर्मसार होने से बचाने के लिये? कारण मैं नहीं जानता. लेकिन फिल्म के परिप्रेक्ष्य में रखकर आपने देशभक्ति जैसे "गूढ" विषय की बहुत ही सरलता से बात की है. बहुत पसंद आया!

लिखते रहें, मैं पढने के इंतजार में रहूँगा!

साधुवाद!

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