आज चौदह की हुई दिलवाले दुल्हनियां

-विनीत कुमार

डीडीडीएलजे यानी दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे,मां के साथ देखी गयी मेरी आखिरी फिल्म। आज इस फिल्म के रिलीज हुए चौदह साल हो गए। इस फिल्म के बहाने अगर हम पिछले चौदह साल को देखना-समझना चाहें तो कितना कुछ बदल गया,कितनी यादें,कितनी बातें,बस यों समझिए कि अपने सीने में संस्मरणों का एक पूरा का पूरा पैकेज दबाए इस दिल्ली शहर में जद्दोजहद की जिंदगी खेप रहे हैं। पर्सनली इसे मैं अपनी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट मानता हूं

मां के साथ देखी गयी ये आखिरी फिल्म थी जिसे कि मैंने रत्तीभर भी इन्ज्वॉय नहीं किया। आमतौर पर जिस भी सिनेमा को मैंने मां के साथ देखा उसमें सिनेमा के कथानक से सटकर ही मां के साथ के संस्मरण एक-दूसरे के समानांतर याद आते हैं। कई बार तो मां के साथ की यादें इतनी हावी हो जाया करतीं हैं कि सिनेमा की कहानी धुंधली पड़ जाती है लेकिन डीडीएलजे के साथ मामला दूसरा ही बनता है। इतनी अच्छी फिल्म जिसे कि मैंने बाद में महसूस किया,मां के साथ देखने के दौरान मैंने तब तीन बार कहा था-चलो न मां,बुरी तरह चट रहे हैं। वो बार-बार कहती कि अब एतना तरद्दुत करके,पैसा लगाके आए हैं त बीच में कैसे उठ के चल जाएं और जब शंभूआ को पता चलेगा कि चाची के चक्कर में टिकट के लिए बुशट फडवा दिए और उ है कि बीचै में चल आई उठकर त क्या सोचेगा,बढ़िया नय लग रहा है त आंख मूंदकर सुस्ता लो हीये पर? सिनेमा में सिमरन और राज के बीच टूर के दौरान जो भी लीला-कीर्तन हो रहा था,ये सब मां को भी अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन उसके बाद वो ऐसे रम गयी कि एक बार मेरी तरफ ताकना भी जरुरी नहीं समझा। हम थे कि कूदकर सिनेमा हॉल से भागना चाह रहे थे। हमारे लिए ये सिनेमा जले पर नमक छिड़कने जैसा था जिसकी जलन को मां के शब्दों में परपराना कहते हैं।

सिनेमा रिलीज होने के दो दिन पहले हमलोग सात दिनों की ट्रिप से झारखंड के अलग-अलग जगहों से घूमकर वापस लौटे थे। पूरे स्कूली जीवन में मेरी ये पहली और आखिरी ट्रिप थी। इसके पहले भी बाकी लोग गए थे लेकिन मैं नहीं गया था। सबने हमें मनाया कि तुम्हें चलना ही होगा,तुम रहोगे तो टीचर लोग भी मान जाएंगे। बोर्ड परीक्षा के पहले स्कूल में ही प्रीबोर्ड की परीक्षा खत्म हुई थी। उसके बाद हमलोगों ने टीचरों को ठेल-ठेलकर कहा था कि सर अब तो हमलोग हमेशा के लिए आपलोगों से अलग हो रहे हैं,हमारी क्यों न हमलोग कुछ दिनों के लिए साथ बाहर घूमने जाएं? लेकिन टीचरों के पहले हमें क्लास की लड़कियों को सेंटी करना था जो कि आसान काम नहीं था। शुरुआत मैंने ही की-अब कौन किससे मिलेगा वर्षा,मोनालिसा,शैली,मनीषा,कनिका,सुजाता..अपनी यादें बनी रहे,चलो न एक बार।.और वैसे भी तुमलोग साइंस पढोगी,संभव है एक ही जगह जाओ लेकिन मुझे तो आर्ट्स की पढ़ाई करनी है,लिटरेचर,समझ रही हो न। फिर हमलोगों ने एक-दूसरे की गर्लफ्रैंड को कन्विंस करना शुरु किया। देखो-राजकमल के साथ ये तुम्हारा आखिरी मौका है,चल लो न। फिर पता नहीं तुम पटना और वो कोटा। मामला जम गया। अब बारी टीचरों की थी जिसका जिम्मा कन्विंस हो चुकी लड़कियों पर था। चलिए न मैम,इतने सारे लड़कों के बीच हमलोग सेप फी नहीं करेंगे.. सर,प्लीज और अंत में चार मैम के मान जाने पर सात टीचर भी मान गए।

सात दिनों तक हमलोग क्लास की 18 लड़कियों और 27 लड़कों एक साथ रहे। साथ में घूमना,एक-दूसरे पर कमेंट करना। पहली बार किसी लड़की का हाथ पकड़कर बनफुटकुन खोजने के बहाने झाडियों में घुसे,पहली बार चलते-चलते किसी के शू-शू आने पर कहां,हम यहां खड़े हैं कोई नहीं आएगा..जाओ कहा। पहली बार किसी लड़की के हाथ छू जाने से झुरझुरी होती है महसूस किया। पहली बार ये बयान सुना कि किस करते समय लड़कियां आंखें इसलिए बंद कर लेती है कि वो सुंदर चीजें देखना पसंद नहीं करती। टीनएज की कई बेतुकी बातें,लड़कियों से दूसरों के बहाने अपने मन की बातें धर देने की कला,सबकी आजमाइश इन सात दिनों में हमने की।जिस लड़की को हमारा दोस्त पसंद करता उसके सामने तारीफों के पुल बांध देना कि फलां तो जीनियस है,मैंने केमेस्ट्री तो श्रवण के नोट्स पढ़कर समझा है,अतुल की इंग्लिश है माइ गॉड। मामला एकतरफा ही था इसलिए हमें किसी भी लड़की की तारीफ करने की जरुरत महसूस नहीं हुई। हम जैसे कुछ लोग फ्लोटेड आशिक थे जो कि आजमा रहे थे कि कहां मामला सेट हो सकता है इसलिए औरों के मुकाबले ज्यादा चौकस रहते। कसप,बसंती,सूरज का सातवां घोड़ा,गुनाहो का देवता,पचपन खंभे लाल दीवारों के चरित्रों के टुकड़े को जहां से मन किया वहां उठाकर इन सात दिनों में जीना शुरु कर दिया लेकिन तब हमें कहां पता था कि हमारा ये जीना हिन्दी के महान उपन्यासों का क्रफ्ट का हिस्सा है।

सात दिनों के बाद जब हम अपने शहर बिहारशरीफ लौटे तो ऐसा लग रहा था कि हम सबों के भीतर से कुछ निकालकर करुणाबाग वाले चौराहे पर लाकर पटक दिया हो। तीन बजे रात हम अपने एक दोस्त के घर रुक गए और फिर अगले दिन से लेकर चार दिनों तक बस ट्रिप की ही चर्चा करते रहे. किसी को भी पढञाई में मन नहीं लग रहा था,सब खोए-खोए से,न भूख लगती,न प्यास। मां कहती- हमको जैसे ही पता चला कि लड़की लोग भी जा रही है तबहीए समझ गए थे कि हुआं से जब लौटेगा तो सनककर लौटेगा। मेरे दोस्त दिनभर में चार बार मेरे घर का चक्कर लगाते- आंटी विनीत है,मां कहती-आजकल घर में रहता कहां है? कुछ काम था? वो कहता-नहीं बस मन नहीं लग रहा था सो चले आए? मां भड़क जाती,दू महीना बाद बोर्ड परीक्षा है औ तुम सबको नय मन लगने का बेमारी एके साथ लग गया है,उसका भी नय मन लग रहा था त सुजीत के यहां गया है? हम इन दिनों जब भी मिलते,कभी पढ़ाई की बातें नहीं करते। हम सारे सातों-आठों दोस्त जो कि जुबानी थ्योरम प्रूव करते,अब एक-दूसरे से सवाल करते- बता न विद्या-हम कैसे क्या करें,कैसे शिल्पी को बताएं कि तुम्हारे बिना मर जाएंगे। बोल न ज्ञान-उसके बाप को जब पता चलेगा कि राजपूत लड़का से हमरी बेटी का चक्कर है तो उसको हलाल नहीं कर देगा? बोलती है कि आइआइटी निकाल लोगे तो सोचेंगे तुम्हारे बारे-अब हम कैसे एश्योर करें। हमने तय किया था कि ट्रिप से लौटकर सेट्स बनाएंगे लेकिन छ दिन हो गए,हमने किताब को हाथ तक नहीं लगाया। सबों के घर के लोग परेशान थे कि इन पढ़ने-लिखनेवाले लड़के को क्या हो गया? सबसे ज्यादा हैरानी मुझे लेकर थी,घरवालों को और दोस्तों को भी। वो कहते कि स्साला तुझे तो किसी पर्टिकुलर लड़की के साथ कुछ नहीं हुआ है फिर हमलोगों के सात काहे सेंटिया रहे हो? घरवाले उस लड़की के बारे में जानना चाहते लेकिन अपना तो केस ही अलग था। मैं एक ही साथ पांच-छ लड़कियों के साथ बिताए गए अलग-अलग लम्हों को याद करता,झुमरी तिलैया के बस स्टॉप पर सबसे हटकर ऑमलेट खाना,सैनिक स्कूल में जब दुनिया अस्तबल देख रही थी तो हमने कहा कि सबके सब लड़बहेर हैं,आओ इधर बैठते हैं,मैम और टीचर के बीच का..स्टिंग ऑपरेशन सब याद आता। दीदी लोग कहती-चलो,तुम्हारी इस हालत पर पापा को कोई एतराज नहीं है,अच्छा है यही हाल रहा तो फेल तो हो ही जाओगे और पापा को समझाने की भी जरुरत नहीं रहेगी कि बाप के साथ दूकान में बैठने के अलावे जवान होते बेटे के लिए और दूसरा कोई पुण्य काम नहीं है। सच में नानीघर से लौटते हुए जब पापा बिचली अड़ान के पास मिले तो हुलसकर बोले,स्कूल में रिजल्ट टंग गया है-सुजीत बता रहा था कि तुम्हारा पास होनेवाले में कहीं नाम ही नहीं है,जाओ बेग रखो और दूकान पर आ जाना,कुछ जरुरी बात करनी है। मेरे बाकी के दोस्त कहते-तुम्हारा क्या आर्ट्स पढ़ोगे बेटे,केतना भी नंबर आए,काम बन जाएगा। उपर से लड़कियों की झुंड रहेगी,ट्रिप का रहा-सहा कसर वहां पूरा हो जाएगा,फटेगी तो हम सबकी,साइंस नहीं मिला तो फिर कहीं के नहीं रहेंगे।

मेरी इसी हालत को देखकर मां हमें सिनेमा दिखाने ले गयी थी। उसे पता था कि सिनेमा का असर इस पर इतना ज्यादा होता है कि बाकी की चीजें अपने-आप भूल जाएगा। दिलचस्प है कि मां इस सिनेमा को ये समझकर देखने गयी थी कि इसमें अरेंज मैरिज को आदर्श बताया जाएगा। वो दुल्हनिया को समझ पायी लेकिन दिलवाले शब्द को इग्नोर कर गयी। मैं इस सिनेमा से अपने को जोड़ नहीं पाया। बस दो लाइन ही याद रह गयी- तूझे देखा तो ये जाना सनम,प्यार होता है दीवाना सनम। अब इधर से किधर जाएं हम,तेरी बांहों में मर जाएं हम।..मौके वे मौके हम इस लाइन को घर में दुहराते और दीदी लोग मजे लेती-दुलहन मांगे दहेज,अरे नहीं दुल्हा मांगे दुल्हनियां हा हा हा हा ...

मूड बदलने के लिए मेरी मां ने जिस दिलवाले दुल्हनियां का सहारा लिया था,मेरे दोस्तों को भी एक घड़ी के लिए वही सहारा नजर आया। तय किया गया कि जब सब अधकपारी के शिकार हुए हैं तो काहे नहीं सब एक साथ ही इलाज कराएं। मां से सिनेमा जाने के पैसे मांगे तो बिना कुछ कहे पचास का नोट पकड़ा दिया,उसे अफसोस हो रहा था कि मेरे साथ देखते समय बाहर निकलना चाह रहा था लेकिन खुश भी थी कि चलो इसी बहाने कुछ सुमति जगे।

अबकी बार हम सिनेमा से पूरी तरह बंध गए। एक-एक सीन जैसे फातमा डॉक्टर की दवाई की फक्की के तौर पर लगने लगा। संवाद,सिचुएशन,गानों से ऐसे जुड़े कि लगा कि हमारे सात दिनों की बितायी जिंदगी को किसी ने छुप-छुपकर देखा है और फिर उसे कैमरे में कैद कर लिया है। सिमरन की विदेश में ट्रेन छूटी थी और गुंजा की कोडरमा के दीपक होटल के पास छूटते-छूटते बची। एकदम डीटो सीन। हम सबों को लड़कियों का बाप अमरीश पुरी जैसा लगता जो कबूतरों को दाना तो खिलाता लेकिन हमें देखते ही भड़क जाता,इस गली में दुबारा न दिखने की सख्त हिदायत देता। आप ही सोचिए न किसी भी मोहल्ले में एक ही साथ आठ-दस लड़के साइकिल से चक्कर काटने लगें तो लड़की के बाप पर क्या गुजरेगी? हम उस कल्पना में खो गए कि काश गुंजा की बस मिस हो जाती और हम एक-दो दिन रुककर तिलैया पहुंचते,अपने मन की बात कहते। हम उस गाने को सीमा,शिप्रा से जोड़कर देखते- जरा-सा झूम लूं मैं,अरे न रे बाबा न,जरा सा घूम लूं मैं..अरे न रे बाबा न,आ तूझे चूम लूं मैं अरे न रे बाबा न। वो भी तो ऐसे ही मना करती थी और कहती-अभी हमारी ये सब करने की उम्र नहीं है।

सिनेमा देखने के दौरान हमें अपने सात दिन की ट्रिप भूल जानी चाहिए थी लेकिन एक-एक सीन के साथ वो कुछ इस तरह से जुड़ गयी जैसे लड़कियों के झीने कपड़े से सब कुछ झांक न जाए तो उसी रंग के स्तर लगा दिए जाते हैं। डीडीएलजे हमारी मनःस्थिति के साथ उस स्तर की तरह काम किया। दूसरी बार इस फिल्म को देखने का असर हुआ कि हम ट्रिप के साथ सिनेमाई हो गए और जो पल हमने बिताए उसे सिनेमा से जोड़कर देखने लगे। जिन वास्तविक क्षणों को जीकर मरे जा रहे थे उस पर अब कल्पना की लेप चढ़ाने लग गए कि अगर सिमरन की तरह गुंजा भी वेलकम वाला घंटा खरीदती तो, अगर मेरे भी बाबूजी अनुपम खेर जैसा बड़ा दिल रखते तो,अगर सबकी मां सिमरन की मां जैसी होती तो...इस तो के असर में हम सिनेमाई तरीके से ज्यादा सोचने लग गए और अपने सात दिनों को धुंधला करते चले गए,इस उम्मीद में कि स्साला जब अमरीश पुरी जैसे आदमी का दिल पसीज जाता है तो फिर ये शिल्पी,शिप्रा,मोना,सीमा के बाप की क्या औकात है और फिर एक बार आइआइटी निकल जाए,प्रीमेडिकल में हो जाए तो घर आएगा गिड़गिड़ाने। इस स्तर पर मैं अब भी दीन-हीन था कि आर्ट्स पढ़कर क्या कर लेंगे? लेकिन यकीन मानिए कि सिमरन और राज की कहानी के बीच हमारी सात दिन की कहानी कुछ ऐसे गड्डमड्ड हो गयी कि हम इसे एक फैंटेसी का हिस्सा मानकर भूलने लग गए। वैसे भी सिनेमा देखने के तीन दिनों बाद जब हम नानीघर के लिए रवाना हुए तब हम उस महौल से लगभग बाहर हो गए। इधर बाजार में हर पांच में से तीन लड़की सिमरन सूट पहने घूम रही थी,जाड़े में भी भाई लोग धूप चश्मा लगाए फिर रहे थे,जो लौंडें भौजी बोलकर लड़कियों पर कमेंट पास करते रहे,अब हे सैनोरिटा बोलकर ठहाके लगाते। आती हुई लड़कियों को देखकर कहते,अरे तेरी कि देख..देख सिमरन आ रही है। चौडे मुंह और मोटे तलबे वाले जूते से बाजार पट गयी थी। बिसेसरा की दूकान पर अलग-अलग पोज में सिमरान और राज की प्रेम कहानी के पोस्टर अठ-अठ आना में धडल्ले से बिकने लग गए थे। इसी समय नानी ने लौटते समय मेरी बहन के लिए सिमरन सूट भिजवाए थे जिसे कि मां ने किसी को शादी में दौरा पर भेज दी थी।
किसान सिनेमा के पर्दे पर तब ये फिल्म दोबारा लगी रही,जब हमने बोर्ड की परीक्षा दे दी,इंटरमीडिएट के लिए पटना कॉलेज का चक्कर लगाया और अंत में रांची जाने पर मुहर लग गयी। पैर छूते वक्त पापा ने मुंह फेर लिया था,मां ने बिलखकर कलेजे से लगाकर लड़कियों के साथ ट्रिप पर न जाने की प्रार्थना की थी। रिक्शा पर सामान लादे,सर्फ एक्सेल में फ्री में मिली बाल्टी को बिहारशरीफ से रांची ले जाते हुए जब मैं किसान सिनेमा की ओर से गुजर रहा था..तब ये मेरे बचपन का शहर हमेशा के लिए छूट रहा था,मां छूट रही थी,पापा तो एकदम से छूट रहे थे,दोस्तों का साथ छूट रहा था, शिप्रा ,मोना,शिल्पी,वर्षा,स्वीटी सब छूट रही थी,मैं रोने-रोने को हो रहा था जबकि पोस्टर का राज हमसे बार-बार कहता..हे हे हे हे..हमारी फिल्में देखनेवाले बच्चे कभी रोते नहीं,आगे बढ़ते हैं,पास होते हैं और डियर बुरा मत मानना लड़कियों के साथ ट्रिप पर न जाने की तुम्हारी मां ने बहुत गलत सलाह दी,मेरी खातिर उसे इग्नोर कर जाना,समझे।.

Comments

PD said…
बाह क्या लिखे हैं.. अबही हमको भी ऊ फिलिम याद आ गया.. सबसे पहले पटना के रिजेंट में पापा-मम्मी के साथ ई सिनेमा देखने का ट्राई मारे थे और टिकटवा नहीं मिला था.. उस समय हमको पता भी नहीं था कि फर्स्ट क्लास क्या होता है सिनेमा हाल में.. हम लोग ब्लैक में फर्स्ट क्लास का टिकट लिये और आधे घंटे में ही निकल भागे.. बाद में दल बल के साथ डेहरी-ऑन-सोन के किसी सिनेमा घर में आधा हॉल खाली करवा कर ये फिलिम देखी गई थी.. उस समय पापा जी बिक्रमगंज में एस.डी.ओ. थे.. सो सिनेमा हॉल के मालिक खुद ही रिक्वेस्ट किये थे फिलिम देखने खातिर.. हम उस समय तुरत दसवीं में थर्ड डिविजन से पास हुये थे.. सब एके बार में दिमाग में भकभका रहा है.. :)
वास्‍तव में , मजेदार थी यह फिल्‍म !!
सेंटी कर दिए विनीत बाबू. हम तो दीवान पे पढ़े और अजय सर को सजेशियाने लगे कि वो हिंदी टॉकीज का स्पेशल बना सकते हैं, तो उन्होंने रद्दा जड़ दिया कि चवन्नीछाप तो देखव...आउर इहां आए तो वही माल...मस्त गुरू...छा गए...।
मेरी बहन की शादी के बाद, मां के साथ हिन्दी फिल्में देखना शुरू किया। यह शादी बाद भी, जब तक चला जब तक वे जिन्दा रहीं। पहले हम और मां अकेले जाते थे बाद में हमारी मित्र मंडली (लड़कियां भी) शामिल रहती थीं। मां के इस दुनिया के बाद, पिक्चर हॉल में शायद ही कोई हिन्दी की फिल्म देखी हो।

मां के साथ देखी गयी फिल्में, मेरी यादगार लहमों में हैं।
sushant jha said…
विनीत, आपने वो सब कुछ लिख डाला जो मैं पिछले सालों में सोचता रहा था। मेरे पास सिवाय आपको धन्यवाद देने के..कमेंट करने लायक कुछ नहीं बचा। आपने उस वक्त की याद दिला कर हमारा ऊपर जुल्म जैसा ढ़ा दिया जब हम ताजा-2 जवान हुए थे और हर लड़की से प्रेम कर लेते थे। यूं..मैं आपके लंबे लेख से खौफ खाता हूं...लेकिन जब ये पोस्ट पढ़ने बैठा तो कई शिप्राएं...और कई पूजाएं मेरी निगाहों के सामने से सिनेमा की रील की तरह गुजर गई। एक बार फिर से धन्यवाद स्वीकार करें....। बेहतरीन।
chavannichap said…
aap sabhi ka aamntran hai.agar aap ddlj par kuchh likhna chahte hain to apni post chavannichap@gmail.com par bhejen.
Shatrughan said…
guru maja lage diyo aapne ...

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