दरअसल: फिल्म की खसियत बने लुक और स्टाइल


-अजय ब्रह्मात्‍मज

हाल ही में रिलीज हुई एसिड फैक्ट्री के मुख्य किरदारों की जबरदस्त स्टाइलिंग की गई थी। डैनी डेंजोग्पा, डिनो मोरिया, दीया मिर्जा, फरदीन खान, मनोज बाजपेयी, इरफान खान और आफताब शिवदासानी के लुक और स्टाइल पर मेहनत की गई थी। आपने अगर फिल्म देखी हो, तो गौर किया होगा कि कैमरा उनके कपड़ों, जूतों, बालों और एक्सेसरीज पर बार-बार रुक रहा था। निर्देशक और कैमरामैन उन्हें रेखांकित करना चाह रहे थे। एसिड फैक्ट्री रिलीज होने के पहले से फिल्म के स्टार रैंप पर दिख रहे थे। डेढ़ साल पहले बैंकॉक में आयोजित आईफा अवार्ड समारोह में पहली बार फिल्म के कुछ किरदार रैंप पर चले थे। तब निर्देशक सुपर्ण वर्मा और निर्माता संजय गुप्ता की चाल में भी दर्प दिखा था। लेकिन, फिल्म का क्या हुआ? सारी स्टाइलिंग और उसके रेखांकन एवं प्रचार के बावजूद एसिड फैक्ट्री औंधे मुंह गिरी है, क्योंकि किरदारों पर ध्यान नहीं दिया गया।

लुक और स्टाइल पर इन दिनों ज्यादा जोर दिया जाने लगा है और उन्हें प्रचारित भी किया जाता है। फिल्म की खासियत के तौर पर उन्हें गिनाया जाता है। इन दिनों फिल्म के लेखकों और अन्य तकनीशियनों से ज्यादा महत्व ड्रेस डिजाइनर और लुक एवं स्टाइल डिजाइनर को दिया जाने लगा है। फिल्म स्टार भी उन्हें खास महत्व देते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी स्टाइलिश इमेज बनाने में डिजाइनरों का बड़ा योगदान रहता है। दिल चाहता है के बाद निर्माता-निर्देशक लुक और स्टाइल के पीछे ही पड़ गए हैं। उस फिल्म की कामयाबी से सभी को भ्रम हो गया कि फिल्म के किरदारों को स्टाइलिश तरीके से पेश कर दिया जाए, तो दर्शकों की रुचि और जिज्ञासा बढ़ जाती है। कुछ फिल्मों के मामले में ऐसा हुआ भी, तो उनका विश्वास और बढ़ गया। अभी किसी भी फिल्म की शूटिंग आरंभ होने के पहले लुक और स्टाइल पर जमकर समय और पैसे खर्च किए जाते हैं।

लुक और स्टाइल पर पहले भी ध्यान दिया जाता था, लेकिन उन्हें फिल्म का हाइलाइट या यूएसपी नहीं बनाया जाता था। मदर इंडिया, गंगा जमुना, आवारा और गाइड ही देख लें, तो इन फिल्मों के लुक और स्टाइल पर पूरी किताबें लिखी जा सकती हैं। लेकिन नरगिस, दिलीप कुमार, राज कपूर या देव आनंद को कभी यह बोलते नहीं सुना गया कि उन्होंने फलां-फलां डिजाइनर के कपड़े पहने हैं। उन दिनों फिल्मों के किरदार पर डायरेक्टर और एक्टर मेहनत करते थे। चरित्र चित्रण और चरित्र निर्वाह पर उनका ध्यान रहता था, क्योंकि लुक और स्टाइल तो उस चरित्र में निहित रहता था। फिर एक ऐसा दौर आया, जब हमारे एक्टर चौबीस घंटों में तीन-चार शिफ्टों में तीन-चार फिल्मों की रोजाना शूटिंग करने लगे। न तो एक्टर के पास फुरसत रहती थी और न डायरेक्टर इसकी जरूरत समझता था। सभी एक्टर हर फिल्म में एक ही लुक में दिखते थे। कभी-कभी दो फिल्मों में एक ही ड्रेस दिखे। यह सिलसिला लंबा चला।

बाद में फरहान अख्तर ने दिल चाहता है में आमिर खान, सैफ अली खान और अक्षय खन्ना को खास लुक्सदिए। उनके बाल कटवाए। उन्हें डिजाइनर कपड़े पहनाए। तीनों अभिनेताओं ने फरहान को पूरा सहयोग दिया। इस फिल्म के प्रचार में तीनों एक्टरों को विभिन्न मुद्राओं में दिखाया गया। पब्लिसिटी की तस्वीरों में फिल्म की वर्किंग स्टिल्स नहीं दी गई। यही वह दौर था, जब एक्टर भी महसूस कर रहे थे कि एक समय में एक ही फिल्म करनी चाहिए। आमिर खान की लगान आ चुकी थी। उस फिल्म में आमिर खान के विशेष लुक पर सभी का ध्यान गया था। फिर तो लुक और स्टाइल चरित्र चित्रण (कैरेक्टराइजेशन) में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। इस महत्व की अति तब हो गई, जब निर्माता, निर्देशक और एक्टरों ने सिर्फ लुक्स और स्टाइल पर ही मेहनत करनी शुरू कर दी। किरदारों के कैरेक्टराइजेशन को नजरअंदाज किया गया। नतीजा एसिड फैक्ट्री जैसी फिल्में हैं, जिसमें स्टाइल तो है, लेकिन किरदार खोखले हैं।


Comments

दिखावे की दुनिया है, दिखावे में हैं लोग...(फ़िल्मवाले)
बिल्कुल सही बात, इतना ही नहीं इन दिनों फिल्मों के दृश्यों को या कभी-कभी पूरी फिल्म को एक खास कलर टोन दिया जाता है वोह भी ज्यादा प्रभावशाली नहीं होता है. वह आमतौर पर एक बनावटी वातावरण की सृष्टि करता हैं. Gone With The Wind जैसी फिल्में में अद्भुत वातावरण था बिना किसी कलर स्कीम के.

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