हिंदी टाकीज द्वितीय:सिनेमा के कई रंग-ओम थानवी

यह संस्मरण चवन्नी ने मोहल्ला लाइव से लिया है . ओम थानवी से अनुमति लेने के बाद इसे यहाँ प्रकाशित करते हुए अपार ख़ुशी हो रही है.ओम जी ने इसे चवन्नी के लिए नहीं लिखा,लेकिन यह हिंदी टाकीज सीरिज़ के लिए उपयुक्त है।


भाषाई विविधता और वैचारिक असहमतियों का सम्‍मान करने वाले विलक्षण पत्रकार। पहले रंगकर्मी। राजस्‍थान पत्रिका से पत्रकारीय करियर की शुरुआत। वहां से प्रभाष जी उन्‍हें जनसत्ता, चंडीगढ़ संस्‍करण में स्‍थानीय संपादक बना कर ले गये। फिलहाल जनसत्ता समूह के कार्यकारी संपादक। उनसे om.thanvi@ expressindia.com पर संपर्क किया जा सकता है।

हमारे कस्बे फलोदी में तब एक सिनेमा हॉल था। अब दो हैं। पर पहले जो था उसमें सिनेमा तो था, हॉल नहीं था। यानी चारदीवारी थी, छत नहीं थी। सर्दी हो या गरमी, नीले गगन के तले सिनेमा का अजब प्यार पलता था। और तो और, ‘हॉल’ में कुर्सियां भी नहीं थीं। मुक्ताकाशी था, इसलिए फिल्में दिन ढलने के बाद ही देखी-दिखायी जा सकती थीं।
उस सिनेमाघर का नाम था – श्रीलटियाल टाकीज। लटियाल देवी का नाम है, इसलिए ‘श्री’ उपसर्ग। ऐसे ही बीकानेर में घर के पास जो सिनेमाघर था, उसका नाम था श्रीगंगा थिएटर। किसी महाराजा के नाम पर कोई चीज – इमारत हो या शहर – बगैर उपसर्ग के कैसे तामीर हो सकती है! लोग तो देवता के नाम पर इंसान के नामकरण में भी श्री जड़ना नहीं भूलते थे : श्रीनारायण बगरहट्टा!
बीकानेर में आधिकारिक तौर पर तब तीन सिनेमाघर थे। चौथा हमने अपने स्रोतों से तलाश लिया था। वह शहर से बाहर फौजी छावनी में था। श्रीकरणी थिएटर। करणी माता बीकानेर की कुलदेवी हैं। निशानेबाज के रूप में मशहूर हुए महाराजा करणी सिंह का नाम उसी देवी के नाम पर रखा गया था।
पर श्रीकरणी थिएटर केवल नाम में शाही था। वह दरअसल फलोदी के श्रीलटियाल टाकीज का सहोदर था। जबकि श्रीगंगा थिएटर रियासत के दौर की निशानी था। भव्य और आरामदेह। वह रंग प्रदर्शनों के लिए बना ‘थिएटर’ था, ‘टाकीज’ की शक्ल उसने बोलती फिल्मों के आविष्कार के कई साल बाद अख्तियार की। पर हमें श्रीकरणी थिएटर ज्यादा रास आता था। साठ पैसे के टिकट के मुकाबले वहां टिकट सिर्फ बीस पैसे था। दूसरे, जान-पहचान के चेहरे भी वहां नहीं होते थे, जिनसे आंख चुराएं।
उस दौर के सिनेमा के कई रंग बरबस याद आते हैं। जैसे श्रीलटियाल टाकीज में पहले बैठे-बैठे, फिर फर्श पर पसर कर फिल्म देखना। या श्रीगंगा थिएटर में किस्तों में फिल्म देखना। किस्तों में यों, कि आधी फिल्म आज, आधी कल! बच्चों का फिल्म देखना तब कोई सुरुचिपूर्ण काम नहीं समझा जाता था। पर पिता जी खुद अच्छी फिल्म देखने को उकसाते थे। पैसा देते थे। ‘जागते रहो’, ‘आशीर्वाद’ जैसी फिल्में सुझाते थे। या चार्ली चैपलिन, लारेल-हार्डी या आयवरी-मर्चेंट की ‘द गुरु’। विदेशी फिल्में इतवार को सुबह दस बजे के शो में ही चलती थीं। हिंदी फिल्मों को देखते वे छोटी होती थीं।
पर हमें शौक था रोज का। ज्यादा मजा ‘फूल और पत्थर’ (शांति, तू नहीं जानती, दुनिया कितनी जालिम है!), या ‘मेरे हुजूर’ (कौनसे ऐसे शहर में कौन सी ऐसी फिरदौस है, जिसे हम नहीं जानते!) में था। या ‘वक्त’ और ‘पाकीजा’, जिनके संवाद फिल्म चलने से पहले लोगों की जुबान पर होते थे। या दारा सिंह – रंधावा भाइयों की फिल्में, जिनमें फिल्म का कोई तत्त्व शायद ही रहता होगा।
इनमें अधिकांश फिल्में किस्तों में देखीं। किस्तों में इसलिए नहीं कि फिल्में लंबी होती थीं। दरअसल फिल्म देखते थे स्कूल से नागा कर। फिल्म खत्म होती, तब तक पीछे स्कूल की छुट्टी हो चुकी होती थी। देर से घर पहुंच कर रोज कोई सफाई दें, उससे बेहतर उपाय यह था कि आधी फिल्म देखकर वक्त पर घर पहुंच जाएं। अगले रोज स्कूल से घर लौटें और किसी बहाने बाहर निकल कर मध्यांतर के बाद की बाकी फिल्म देख आएं!
आप कहेंगे, यह कैसे होगा। मध्यांतर में फिल्म छोड़ सकते हैं, पर मध्यांतर के बाद भला किस सीट पर बैठेंगे! तो जनाब, किस्तों में फिल्म देखने वाला बीकानेर शहर में मैं अकेला नहीं था! ज्यादा नहीं, पर सिनेमा को समर्पित ढेर शौकीन थे। उन्हीं में हर रोज कुछ ‘हाफ टिकट’ यानी ‘इंटरवल’ बेचने वाले रहते तो कुछ खरीदने वाले। झूठ न समझें, एकाध बार तो यह भी किया कि मध्यांतर के बाद की फिल्म पहले देखी, मध्यांतर से पहले की बाद में!
मगर हम ही नहीं थे। जो उम्र में बड़े थे और कमाते थे, वे फिल्म पर खर्च का बाकायदा बजट रखते थे। एकाधिक बार फिल्म देखने वाले तो बेशुमार थे। कुछ एक ही फिल्म को आधा दर्जन दफा, या इससे भी ज्यादा देखने के लिए बदनाम थे। मेरे एक मामा ने ‘दो रास्ते’ बीस बार देखी थी।
लगातार फिल्में देखने वालों में नंदकिशोर आचार्य जैसे भले और रचनाधर्मी लोग भी थे। नवरात्र के श्रद्धालु जैसे वक्फे भर के लिए मांस-मदिरा छोड़ देते हैं, शहर के छात्र परीक्षा के दिनों में संजीदा होकर सिनेमाघरों से मुंह मोड़ लेते। पर आखिरी परीक्षा खत्म होने के बाद सीधे सिनेमाघर पहुंचते। रंगकर्मी और कथाकार वागीश कुमार सिंह सुबह आखिरी परीक्षा देने के बाद दिन में बाकी बचे तीनों शो देख आते थे। फिल्मों के कुछ रसिया ऐसे भी थे जो एक शो देखकर निकलते, दूसरे दरवाजे से अगले शो के लिए दाखिल हो जाते। अक्सर उसी फिल्म के लिए।
नयी फिल्में तब भी शुक्रवार के ‘शुभ दिन’ शुरू होती थीं। धाकड़ फिल्म हो तो पहला शो सुबह छह बजे शुरू होता। हम ‘पढ़ने वाले’ बच्चे-किशोरों का छह बजे के शो के लिए निकलना नामुमकिन था। उन वीरों को हम ईर्ष्या से देखते थे, जो हर कीमत पर पहला शो देख आते। उनका कौल था, बस पहला शो, वरना यह फिल्म कभी न देखूंगा। ऐसे जुनूनी सिनेमा प्रेमी, सुनते थे, रात सिनेमा की खिड़की के बाहर ही कहीं सो रहते हैं। एहतियातन वे अपनी हवाई चप्पल खिड़की के सामने बने जंगले में रख देते। सुबह पांच बजे, खिड़की में आहट हो उससे पहले, ऐसी चप्पलों की छोटी-मोटी कतार लग जाती थी। शहर के लोग निहायत शरीफ थे। कभी नहीं सुना कि बाद में आने वाले ने किसी चप्पल को फांद लिया हो। हां, खिड़की खुलने के बाद शराफत की गारंटी खत्म हो जाती। चप्पल पांव में हों तो ठीक, वरना टिकट गया और चप्पल भी!
लंबी फिल्में तब ज्यादा पसंद की जाती थीं। फिल्म डिवीजन की न्यूजरील के खत्म होने के बाद फिल्म बोर्ड का प्रमाण-पत्र परदे पर आते ही पूरे हॉल में एक हिस्स की गूंज उठती। असल में लगभग हर दर्शक फिल्म की ‘रीलों’ की संख्या पढ़ते हुए उसका उच्चारण भी करता था।
एक और याद, जो शायद अजीब लगे। सिनेमाघर के गलियारे में हम लोग हॉल के दरवाजे पर कान सटा कर फिल्म को सिर्फ सुनते थे। इसलिए कि एक बार देखी फिल्म पर दुबारा पैसा खर्च करने की ताब न थी, तो संवाद-संगीत सुनने भर से काम चला लेते थे। शायद मेरे जैसे फिल्म प्रेमियों (!) के लिए ही एचएमवी ने ‘मुगले-आजम’ और पॉलीडोर ने ‘शोले’ के संवादों की एलपी तक निकाल दीं। फिल्म को देखें ही नहीं, सुनें भी!
तब हर फिल्म के गानों के रेकार्ड निकलते थे। बाद में कैसेट आये। अब सीडी-डीवीडी के जमाने में पूरी फिल्म मिल जाती है, तो केवल गानों की क्या जरूरत। नये बाजार के सामने फिल्मी गानों का बाजार भी कुछ सिमट गया है। लेकिन विदेशों में आज भी बहुत-सी फिल्मों का संगीत अलग से बिकता है। गाने तो वहां की फिल्मों में आम तौर पर होते नहीं, पर दृश्यों के साथ चलते संगीत का अपना वजन होता है।
कीसलोव्स्की की ‘थ्री कलर्स’ त्रयी या काकोयानिस की ‘जोरबा द ग्रीक’ क्लासिक होते हुए भी बार-बार कब देख सकते हैं। लेकिन इन फिल्मों के संगीत की सीडी मैंने दर्जनों बार सुनी होगी। ऐसा संगीत यों तो दृश्य में प्रभाव पैदा करने का सहारा होता है, लेकिन फिल्म की स्थितियों के मुताबिक तैयार की गयी रचनाएं अलग से सुनने पर फिल्म के दृश्य की याद ही नहीं दिलातीं, कभी अलग रचना का सुख भी देती हैं।
तो हॉल के बाहर खड़े होकर भी फिल्म देखने का सुख हम अनुभव कर सकते थे। जो फिल्में न देख सकें, उनके चित्र (‘पोस्टर’) देखकर खुश हो लेते। नादानी कहिए या दीवानगी, फिल्मगीरी के ऐसे किस्से हजार होंगे! शायद ऐसे प्रतिबद्ध दर्शकों के चलते ही देश में फिल्में हफ्तों-महीनों नहीं, कभी-कभी बरस-दो बरस चल जाती थीं। क्या आज सिनेमा के प्रति दीवानगी कुछ कम नहीं हो गयी है? क्या ऐसी फिल्में नहीं आतीं जिनसे समाज अपने को जोड़ सके? या सिनेमा अब मनोरंजन का अहम साधन नहीं रहा?
ऐसा लगता तो नहीं। बीच में जरूर सिनेमा के बुरे दिन आये। टीवी की ‘क्रांति’ ने सिनेमा को पीछे ढकेल दिया। सिनेमाघर टूट-बिखर कर मॉल या शॉपिंग सेंटरों में बदल गये। लेकिन इन्हीं बाजारों में – कहते हैं – मल्टीप्लेक्स के चलन ने डूबते फिल्म उद्योग को फिर पटरी पर ला खड़ा किया है। क्या सचमुच?
आजकल ज्यादा फिल्में मैं घर पर देखता हूं। इसमें फिल्म का चुनाव और समय की सुविधा का तालमेल रहता है। फिर भी सिनेमा हॉल में एक जमात के बीच फिल्म देखने का अनुभव बिलकुल अलग होता है। पर फिल्म का चुनाव वहां सीमा में होगा। अपनी पसंद की फिल्म आप वहां नहीं चलवा सकते!
बहरहाल, पिछले दिनों मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों में जाकर सात फिल्में देखीं।
एक मित्र का कहना है कि मैं विदेशी फिल्मों से आक्रांत रहता हूं। फ्रांसीसी, इतालवी, जर्मन, स्पानी, ईरानी, तुर्की। हिंदी फिल्मों को हिकारत से देखता हूं। जबकि हिंदी फिल्में अंतरराष्ट्रीय स्तर को छूने लगी हैं। ऑस्कर नामित फिल्मों से होड़ लेती हैं। उन्होंने जब अमिताभ बच्चन की ‘ब्लैक’ की तारीफ में कसीदे पढ़े तो फौरन ‘चाणक्य’ सिनेमाघर को मुंह किया। निराश हुआ। अमिताभ की अतिनाटकीयता से वाकिफ होते हुए भी जोखिम ली और पछताया। वास्तविकता यह है कि हिंदी फिल्मों में कथा, पटकथा, संगीत, छायाकारी आदि के मामले में विशुद्ध बाजारू रवैया रहता है। सिनेमाघर में हिंदी फिल्म का संगीत इस तरह सिर पर चढ़ कर बजता है जैसे सिर फोड़ने पर आमादा हो।
फिर भी कभी-कभी खबर रखनी चाहिए कि क्या कुछ चल रहा है। इस बार पहले ‘कमीने’ देखी। फिर भरपूर तारीफ सुनकर ‘थ्री इडियट्स’। बाद में ‘अतिथि तुम कब जाओगे’, ‘एलएसडी’ यानी ‘लव, सेक्स और धोखा’, ‘वेल डन अब्बा’ और देर-दुरुस्त ‘इश्किया’। ‘कमीने’ पिछले वर्ष की फिल्म है। विशाल भारद्वाज की फिल्मों में कसावट के साथ नया अंदाज रहता है, जो हॉल से बाहर आते वक्त दर्शक को बेचैन नहीं करता। ‘इश्किया’ में सिनेमा का विवेक अनुभव होता है। कथानक के अनुकूल छायाकारी, गठे हुए संवाद, सधा हुआ अभिनय, कारगर संगीत। निर्देशक अभिषेक चौबे की यह पहली फिल्म है। विशाल भारद्वाज इसके निर्माता हैं और संगीत, पटकथा-संवादों में भी शरीक रहे हैं। उन्हें सिनेमा की गहरी समझ है, जो ‘मकबूल’ में श्रेष्ठ रूप में सामने आयी। उनका मार्गदर्शन भी चौबे को मिला होगा।
‘एलएसडी’ के निर्देशक दिवाकर बनर्जी दो फिल्मों ‘खोसला का घोंसला’ और ‘ओए लकी लकी ओए’ में अपनी प्रतिभा की झलक दे चुके हैं। लेकिन ‘एलएसडी’ फिल्म जर्मन मूल के फिल्मकार माइकल हेनेके की शैली की नकल है। नकल अपने में बुरी चीज नहीं है। पिकासो ने कहा था, खुद की नकल करने से बेहतर है दूसरे की नकल करना। इसमें आप सीखते हैं; अपनी नकल खुद को वहीं रखती है, जहां पहले थे। ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ शरद जोशी के व्यंग्य से प्रेरित है। साफ, निर्दोष प्रहसन के रूप में देखने के बाद इसे हम भूल सकते हैं।
लेकिन सबसे निराश किया शलाका-पुरुष श्याम बेनेगल की फिल्म ‘वेल डन अब्बा’ ने। अनिल अंबानी के ‘बिग सिनेमा’ के लिए बनायी गयी फिल्म में उन्होंने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया है। गरीबी की रेखा के नीचे दिखाने से लेकर कर्ज की मंजूरी के तिकड़मों को हंसी-मजाक के बीच उन्होंने बखूबी झलकाया है। लेकिन फिल्म धीमी चलती है और कोई नया कोण नहीं देती। यह खयाल सताने लगता है कि यह अंकुर, मंथन, भूमिका या जुनून के निर्देशक की फिल्म है। दुर्भाग्य से बेनेगल शायद मानने लगे हैं कि बाजार में कायम रहने के लिए फिल्म को अब बड़े समझौते करने पड़ते हैं। अंगरेजी में नामकरण तक के।
‘थ्री इडियट्स’ एक बेहतर कॉमेडी हो सकती थी। लेकिन एक तो उपदेशक या शिक्षा सुधार की भंगिमा अख्तियार करते हुए अतिरंजना के घेरे में दाखिल हो गयी। दूसरे, तर्क की वकालत करने वाली फिल्म अतिवादी स्थितियों में घुसती चली गयी। मसलन वैक्यूम क्लीनर के सहारे प्रसव, दुपहिए पर ‘एंबुलेंस’ आदि। फिल्म का संपादन बेहद लचर है। जैसे लेखक खुद अपनी रचना का बेहतर संपादन नहीं कर सकता, राजकुमार हीरानी जैसे प्रतिभावान निर्देशक को अपनी फिल्म का संपादन खुद करने से बचना चाहिए। कुशल संपादन से फिल्म में कसावट आती, अवधि भी कम होती।
इन फिल्मों की समीक्षा करना मेरा मकसद नहीं है, लेकिन गौर करें कि ये फिल्में पूरी तरह हिंदी फिल्मों के दशकों पुराने नाच-गान के फार्मूले पर आधारित नहीं हैं। जबकि आजकल कमोबेश हर फिल्म – ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ सहित – वर्जिश मार्का सामूहिक नृत्य और मशीनी लय वाले झमाझम संगीत से भरी होती हैं। जिन फिल्मों का मैंने जिक्र किया है, उनमें ज्यादातर हास्य-रस के फार्मूले का दोहन करती हैं। पहले हास्य की जगह हाशिये पर होती थी। ‘हाफ टिकट’ से लेकर ‘जाने भी दो यारों’ तक अनेक विशुद्ध रूप से हास्यप्रधान फिल्मों के बावजूद।
लेकिन अब गरीबी और भ्रष्टाचार में भी हास्य की संभावनाएं खोजी जा रही हैं। कहना न होगा, इससे फिल्म में मनोरंजन तो बना रहता है, लेकिन कथ्य की धार को ये कुछ कुंद भी करती हैं। बात के खुलासे के लिए एक उदाहरण दिया जा सकता है : ‘थ्री इडियट्स’ में गरीब मां बेलन से लकवाग्रस्त पति की छाती खुजाती है और केश-सने बेलन से रोटी बेल कर बेटे के दोस्तों को परोसती है। परिवार की दारुण हालत से भौंचक्क दोस्तों को इससे उबकाई आती है। पर दृश्य दर्शकों को हंसाता है। ठीक वैसे, जैसे तीसरे ‘इडियट’ की तकरीर में ‘चमत्कार’ की जगह ‘बलात्कार’ शब्द का अनवरत प्रयोग।
हंसाने के लिए हर चीज को हंसी में नहीं ढाला जा सकता। लगता है हिंदी सिनेमा अपने बचे रहने की जद्दोजहद में सारे हथकंडे आजमा रहा है। इसके बावजूद स्थिति यह है कि एकाध फिल्म को छोड़कर किसी में पचास दर्शक भी नहीं दिखाई दिये। कतार दूर, आगे पीछे दूसरा ग्राहक तक नहीं। भीतर दूर तक खाली सीटें।
सिनेमा ने तकनीक के स्तर पर बहुत तरक्की की है। लेकिन कोई मुकम्मल दिशा उसे अब भी दरकार है। सबसे बड़ा तो विचार या प्रत्यय का टोटा है। महात्मा गांधी के संघर्ष तक को हमारे फिल्मकार तब तक फिल्म के काबिल नहीं समझते, जब तक कोई अंगरेज उन पर सफल फिल्म बना कर न दिखा दे। एटनबरो के बाद जरूर जानू बरुआ से लेकर श्याम बेनेगल तक गांधी को कैमरे में उतार चुके हैं। बीच-बीच में हमें ‘परजानिया’ या ‘फिराक’ जैसी फिल्में देखने को मिल जाती हैं, जो गुजरात के खून-खराबे को भी परदे पर लाने में नहीं झिझकतीं। लेकिन फार्मूलों – चाहे पुराने हों या नये – के भरोसे चलने वाली फिल्मों के समक्ष उनकी तादाद नगण्य है।
इसमें क्या शक कि हालात बहुत बदल गये हैं। भाग-दौड़ और आपाधापी के दौर में सिनेमा के लिए पहले जैसा जुनून और फुरसत लोगों के पास नहीं है। लेकिन उनके पास साधन बढ़े हैं। टीवी ने सिनेमा के बाजार को जिस तरह घेर लिया था, मॉल संस्कृति में मल्टीप्लेक्स उसे छुड़ा लाने की जुगत में हैं। शहरों में सही, सौ-डेढ़ सौ रुपये का टिकट लोग खरीदते हैं। मेरे घर के इर्द-गिर्द ही कोई तीस सिनेमा हॉल हैं। शायद तीस से ज्यादा। दस मॉल हैं। हरेक में तीन, कहीं-कहीं चार सिनेमा हॉल हैं। खरीदारी या तफरीह की चहलकदमी के बीच सिनेमा अपना बाजार फिर खड़ा कर रहा है। लेकिन उसे क्यों लगता है दर्शक हर चीज मनोरंजन की चाशनी में ग्रहण करना चाहता है? दर्शक को आकर्षित करने का जुगाड़ उसे जैसे हिंसा और हंसी में ही नजर आता है। इससे आगे बात जब कभी जाती है – राजनीति, भ्रष्टाचार या डगमग मीडिया को मुद्दा बनाकर – तो उसे इतने स्थूल और अवास्तविक धरातल पर चित्रित किया जाता है कि यथार्थ विद्रूप की शक्ल ले बैठता है।
मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की सीढ़ियां उतरते हुए यही लगता है कि दर्शक की उदासीनता अपनी जगह होगी, सिनेमा की दुनिया में एक बेरुखी-सी छायी है। हमारे नये निर्देशकों में प्रतिभा और ऊर्जा खूब है। तकनीक में हम कहीं पीछे नहीं। समस्या बेहतर कथानक और सलीके की है। या अभिनय में इरफान खान और अक्षय कुमार या नंदिता दास और कैटरीना कैफ की खूबियां-सीमाएं समझने की। उम्मीद ही कर सकते हैं कि नये बाजारों के बीच पनप रहा सिनेमा बेहतर मुकाम हासिल करने का जतन करेगा।
(ओम थानवी का पाक्षिक स्‍तंभ अनंतर। जनसत्ता, 11 अप्रैल 2010 से साभार)

Comments

ओम जी, आज के हिंदी सिनेमा पर आपकी टिप्पणियां यथार्थपरक हैं.सच है मौलिक कहानियां लिखने वालों की कमी है.
संस्मरण चाहे किसी का भी हो मगर है बढ़िया!
थानवी जी के हर लेख में मैं अपने बीकानेर को एक नए कोण से देख लेता हूं...


बस ऐसा ही है मेरा बीकाणा...



दुखद बात यह है कि श्रीगंगाथियेटर पूर्णतया बंद हो चुका है


और रिलायंस के बिग सिनेमाज ने बीकानेर में एक मल्‍टीप्‍लेक्‍स खोल दिया है...

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