धक्के खाकर ही सीखा है संभलना: राजकुमार हिरानी

धक्के खाकर ही सीखा है संभलना: राजकुमार हिरानी

-अजय ब्रह्मात्मज

मुन्नाभाई सिरीज की दो फिल्मों और थ्री इडियट की हैट्रिक कामयाबी के बाद राजकुमार हिरानी को दर्शक अच्छी तरह पहचानने लगे हैं। कामयाबी उन्हें काफी कोशिशों के बाद मिली। नागपुर से पूना, फिर मुंबई के सफर में हिरानी की निगाह लक्ष्य पर टिकी रही और उनका सपना साकार हुआ। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

बचपन के बारे में बताएं?

डैड पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी हैं। देश-विभाजन के बाद मां और भाई के साथ उन्हें भारत आना पडा। दादा जी गुजर चुके थे। कुछ समय तक आगरा के पास फिरोजाबाद के रिफ्यूजी कैंप में रहे। फिर काम खोजते हुए नागपुर पहुंचे। कुछ समय नौकरी करने के बाद उन्होंने एक टाइपराइटर खरीदा, जो तब नया-नया शुरू हुआ था। बाद में वह इंस्टीटयूट चलाने लगे। इसके बाद वह टाइपराइटर के वितरक बन गए। मेरी स्मॉल बिजनेस फेमिली में ज्यादातर लोग वकील हैं। बी.कॉम के बाद मुझसे भी चार्टर्ड एकाउंटेंट बनने की अपेक्षा की गई, लेकिन मेरा रुझान थिएटर की तरफ था। कालेज के दिनों में नाटक लिखता था। आकाशवाणी के युववाणी कार्यक्रम के लिए मैंने नाटक लिखे थे। छोटा सा ग्रुप आवाज भी था।

कैसे नाटक लिखते थे? दिल्ली-मुंबई के गंभीर व्यावसायिक प्रयास जैसे या छोटे शहरों के शौकिया रंगकर्मियों की तरह?

नागपुर में मराठी थिएटर मजबूत था। हर साल महाराष्ट्र नाट्य महोत्सव होता था। हमने मराठी व बांग्ला से नाट्य रूपांतरण किए और नियमित मंचन की कोशिश की। धक्के खाते हुए चलना सीखा हमने, कोई गाइड करने वाला नहीं था। चंद शौकिया लोग जुड गए थे। मराठी रंगमंच के मशहूर निर्देशक किशोर कुलकर्णी से हमने मदद ली।

बचपन में फिल्में देखते थे? थिएटर अकेले जाते थे या पारिवारिक आउटिंग होती थी?

महीने में एक-दो बार शनिवार या रविवार को दादी के साथ फिल्में देखते थे। डैड व्यस्तता के कारण नहीं जा पाते थे। हम दोनों भाई दादी के साथ रिक्शे पर बैठकर घर के करीब बने भारत टाकीज में फिल्म देखते थे।

सिनेमा देखने के अनुभव व प्रभाव के बारे में कुछ बताइए?

हर तरह की फिल्में देखते थे। मैं इतना छोटा था कि जो फिल्म देखता, उसका हीरो ही मेरा आइडॅल बन जाता। मुझे याद है कि नवीन निश्चल की फिल्म देखता था तो मुझे लगता था कि उन जैसा कोई दूसरा हीरो नहीं है। तब आठ-दस की उम्र रही होगी। उस उम्र में तो यही होता है।

बचपन की पहली फिल्म जिसकी छाप रह गई हो?

राज कपूर की संगम याद है। पहली बार तो बहुत अच्छी लगी थी। बाद में हृषिकेष मुखर्जी की आनंद और गोलमाल देखीं। मनमोहन देसाई की फिल्में भी बहुत पसंद आती थीं। नागपुर में व‌र्ल्ड सिनेमा का ज्यादा एक्सपोजर नहीं था। वहां थिएटरों में हिंदी फिल्में लगा करती थीं।

हिंदी फिल्मों का वह पहला हीरो कौन था, जिसे आपने पहचाना और जिससे नजदीकी महसूस की?

स्कूल में था तो अमिताभ बच्चन हमारे हीरो थे। हम दोस्त साथ-साथ साइकिल पर स्कूल जाते थे। हमारी चाल-ढाल अमिताभ जैसी होती थी। अचानक लगता था कि हम भी गहरी आवाज में बातें कर रहे हैं। उनके जैसे कपडे पहनते थे।

अमिताभ की एक फिल्म देखने के बाद मैं टेलर के पास गया और कहा कि उनके टाइप की शर्ट चाहिए। नागपुर में एक टेलर था, जो फिल्म देखकर शर्ट बनाने में माहिर था। मुझे वह फिल्म भी याद है। राखी, अमिताभ और विनोद मेहरा की फिल्म बेमिसाल थी। उसमें अमिताभ ने जो शर्ट पहनी थी, वह हम कई दोस्तों ने सिलवाई थी।

फिल्मों में क्या अच्छा लगता था? फिल्म क्यों देखते थे?

फिल्म का आनंद उठाना ही उद्देश्य होता था। दोस्तों के साथ मौज-मस्ती के लिए कोई भी बहाना ढूंढते थे। एक दिन बारिश हो रही थी तो मैंने कहा कि मौसम अच्छा है, आज फिल्म देखते हैं। मम्मी से कहा कि फिल्म देखने जा रहा हूं। बाहर निकला तो चाचा जी सामने पड गए। उन्होंने फिल्म देखने का कारण पूछा तो मैंने कहा कि मौसम अच्छा है। उन्होंने पलट कर कहा कि मौसम अच्छा है तो मौसम का आनंद लो। नागपुर में अच्छी फिल्मों के शो सुबह सात बजे भी होते थे। मैंने कुर्बानी फिल्म ब्लैक में टिकट लेकर सुबह सात बजे वाले शो में देखी।

किशोर उम्र में फिल्में देखना तो सबको भाता है। लेकिन फिल्मों में जाने का खयाल कब आया?

थिएटर के दिनों में ही लगा कि फिल्मों में जाना चाहिए। घर वालों को कुछ समय तक मेरी बात खटकी, लेकिन डैड ने समर्थन दिया। नागपुर में फिल्म का मतलब सभी को यही समझ आता था कि एक्टर बनना चाहता है। कोई डायरेक्टर भी बन सकता है, यह बात समझ से परे थी। मगर डैड ने पूरी आजादी दी। उन्होंने ही पूना फिल्म इंस्टीट्यूट जाने की सलाह दी। मैं तो मुंबई जाने और काम करने के बारे में सोच रहा था।

फिल्म इंडस्ट्री में कोई जान-पहचान थी?

मुंबई तो मैं गया था, लेकिन इंडस्ट्री में कोई कनेक्शन नहीं था। डैड ने कहा कि फिल्मों में जाना है तो ट्रेनिंग लूं। डायरेक्शन के लिए आवेदन किया तो एडमिशन नहीं मिला। किसी ने सलाह दी कि एडिटिंग में आवेदन करूं, क्योंकि डायरेक्शन में दो हजार लोग होते हैं तो एडिटिंग में पांच-छह सौ लोग ही आवेदन करते हैं। वहां चांस ज्यादा है। एडमिशन हो गया और इससे मदद भी मिली। पहले कहानी लिखता था, फिर एडिटिंग सीखी, इससे डायरेक्शन में भी लाभ हुआ। नागपुर से इंस्टीट्यूट जाने वाला मैं पहला व्यक्ति था।

यह किस साल की बात है?

1984 से 1987 तक मैं फिल्म इंस्टीट्यूट में था। एडमिशन मिलने पर लगा कि तीन साल ट्रेनिंग लेकर निकलेंगे तो लाइफ सेट हो जाएगी। इंस्टीट्यूट पहुंचने के सात दिनों के अंदर पता चल गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। दुनिया नहीं बदलेगी। अभी तो हम सीख रहे हैं। इंस्टीट्यूट से निकलने के बाद और भी बहुत कुछ सीखना होगा। माहौल बौद्धिक किस्म का था। थोडी छद्म बौद्धिकता भी थी। ऊपर से स्ट्राइक हो गई और हमें घर लौटना पडा। मैं थोडा डिप्रेशन में आ गया था। 20-25 दिन के बाद टेलीग्राम आया कि वापस आ जाओ। वापस पहुंचा तो मृणाल सेन का घेराव चल रहा था। वे गवर्निग काउंसिल के मेंबर थे। पुलिस आई और घेराव पर बैठे सभी छात्रों को गिरफ्तार करके ले गई। मैं सोचने लगा कि कहां फंस गया। आया था फिल्म बनाने और पुलिस स्टेशन में बैठा हूं। बाद में जब पढाई शुरू हुई और काम सीखा, तब जाकर मेरा आत्मविश्वास लौटा।

पुणे से मुंबई का सफर कब किया? शुरू में दिक्कतें आई?

इंस्टीट्यूट में मैंने एट कॉलम अफेयर डिप्लोमा फिल्म बनाई थी। श्रीराम राघवन डायरेक्टर थे। हरिनाथ कैमरामैन व मैं एडीटर था। फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला। इसके बाद मैं घर चला गया। हमें बताया गया था कि एक विडियो कोर्स होने वाला है। एक महीने बाद लौटा तो पता चला कि कोर्स अब नहीं होगा। सामान कमरों से निकाल कर गोदाम में रख दिया गया था। स्टूडेंट्स जा चुके थे। मुझे किसी ने खबर नहीं की। मुझे याद है कि मैं पूरे दिन कैंपस में बैठा रहा। इंस्टीट्यूट को घर समझता था, अचानक वहां असहाय हो गया। दुविधा में था कि मुंबई जाऊं या नागपुर? सोचा मुंबई जाना है तो अभी चलते हैं। बाकी सामान वहीं छोडकर बैग उठाया और मुंबई श्रीराम राघवन के घर आया। सुबह-सुबह उनके घर की घंटी बजाई। श्रीराम ने दरवाजा खोला तो मुझे देख कर हंसने लगा। काफी बक-झक के बाद अंदर गया तो देखा कि वहां मेरे तीन बैचमेट सोए थे।

उन आरंभिक दिनों के बारे में कुछ बताएं?

सुबह होते ही सिक्कों की आवाज आने लगती थी। सभी एक-एक रुपये के सिक्के लेकर नीचे जाते थे। घर में फोन नहीं था, बूथ पर जाकर हम सब लाइन में लगते थे। फिल्मों की एक डायरेक्ट्री होती थी। उसमें नंबर देखकर फोन करते। मन में यही लगता था कि कहां फंस गया यार। मैं भी सबकी तरह सिक्के लेकर नीचे जाने लगा। पहले फोन मिलाते थे, फिर लोगों से जाकर मिलते थे। संयोग से मुझे पहले हफ्ते ही पहला काम मिल गया। कुछ पैसे मिले। उसके बाद छह महीने तक काम नहीं मिला। इस बीच इंस्टीट्यूट में दो महीने का विडियो कोर्स हुआ। वहां से लौटकर आया तो रणनीति बदली। हमें पता था कि काम में अच्छे हैं, लेकिन किसी को विश्वास नहीं था। मैंने सांताक्रुज में एकता स्टूडियो जॉइन करके छोटा सा ग्रुप बना लिया। तब विडियो की टेक्नोलॉजी शुरू हुई थी। लो बैंड में एडिटिंग होती थी। यह 1988 की बात है।

स्ट्रगल के दौरान निराशा हुई? ऐसा लगा कि पता नहीं फिल्म मिले या न मिले?

ऐसा कुछ नहीं लगा कि स्ट्रगल कर रहे हैं। एकता विडियो में मुझे बारह सौ रुपये मिलते थे। छिटपुट टीवी व सीरियल का काम भी होता था। कॉन्टेक्ट बनने शुरू हुए। लोगों को काम पसंद आता था। तभी एक फीचर फिल्म भी एडिट की। अनंत बलानी ने जज्बात नाम की फिल्म प्रोड्यूस की थी। यह चली नहीं तो उसके पैसे नहीं मिले। दूसरी फिल्म जॉय ऑगस्टीन की थी। वह बीच में ही रुक गई। एडवर्टाइजिंग के लोगों से मिला। वे टिपिकल फिल्मी लोग नहीं थे, अच्छे लोग थे। उनके साथ मैं एड फिल्में करने लगा। फिर एड फिल्मों का डायरेक्टर बन गया। बाद में गुड वर्क नाम से एड फिल्मों की प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। उसी समय विधु विनोद चोपडा की मिशन कश्मीर मिली।

डायरेक्टर बनने का सपना कैसे बचा रहा?

नागपुर से चला था तो मालूम भी नहीं था कि एड फिल्में क्या होती हैं? जब फिल्म इंस्टीट्यूट गए, टेलीविजन भी नहीं आया था। मन में इच्छा थी कि फिल्में करनी हैं, लेकिन सही दरवाजा नहीं मिल रहा था। मिलना-जुलना मुश्किल था। फीचर फिल्म में एक्सपोजर उतना अच्छा नहीं था। विनोद से मिला तो कुछ मजा आया। कुछ लोग पैसों के लिए फिल्म बनाते हैं और कुछ मजे के लिए। इंस्टीट्यूट में फिल्म बनाते समय मजा आता था। बाद में ऐसा मजा मुन्नाभाई के समय मिला।

मिशन कश्मीर के बाद कैसे बात बनी? विनोद ने सुझाव दिया या आपने आग्रह किया?

लिखने की आदत बनी रही। मेडिकल कॉलेज के तीन स्टूडेंट्स को लेकर मैंने कहानी लिखी थी। नागपुर के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में कई दोस्त थे। कैंपस में आना-जाना रहता था। वहां कुछ नोट्स लिए। उसी को जोड रहा था। कहानी में कई रोचक सीन थे, लेकिन कहानी नहीं बन पा रही थी। सीन पढने पर मजा आता था। फिर दूसरी कहानी लिखी बाबूजी धीरे चलना। उसमें एक मरीज मरकर भूत बनकर आता है और अपने साथ घटी घटनाओं के बारे में बताता है। वह मेडिकल सिस्टम पर एक टिप्पणी थी। कहानी बेहतर हुई, फिर भी रियल नहीं लग रही थी। एक दिन खयाल आया कि अगर एक भाई मेडिकल कॉलेज में आ जाएगा तो क्या होगा? उसके जरिये हम टिप्पणी भी कर सकते हैं। कहानी लिखने के बाद मैंने विनोद को सुनाई, उन्हें कहानी पसंद आई। तब तक वे सिर्फ आश्वासन दे रहे थे, लेकिन किसी से मिलवा नहीं रहे थे। मैं असमंजस में था। जब उन्हें पता चला कि मेरे पास सिर्फ प्रोड्यूसर नहीं है तो उन्होंने कहा कि इस फिल्म को वही प्रोड्यूस करेंगे।

फिल्म में पहले शाहरुख खान के बारे में सोचा गया था?

यह सुझाव विधु विनोद चोपडा ने ही दिया था। मैं तो बहुत खुश था कि उनके साथ फिल्म करूंगा। वह देवदास की शूटिंग कर रहे थे। उनसे मिलने गया। उन्होंने मुझसे कहा कि स्क्रिप्ट छोड दूं, अगले दिन फोन करेंगे। मुझे लगा, वह कहां फोन करेंगे, लेकिन दूसरे ही दिन उन्होंने फोन करके बताया कि उन्हें स्क्रिप्ट अच्छी लगी। इसके बाद एक महीने तक मैं उनसे मिलता रहा, उनसे बहस चलती रही। मुझे लगा कि स्क्रिप्ट पसंद आने के बावजूद वे मुझे परख रहे थे। सोच रहे होंगे कि ये है कौन? एक महीने के बाद उन्होंने हां किया।

..जबकि विधु विनोद चोपडा का नाम आपसे जुडा था?

आदमी सोचता है कि डायरेक्टर कौन है और शाहरुख तो सुपर स्टार थे। क्यों काम करें किसी नए डायरेक्टर के साथ। फिर उनकी गर्दन में तकलीफ हुई। वे ऑपरेशन करवाने चले गए। तब संजय दत्त का नाम सामने आया। फिल्म शुरू हुई तो लगा कि इस रोल को उनसे अच्छा कोई नहीं कर सकता। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ। विश्वास था कि विनोद मेरे साथ हैं तो यह फिल्म जरूर बनेगी।

किन लोगों का प्रभाव आप पर है? एक तो विधु विनोद हैं, बाकी कौन हैं?

हृषिकेश मुखर्जी की सारी फिल्में मैंने देखी हैं। वे मुझे अच्छे लगते हैं। पिछले दिनों आनंद की बात निकली तो मैंने पूरी कविता सुना दी। मुझपर गुलजार साहब का भी प्रभाव रहा है। निजी तौर पर विनोद से मिलने के बाद ढेरों बातें समझ में आई। फिल्म से ज्यादा जीने का अंदाज उनसे सीखा। वह गैरफिल्मी व्यक्ति हैं, साफ दिल व ईमानदार, लेकिन थोडे मिसअंडरस्टुड हैं, क्योंकि वह दो टूक बोलते हैं। उनसे मैंने एटीट्यूड सीखा।

मुन्नाभाई के दौर में अलग ढंग की कमर्शियल फिल्में चल रही थीं। जमाने के साथ चलने के बारे में नहीं सोचा आपने?

मुन्नाभाई रिलीज होने के बाद एक बार एन. चंद्रा से मुलाकात हुई तो उन्होंने बधाई देते हुए कहा कि अगर आप यह स्क्रिप्ट लेकर मेरे पास आते तो मैं ऑफिस से भगा देता, बोलता कि अस्पताल, मरीज और डॉक्टर को कौन देखेगा? फिल्म में कमर्शियल एलिमेंट तो है नहीं, लेकिन फिल्म देखने के बाद लगा कि जो दिल को अच्छा लगे, वही करना चाहिए। इससे मेरा विश्वास बढा। हम दूसरों की पसंद के बारे में नहीं जानते, लेकिन हम अपनी पसंद के अनुसार बेहतर काम कर सकते हैं।

पहली फिल्म में बहुत धैर्य का परिचय दिया आपने। लोगों को दिखता है कि हिरानी पहली फिल्म से ही सफल हो गए, लेकिन उनके पहले के संघर्ष के बारे में लोग नहींजानते।

मैंने पहले ही कहा कि मुझे कभी स्ट्रगल करने जैसा अनुभव नहीं हुआ। हम पुराने दिनों के बारे में नॉस्टैल्जिक हो सकते हैं कि कैसे एक कमरे में तीन लोग साथ रहा करते थे, लेकिन संघर्ष जैसा कुछ था नहीं। पहले श्रीराम राघवन के घर रहा, फिर एक गुजराती परिवार में पेइंग गेस्ट के तौर पर रहा। तब यही काफी लगता था कि एक कमरा अपना हो जाए तो अकेले रह सकते हैं। फोन पर बात करने में दिक्कत होती थी। गुजराती वृद्ध दंपती के सामने खुल कर बातें नहीं कर पाता था। इंस्टीट्यूट से होकर आने से फायदा यह हुआ कि मुंबई में शुरू से ही सपोर्ट सिस्टम मिल गया। हम हमेशा एक-दूसरे की मदद करते हैं।

आपकी तीनों फिल्मों को सराहना और कामयाबी मिली, फिर भी आपके भीतर कोई गुमान नहीं दिखता?

अभी मैंने हासिल ही क्या किया है? हिंदी फिल्मों का इतिहास पलट कर देख लें, एक से एक दिग्गज मिलेंगे। मैं तो सीखने की प्रक्रिया में ही हूं अभी। यही कोशिश करता हूं कि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन कर सकूं।

Comments

सुंदर बातचीत के लिए आभार.
Thnx Ajay ji for this Interview, i m grt fan of Raj Kumar Ji Hirani's art, i m glad tha u showed his life's till date journey,
hope i too meet you & Him soon,
I m glad that my works ( Paintings) are published in th same issue of Sakhi.
Itney saath ki shuruwaat hai..to aagee saath aur badhega !
SHRI RAM SHOP said…
अच्‍छा लगा पढकर, मैं ि‍हरानी जी का फैन हूं, उनकी सभी ि‍फल्‍में अच्‍छी लगती हैा
Rangnath Singh said…
सुंदर और प्रभावी बातचीत।
Anonymous said…
Ajay Bhai ! thanks for sharing interesting & inspiring journey with Rajkumar Hirani ji.I m gr8 fan of Raju ji. .best wishes to both of you..
Unknown said…
Hirani ji ka interview deka bade achche sabbhaw ke hai hirani ji
Hirani ji main bhi is line me aana
chahata hu kripa help kare.
Unknown said…
Rajkumar Hirani ye naam mere life me bahot maine rakhta hai. quki apke liye muze itni khubsurt filme dekhne mili. apne mera film dekhneka najriya badal diya hai. apne meri apekhaye bahot badha di hai isliye muze har vakt dar rehta hai. ki apkin anevali film pahli filmose low na ho. Sir apko mai filmo ka GOD manta hu. is tarah anevali har filme superduper hit ho yahi ishwar se prarthna hai. I Love u Sir

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को