फिल्‍म समीक्षा :आयशा

-अजय ब्रह्मात्‍मज

सोनम कपूर सुंदर हैं और स्टाइलिश परिधानों में वह निखर जाती हैं। समकालीन अभिनेत्रियों में वह अधिक संवरी नजर आती हैं। उनके इस कौशल का राजश्री ओझा ने आयशा में समुचित उपयोग किया है। आयशा इस दौर की एक कैरेक्टर है, जिसकी बनावट से अधिक सजावट पर ध्यान दिया गया है। हम एक ऐसे उपभोक्ता समाज में जी रहे हैं, जहां साधन और उपकरण से अधिक महत्वपूर्ण उनके ब्रांड हो गए हैं।

आयशा में एक मशहूर सौंदर्य प्रसाधन कंपनी का अश्लील प्रदर्शन किया गया है। कई दृश्यों में ऐसा लगता है कि सिर्फ प्रोडक्ट का नाम दिखाने केउद्देश्य से कैमरा चल रहा है। इस फिल्म का नाम आयशा की जगह वह ब्रांड होता तो शायद सोनम कपूर की प्रतिभा नजर आती। अभी तो ब्रांड, फैशन और स्टाइल ही दिख रहा है।

जेन आस्टिन ने 200 साल पहले एमा की कल्पना की थी। राजश्री ओझा और देविका भगत ने उसे 2010 की दिल्ली में स्थापित किया है। जरूरत के हिसाब से मूल कृति की उपकथाएं छोड़ दी गई हैं और किरदारों को दिल्ली का रंग दिया गया है। देश के दर्शकों को आयशा देख कर पता चलेगा कि महानगरों में लड़कियों और लड़कों का ऐसा झुंड रहता है, जो सिर्फ शादी, डेटिंग, पार्टी और पिकनिक के बारे में सोचता है। हर मौके पर स्टाइलिश कपड़े पहनता है। बागवानी भी करता है तो हाथ में दस्ताने होते हैं। ऐसे समाज का यूथ इमोशनली कंफ्यूज है। वह अपने बारे में सही वक्त पर सही फैसला नहीं ले पाता। सारी आजादी और सुविधा के बावजूद उसे सीढ़ी पर चढ़कर बालकनी में खड़ी लड़की से प्यार का इजहार करना पड़ता है। हम रोमांचित होते हैं- हाउ रोमांटिक। दूसरे तरीके से सोचें और देखें तो सब बकवास जान पड़ेगा। क्या संभ्रांत और अमीरों की दुनिया सचमुच इतनी खोखली और नकली हो चुकी हैं? इमोशन तक कृत्रिम हैं। आयशा एक लव स्टोरी है, लेकिन फिल्म में प्यार के क्षण ही नहीं आ पाते।

फिल्म की पटकथा ढीली है। घटनाएं इतनी कम हैं कि दृश्य लंबे और खींचे हुए लगते हैं। इंटरवल के पहले कहानी आगे ही नहीं बढ़ती। इंटरवल के बाद जोडि़यां बननी शुरू होती हैं तो कहानी धीमी रफ्तार से आगे खिसकती है। इसके अलावा प्रोडक्ट ब्रांड और स्टाइल दिखाने पर जोर होने की वजह से किरदारों के विकास और निर्वाह पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। पूरी फिल्म रैंप शो का विस्तार लगती है। लगे हाथ मिडिल क्लास पर तरस भी खा लिया गया है। सोनम कपूर और अभय देओल पटकथा की सीमाओं के बावजूद उम्दा प्रदर्शन करते हैं। सहयोगी कलाकार भी सक्षम हैं। शेफाली की भूमिका में अमृता पुरी की मिडिल क्लास हरकतें और बातें नैचुरल लगती हैं। फिल्म का गीत-संगीत अवश्य ही मधुर और उपयुक्त है। अमित त्रिवेदी हमेशा की तरह कुछ नई ध्वनियां लेकर आए हैं।

रेटिंग- ढाई स्टार


Comments

अजय जी, बहुत निष्पक्ष ढंग से की है आपने यह समीक्षा।----------------------------------- "लमही" पत्रिका के जुलाई---सितंबर 10 अंक में चन्द्र प्रकाश जी से की गयी आपकी बातचीत भी पढ़ी। हिन्दी सिनेमा को लेकर काफ़ी सार्थक और समसामयिक प्रश्न उठाये हैं आपने। हार्दिक शुभकामनायें।
इमोशन कृत्रिम ही हो गए हैं अजय जी..आपने जैसा लिखा है वैसा ही दिखाई पड़ता है ज्यादातर कॉलेज के स्टुडेंट्स में..एक बात यही चलती रहती है कि यू नो वाट ही/शी सेड लाइक दिस, आह हाउ रोमांटिक! बाकी फिल्म देखने का प्लान था लेकिन अब शायद ही जाऊं.

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