महिला दिवस: औरत से डर लगता है

-अजय ब्रह्मात्‍मज

उनके ठुमकों पर मरता है, पर ठोस अभिनय से डरती है फिल्‍म इंडस्‍ट्री। आखिर क्या वजह है कि उम्दा अभिनेत्रियों को नहीं मिलता उनके मुताबिक नाम, काम और दाम...

विद्या बालन की 'द डर्टी पिक्चर' की कामयाबी का यह असर हुआ है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिला प्रधान [वीमेन सेंट्रिक] फिल्मों की संभावना तलाशी जा रही है। निर्माताओं को लगने लगा है कि अगर हीरोइनों को सेंट्रल रोल देकर फिल्में बनाई जाएं तो उन्हें देखने दर्शक आ सकते हैं। सभी को विद्या बालन की 'कहानी' का इंतजार है। इस फिल्म के बाक्स आफिस कलेक्शन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। स्वयं विद्या बालन ने राजकुमार गुप्ता की 'घनचक्कर' साइन कर ली है, जिसमें वह एक महत्वाकांक्षी गृहणी की भूमिका निभा रही हैं। पिछले दिनों विद्या बालन ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, 'मैं हमेशा इस बात पर जोर देती हूं कि किसी फिल्म की कामयाबी टीमवर्क से होती है। चूंकि मैं 'द डर्टी पिक्चर' की नायिका थी, इसलिए सारा क्रेडिट मुझे मिल रहा है। मैं फिर से कहना चाहती हूं कि मिलन लुथरिया और रजत अरोड़ा के सहयोग और सोच के बिना मुझे इतने पुरस्कार नहीं मिलते। मुझे इतना क्रेडिट दिया जा सकता है कि मैंने मिले हुए मौके को नहीं गंवाया और उनके गढ़े किरदार को पर्दे पर उतारा। अभी लोग मुझसे पूछते हैं कि आगे क्या करूंगी? उम्मीद है कि लेखक और निर्देशक मेरे लिए फिल्में लिख रहे होंगे। मुझे फिल्में मिलती रहेंगी।'

महिला प्रधान फिल्मों की हमारी सामान्य धारणा हिंदी फिल्मों से ही बनी हुई है। अगर किसी फिल्म में महिला किरदार थोड़ा मजबूत और स्वतंत्र स्वभाव का दिखे तो हम उसे महिला प्रधान फिल्म की संज्ञा दे देते हैं। पैरेलल सिनेमा के दौर में इसी आधार पर हम मानते रहे कि महिला प्रधान फिल्में बन रही हैं। कुछ महिला निर्देशको की फिल्में नारी अस्मिता के सवालों को उठाती नजर आई, लेकिन समय के साथ कमशिर्यल सिनेमा ने सभी को निगल लिया। फिल्मों में महिलाओं को फिर से नाचने-गाने या शो पीस की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा। श्याम बेनेगल साफ शब्दों मे कहते हैं, 'समाज में महिलाओं की जैसी स्थिति रहेगी, वैसा ही चित्रण फिल्मों में देखने को मिलेगा। अगर किसी साहसी महिला पर कोई फिल्म आयी है तो वह एक अपवाद होता है। सामान्य फिल्मों में महिलाओं के चित्रण से आप तय करें कि कोई निर्देशक उन्हें कितना महत्व देता है।' फेमिनिस्ट फ्रिक्वेंसी नामक वेबसाइट चला रहीं अनिता सरकीसियन मीडिया और मूवी में महिलाओं के चित्रण का सिलेसिलेवार अध्ययन करती हैं। किसी भी फिल्म को महिला प्रधान कहने के पहले वे बेकडेल टेस्ट करने की बात कहती हैं। बेकडेल टेस्ट में तीन टेस्ट हैं।

1. क्या उस फिल्म में दो महिला किरदार हैं और उनके नाम भी हैं

2. क्या दोनों महिलाएं आपस में बात करती हैं?

3. क्या उनकी बातचीत में मर्दों के अलावा दूसरे मुद्दे भी रहते हैं।

किसी फिल्म और रचना में इन तीन टेस्ट के जरिए महिलाओं के महत्व को आंका जा सकता है। हिंदी की ज्यादातर कथित महिला प्रधान फिल्में इस टेस्ट पर खरी नहीं उतरेंगी। हिंदी फिल्मों में हमेशा से पुरुष प्रधानता रही है। 'द डर्टी पिक्चर' समेत अधिकांश फिल्मों में पुरुषों के दृष्टिकोण से ही महिलाओं का चित्रण रहता है। एक महिला निर्देशक ने जोर देकर कहा कि कि अगर इस फिल्म की निर्देशक कोई महिला रहती तो सिल्क आत्महत्या नहीं करती। वह इमरान हाशमी और नसीरूद्दीन शाह को उनकी औकात पर ले आती। अनुराग कश्यप की फिल्म 'देव डी' में शादीशुदा पारो देव के साथ हमबिस्तर होती है और फिर कहती है कि मैं तुम्हें तुम्हारी औकात बताने आई थी।

प्रियंका चोपड़ा सोलह साल की उम्र से काम कर रही हैं और हिंदी फिल्मों में खास स्थान रखती हैं। महिला प्रधान फिल्मों और हीरो से बराबरी के सवाल पर कहती हैं, 'हम लाख प्रयत्न कर लें, लेकिन हमें हीरो का दर्जा नहीं मिल सकता। मुझे अपनी स्थिति मालूम है। ज्यादा कुछ सोचकर निराश होने की जरूरत नहीं है। मुझे मालूम है कि हीरो के बराबर मुझे पैसे नहीं मिल सकते।' समान पारिश्रमिक की बात पूछने पर विद्या बालन हंसने लगती हैं, 'क्या बात करते हैं? मेरे बारे में लिखा जा रहा है कि मैं सात करोड़ की मांग कर रही हूं। ऐसा हो सकता है क्या? अगर मुझे सात करोड़ मिलेंगे तो हीरो की फीस 30 से 70 करोड़ के बीच होगी।' क्या महिला समुदाय की सदस्य होने के नाते इस असमानता पर उन्हें गुस्सा नहीं आता? 'नहीं आता, खुद को समझा लिया है। एक कंडीशनिंग हो जाती है।' कहती हैं विद्या बालन। इस कंडीशनिंग को अन्य अभिनेत्रियों ने भी भिन्न शब्दों में स्वीकार किया।

हीरो-हीरोइन के महत्व, सम्मान और पारिश्रमिक का यह फर्क हिंदी फिल्मों की शुरुआत से चला आ रहा है। समाज के दूसरे क्षेत्रों में कार्य और पारिश्रमिक के अनुपात में समानता सी दिखती है, लेकिन हिंदी फिल्मों में ऐसी समानता अभी एक सपना है।

नई अभिनेत्रियों में माही गिल अपनी अदाकारी और स्वतंत्रता के लिए पहचानी जाती हैं। महिला प्रधान फिल्मों के प्रसंग में उनकी राय है, 'महिला किरदारों को लेकर नए निर्देशक संवेदनशील हैं। अपने छोटे अनुभव में मैंने देखा कि अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया समाज में औरतों के महत्व को समझते हैं। सबसे बड़ी बात है कि वे खुद औरतों की इज्जत करते हैं। मैं फिल्में चुनते समय थोड़ा ख्याल रखती हूं कि अपने किरदारों की अहमियत देख लूं।'

करीना कपूर महिला प्रधान फिल्मों की अलहदा कैटगरी के सवाल को सिरे से खारिज कर देती हैं। अपनी राय देते हुए वह कहती हैं, 'मैं ऐसे नाम और भेद में यकीन नहीं करती। मैं हर तरह की फिल्में करती हूं। मैंने 'चमेली' और 'ओमकारा' जैसी फिल्में कीं, लेकिन मुझे 'गोलमाल' और 'बॉडीगार्ड' करने में भी दिक्कत नहीं होती। मेरा काम हर प्रकार के दर्शकों को खुश रखना है।'

हिंदी फिल्मों में दुर्भाग्य की बात है कि गंभीर और उम्दा अभिनेत्रियों को अधिक काम नहीं मिलते। अगर किसी ने अपनी दक्षता साबित कर दी तो उसे दरकिनार कर दिया जाता है। शबाना आजमी, तब्बू, विद्या बालन जैसे अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं। इन्होंने मिले अवसरों का उचित उपयोग कर अपनी योग्यता साबित की। इसके बावजूद इन सभी अभिनेत्रियों को पर्याप्त अवसर नहीं मिलते। याद करें कि आपने आखिरी बार तब्बू को पर्दे पर कब देखा था?

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इतिहास कहता है कि असमानता सदा रही है..पर धीरे धीरे मिटनी चाहिये..

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