‘हैदर’ कविता नहीं, कथा और कथेतर गद्य का आर्टपीस है - दुष्‍यंत

Dush Yant-      दुष्यंत

(घोर नेशनलिस्ट समय में मानववादी होने के अपराध की सजा विशाल को मिलनी ही चाहिए)
 


'हैदर' देखना हुआ। विशाल भारद्वाज की शेक्सपीयर TRIOLOGY में इसे क्रम (order) ही नहीं , पसंद (choice) में भी तीसरा दर्जा दूंगा। मेरी पहली पसंद 'मकबूल' ही रहेगी।
हमपेशा- बशारत पीर ने हैदर की पटकथा में कश्मीर मसअले को पत्रकारीय प्रामाणिकता से प्रस्तुत किया है। और इस तरह कायदे से हैदर जितनी विशाल की है उतनी ही बशारत पीर की भी। फिल्म के एक दृश्य में बशारत पीर दिखते हैं, जब इरफान उनकी ही तलाशी लेकर उनके अपने ही घर में घुसाते हैं, यह कहते हुए कि कश्मीर में लोग तलाशी के इतने आदी हो गए हैं कि अपने घर में भी बिना तलाशी घुसने में डरते हैं और दरवाजे पर खड़े रहते हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में डिग्गीपुरी की चाय के कुल्हड़ पर उनसे हुई चर्चा से ऐसा अंदाजा हो गया था कि कश्मीर में जीते रहते हुए और पत्रकार के तौर पर काम करते हुए उनकी समझ कितनी गहरी है। बशारत पीर का जमीनी सचाइयों से वाकिफ होना और पटकथा में पिरो देना फिल्म की जितनी बडी ताकत है, उतनी ही बडी ताकत है उन सचाइयों को पर्दे पर उतारने का विशाल का साहस कि उन्हेंएंटी-नेशनलकहा जा सकता है, घोर नेशनलिस्ट समय में, जब मानववादी होना भी अपराध होता है। और इस तरह मानववादी होने के अपराध की सजा विशाल को मिलनी ही चाहिए।
अलीगढ़ से पढ़कर लौटे नायक हैदर का अपने जले हुए घर में आना गुरुदत्त की 'साहब, बीवी और गुलाम' के ध्वस्त हवेली वाले आखिरी दृश्य की याद दिलाता है। गुलजार साहब अपनी ठसक और धमक के साथ हैं अस्सी पर नॉट आउट। पर बीस मिनट का गाना 'बिस्मिल' !! थोड़ी ज्यादती सी हो जाती है ना दर्शकों के साथ!! तब्बू हमेशा से पसंद हैं, इसमें भी वे उतनी ही जाहिर, उतनी ही छुपी हुई अदाकारा के रूप में अपना असर छोड़ जाती हैं। मेरी नासमझी हो सकती है पर मेरी नजर में फिल्म में इस्तेमाल किए गए बचकाने से मैटाफर कमजोर कड़ी हैं, सिवाय शाहिद के एक चौक पर मोनोलॉग वाले दृश्य के। 
मैं तार्किक संगति खोजता रह गया कि फैज अहमद फैज के प्रशंसक पिता कैसे इंतकाम का दर्शन जी सकते हैं और उसे अपने पुत्र को दे सकते हें... 'ब्रिटिश भारत के क्रांतिकारी उर्दू कवियों' पर शोध करने वाला उनका वह पुत्र क्रांति और निजी इंतकाम के फासले को मिटाकर अस्सी के दशक के हिंदी सिनेमाई नायक की तरह इंतकाम की आग में जलकर सब स्वाहा करने को तत्पर हो जाता है और तब तक चैन नहीं लेता जब तक 'मैं हूं कि मैं नहीं' के सवाल का हिंसक जवाब नहीं पा लेता।
हैदर का पाठ सरल नहीं है। हैदर कश्मीर को लेकर गैर भारतीय पक्ष अथवा  भारत सरकार के पक्ष से इतर पक्ष को भी उसी ईमानदारी से रखती है, पर बिना जजमेंटल हुए, यही एक कला माध्यम की ताकत और सीमा होती है, अपेक्षा भी। एक संवाद में डिसअपीयर्ड लोगों की बात में केवल एक वाक्य किडिसबपीयर्ड तो कश्मीरी पंडित भी हैंपूरी ताकत के साथ आता है और सन्नाटे तथा बर्फबारी के बीच दर्शक के रूप में आपके कानों से धुआ निकाल कर चला जाता है। अक्सर प्रशंसा में किसी आर्टपीस को कविता कहने की परंपरा है, मेरी नजर में हैदर कथा और कथेतर द्य का आर्टपीस है।
कश्मीर और पूरे भारतीय उपमहाद्धीप के 1948 से लेकर आज तक के इतिहास की कुछ गलियों में आंशिक सा विचरण करती फिल्म यह ताकीद करती है कि इतिहास कभी पीछा नहीं छोडता, उससे आप मुंह भी नहीं मोड सकते, पर इतिहासकार रजनीकांत पंत के शब्दों में 'उस पर गर्व और अफसोस या शर्म दोनों ही बेमानी हैं' और लिहाजा भविष्य के लिए उस गर्व और अफसोस या शर्म की दोनों अनुभूतियों से निकलकर कोई रास्ता निकालना ही बेहतर होता है। जैसे मेरे प्रिय इतिहासकार ईएच कार मानते हैं कि वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखन तो लगभग असंभव है, हर इतिहासकार अपनी नजर से, अपने देशकाल से प्रभावित होकर ही इतिहास लिखता है, और उसे इतनी मोहलत दी ही जानी चाहिए वैसे ही कैमरे से राजनीतिक या समस्यामूलक कथात्मक इतिहास लिखने में भी वस्तुनिष्ठता की उम्मीद करना मानवीय उपस्थिति को उपेक्षित करना होगा। पर विशाल प्राय: अनदेखे किए जाने वाले पक्षों को भी अपने कैमरे की आंख से देखते हैं, और आंख से आंख मिलाकर बिना निर्णय देते हुए देखते हैं तो यकीनन काबिले तारीफ है और काबिले रश्क भी।
बहरहाल, विशाल अपने आत्मघाती दुस्साहस के लिए सेल्यूट के हकदार हैं। 
यूं सबकी अपनी पसंद और समझ है पर मुझे लगता है कि एडाप्टेशन पुराने खूबसूरत मकानों के इंटीरियर बदलने जैसा काम है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शेक्सपीयर के एडाप्टेशन की Triology के रचनात्मक सुख को प्राप्त करने के बाद विशाल भारद्वाज अब कुछ नए खूबसूरत मकान भी बनाएंगे। आमीन !

Comments

deepak gera said…
Gud one bhai..
sanjeev5 said…
आपका अंदाज़े बयां अच्छा है. ये फिल्म आपने ठीक कहा सबसे निचली पायेदान पर है....बेहद बचकानी फिल्म जिसमे मुद्दों को बड़ी ही न समझी से पेश किया है....जल्दी क्या थी...लोग मटरू की बिजली पर पैसा खराब कर ही चुके थे....और सात खून माफ़....बाप रे बाप. एक कहानी जो जग जाहिर है उसे और बे उबाऊ अंदाज़ में फिल्माने के लिए हिम्मत चाहिए....फिल्म बुरी नहीं है पर लम्बी है...जिसको झेलना आसान नहीं होता है....अंतिम दृश्य में लगता है की गलती से केमरे का स्विच आन रह गया था....चलो एडिटर भी सो गया होगा...पता नहीं इस फिल्म में एडिटर है भी के नहीं....

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