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बनारसी अंदाज में सनी देओल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज धोती-कमीज में चप्पल पहने बनारस की गलियों में टहलते सनी देओल को देख कर आप चौंक सकते हैं। उनका लुक भी बनारस के पडों की तरह है। वास्तव में सनी देओल ने यह लुक डॉ. चद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' के लिए लिया है। क्रासवर्ड एंटरटेनमेंट के बैनर तले बन रही इस फिल्म के निर्माता लखनऊ के विनय तिवारी हैं। हिंदी प्रदेश के विनय तिवारी की यह पहली फिल्म है। उन्होंने काशीनाथ सिह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' पढ़ रखा था, इसलिए जब डॉ. चद्रप्रकाश द्विवेदी ने उनके सामने इसी उपन्यास पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा, तो वह सहज ही तैयार हो गए। मुंबई की फिल्मसिटी में मदिर के सामने 'मोहल्ला अस्सी' का सेट लगा है। पप्पू के चाय की दुकान के अलावा आसपास की गलियों को हूबहू बनारस की तर्ज पर तैयार किया गया है। किसी बनारसी को मुंबई में अस्सी मोहल्ला देखकर एकबारगी आश्चर्य हो सकता है। पिछले दिनों काशीनाथ सिह स्वय सेट पर पहुंचे, तो सेट देख कर दंग रह गए। स्थान की वास्तविकता ने उन्हें आकर्षित किया। अपने उपन्यास के किरदारों को सजीव देखकर वह काफी खुश हुए थे। फिल्म निर्माण की प्र

हर फिल्म में होती हूं मैं एक अलग स्त्री: ऐश्वर्या राय बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज ऐश्वर्या राय बच्चन ने इन प्रचलित धारणाओं को झुठला दिया है कि हिंदी फिल्मों में हीरोइनों की उम्र पांच साल से अधिक नहीं होती और शादी के बाद हीरोइनों को फिल्में मिलनी बंद हो जाती हैं। यह भी एक धारणा है कि सफल स्त्रियों का दांपत्य और पारिवारिक जीवन सुखी नहीं होता। वह सार्वजनिक जीवन में एक अभिनेत्री व आइकन के तौर पर नए उदाहरण पेश कर रही हैं। अवसरों को चुनना और उसका सामयिक एवं दूरगामी सदुपयोग करना ही व्यक्ति को विशेष बनाता है। इसी लिए वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की एक खास स्त्री हैं। शुरुआती दौर 1994 में मिस व‌र्ल्ड चुने जाने के बाद तय हो चुका था कि करियर के रूप में फिल्मों में ही आना है। तीन साल बाद 1997 में वह मणिरत्नम की तमिल फिल्म इरूवर में आई तो आलोचकों ने कहा कि कोई हिंदी फिल्म नहीं मिली होगी। शुरुआती दिनों के इस फैसले के बारे में ऐश्वर्या बताती हैं, तब यश चोपडा और सुभाष घई मेरे साथ फिल्में करना चाह रहे थे, लेकिन मैंने मणिरत्नम की तमिल फिल्म इरूवर चुनी। मेरे बारे में पूर्वाग्रह थे कि मॉडल है, खूबसूरत चेहरा है, मिस व‌र्ल्ड है और अच्छा डांस करती है। फिल्म से पहले ही मेरे स

हमारा काम सिर्फ मनोरंजन करना है: विक्रम भट्ट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज आपका जन्म मुंबई का है। फिल्मों से जुडाव कैसे और कब हुआ? मेरे दादाजी का नाम था विजय भट्ट। वे प्रसिद्ध प्रोडयूसर-डायरेक्टर रहे हैं। हिमालय की गोद में, गूंज उठी शहनाई, हरियाली और रास्ता बैजू बावरा जैसी बडी पिक्चरें बनाई। मेरे पिता प्रवीण भट्ट कैमरामैन थे। मैं डेढ साल की उम्र से ही फिल्म के सेट पर जा रहा था। अंकल अरुण भट्ट डायरेक्टर व स्टोरी राइटर थे, पापा कैमरामैन थे तो दादा डायरेक्टर। घर में दिन-रात फिल्मों की चर्चा होती थी। बचपन से फिल्म इन्फॉर्मेशन और ट्रेड गाइड पत्रिकाएं देखता आ रहा हूं घर में। ऐसे माहौल में फिल्मों से इतर कुछ और सोचने की गुंजाइश थी ही कहां। हालांकि मेरे चचेरे भाई फिल्मों से नहीं जुडे। मुझे शुरू से यह शौक रहा। कहानियां सुनाने का शौक मुझे बहुत था। सुना है कि कॉलेज के दिनों में आपने और बॉबी देओल ने मिलकर फिल्म बनाई थी? तब केवल सोलह की उम्र थी मेरी। मैंने निर्देशन दिया और बॉबी ने एक्ट किया। कब फैसला किया कि डायरेक्टर ही बनना है, एक्टर नहीं? सात साल का था, तभी फैसला कर लिया था कि डायरेक्टर ही बनूंगा। इतनी कम उम्र में करियर का फैसला कम ही लोग करते हैं शाय

सेंसर बोर्ड की चिंताएं

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों शर्मिला टैगोर ने मुंबई में फिल्म निर्माताओं के साथ लंबी बैठक की। अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने अपने विचार शेयर किए और निर्माताओं की दिक्कतों को भी समझने की कोशिश की। मोटे तौर पर सेंसर बोर्ड से संबंधित विवादों की वजहों का खुलासा किया। उन्होंने निर्माताओं को उकसाया कि उन्हें सरकार पर दबाव डालना चाहिए ताकि बदलते समय की जरूरत के हिसाब से 1952 के सिनेमेटोग्राफ एक्ट में सुधार किया जा सके। उन्होंने बताया कि उनकी टीम ने विशेषज्ञों की सलाह के आधार पर दो साल पहले ही कुछ सुझाव दिए थे, किंतु सांसदों के पास इतना वक्त नहीं है कि वे उन सुझावों पर विचार-विमर्श कर सकें। उनके इस कथन पर निर्माताओं को हंसी आ गई। केंद्र के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सीबीएफसी (सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) को हिदायत दी थी कि किसी भी फिल्म में धूम्रपान के दृश्य हों, तो उसे ए सर्टिफिकेट दिया जाए। सीबीएफसी ने अभी तक इस पर अमल नहीं किया है, क्योंकि सीबीएफसी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन आता है और उसने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। शर्मिला टैगोर ने उड़ान और नो वन किल्ड जेसिका के उदाहरण देकर समझा

मजबूरी टीवी की, फायदा स्टारों का

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हाल ही में शो बिग बॉस खत्म हुआ है। इसके होस्ट सलमान खान ने 10 का दम लटका रखा है। बीच में वे इसकी शूटिंग कर सकते हैं। कौन बनेगा करोड़पति का चौथा सीजन समाप्त हो चुका है। अमिताभ बच्चन के साथ विभिन्न चैनल नए आइडिया पर सोच-विचार करते रहते हैं। खतरों के खिलाड़ी में प्रियंका चोपड़ा जोश दिखा चुकी हैं। इन दिनों दर्शकों का दिल धड़काने वाली माधुरी दीक्षित छोटे पर्दे पर अवतरित हुई हैं। शाहरुख खान भी टीवी पर जोर का झटका देंगे। टीवी चैनल और लोकप्रिय स्टार रियलिटी शो की युक्तियों में लगे रहते हैं। भारत में प्रचलित टीवी आरंभ से ही दर्शकों के मनोरंजन के लिए फिल्म स्टारों पर निर्भर रहा है। दूरदर्शन की हद से बाहर निकलने के बाद छोटा पर्दा बड़े पर्दे के सितारों का लाभकारी मैदान बना। इसमें टीवी का फायदा था, क्योंकि स्टार को शो में लाते ही उसे स्टार के बने-बनाए प्रशंसक दर्शकों के रूप में मिल जाते थे। उन्हें आधे-एक घंटे अपने प्रिय स्टारों के साथ बिताने का मौका मिलता था। फिल्म स्टारों पर यह निर्भरता इतनी ज्यादा है कि टॉक शो, चैट शो और अब तो पैनल डिस्कशन में भी फिल्म स्टारों को जगह दी जाने लगी

मजा देगा जोर का झटका

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दिल से दिमाग तक या शरीर के किसी भी हिस्से में.. कहींभी लग सकता है 'जोर का झटका'। इमेजिन के नए रिएलिटी शो से एंटरटेनमेंट का झटका देने आ रहे शाहरुख खान टीवी पर आप क्या देखते हैं? मुझे व्यक्तिगत तौर पर क्विजिंग, स्पोर्ट्स शो अच्छे लगते हैं। खेल देखने में रोमाच बना रहता है। रिएलिटी शो का अलग मजा है। आजकल रिएलिटी शो की माग बढ़ गई है। क्या वजह हो सकती है? मुझे लगता है कि फन, फिक्शन और स्पोर्ट्स के तत्व एक साथ रिएलिटी शो में मिलते हैं, इसलिए लोग ज्यादा पसद करते हैं। आप कौन से रिएलिटी शो देखना पसद करते हैं? मुझे डास के शो अच्छे लगते हैं। सब देख पाना मुमकिन नहीं है। फिल्म के प्रोमोशन के समय पता चलता है कि कौन सा देखना है? कुछ शो हैं, जिनमें हम दूसरों की जिंदगी में झाकने की कोशिश करते हैं। मुझे वे अच्छे नहीं लगते। मुझे लगता है कि क्या किसी और की जिंदगी में झाकना? जब अपनी जिंदगी में ही इतने उतार-चढ़ाव हैं। टीवी काफी तेजी से हमारे जीवन में प्रवेश कर रहा है? बिल्कुल, यह इंटरेक्टिव होता जा रहा है। कुछ समय के बाद ऐसा होगा कि हम टीवी के होस्ट से सीधी बातचीत कर सकें। यह हमारे

कहीं हम खुद पर तो नहीं हंस रहे हैं?

-अजय ब्रह्मात्‍मज छोटे से बड़े पर्दे तक, अखबार से टी.वी. तक, पब्लिक से पार्लियामेंट तक; हर तरफ बिखरी मुश्किलों के बीच भी जिंदगी को आसान कर रही गुदगुदी मौजूद है। बॉलीवुड के फार्मूले पर बात करें तो पहले भी इसकी जरूरत थी, लेकिन आटे में नमक के बराबर। फिल्मों में हंसी और हास्य कलाकारों का एक ट्रैक रखा जाता था। उदास और इंटेंस कहानियों के बीच उनकी हरकतें और दृश्य राहत दे जाते थे। तब कुछ कलाकारों को हम कॉमेडियन के नाम से जानते थे। पारंपरिक सोच से इस श्रेणी के आखिरी कलाकार राजपाल यादव होंगे। उनके बाद कोई भी अपनी खास पहचान नहीं बना पाया और अभिनेताओं की यह प्रजाति लुप्तप्राय हो गई है। [हीरो की घुसपैठ] अब यह इतना आसान रह भी नहीं गया है। कॉमेडियन के कोने में भी हीरो ने घुसपैठ कर ली है। अमिताभ बच्चन से यह सिलसिला आरंभ हुआ, जो बाद में बड़ा और मजबूत होकर पूरी फिल्म इंडस्ट्री में पसर गया। पूरी की पूरी फिल्म कॉमेडी होगी तो कॉमेडियन को तो हीरो बनाया नहीं जा सकता। आखिर दर्शकों को भी तो रिझाकर सिनेमाघरों में लाना है। सो, वक्त की जरूरत ने एक्शन स्टार को कॉमिक हीरो बना दिया। आज अक्षय कुमार की रोजी-रोटी ही कॉ

ताजा उम्मीदें 2011 की

-अजय ब्रह्मात्‍मज साल बदलने से हाल नहीं बदलता। हिंदी फिल्मों के प्रति निगेटिव रवैया रखने वाले दुखी दर्शकों और सिनेप्रेमियों से यह टिप्पणी सुनने को मिल सकती है। एक तरह से विचार करें तो कैलेंडर की तारीख बदलने मात्र से ही कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। परिवर्तन और बदलाव की प्रक्रिया चलती रहती है। हां, जब कोई प्रवृत्ति या ट्रेंड जोर पकड़ लेता है, तो हम परिवर्तन को एक नाम और तारीख दे देते हैं। इस लिहाज से 2010 छोटी फिल्मों की कामयाबी का निर्णायक साल कहा जा सकता है। सतसइया के दोहों की तरह देखने में छोटी प्रतीत हो रही इन फिल्मों ने बड़ा कमाल किया। दरअसल.. 2010 में छोटी फिल्मों ने ही हिंदी फिल्मों के कथ्य का विस्तार किया। दबंग, राजनीति और तीस मार खां ने हिंदी फिल्मों के बिजनेस को नई ऊंचाई पर जरूर पहुंचा दिया, किंतु कथ्य, शिल्प और प्रस्तुति में छोटी फिल्मों ने बाजी मारी। उन्होंने आश्वस्त किया कि हिंदी सिनेमा की फार्मूलेबाजी और एकरूपता के आग्रह के बावजूद नई छोटी फिल्मों के प्रयोग से ही दर्शकों के अनुभव और आनंद के दायरे का विस्तार होगा। छोटी फिल्मों में प्रयोग की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं। सबसे पहली

दर्शकों की पसंद, फिल्मों का बिजनेस

-अजय ब्रह्मात्‍मज न कोई ट्रेड पंडित और न ही कोई समीक्षक ठीक-ठीक बता सकता है कि किस फिल्म को दर्शक मिलेंगे? फिल्मों से संबंधित भविष्यवाणी अक्सर मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की तरह सही नहीं होतीं। किसे अनुमान था कि आशुतोष गोवारीकर की फिल्म खेलें हम जी जान से को दर्शक देखने ही नहीं आएंगे और बगैर किसी पॉपुलर स्टार के बनी सुभाष कपूर की फिल्म फंस गए रे ओबामा को सराहना के साथ दर्शक भी मिलेंगे? फिल्मों का बिजनेस और दर्शकों की पसंद-नापसंद का अनुमान लगा पाना मुश्किल काम है। हालांकि इधर कुछ बाजार विशेषज्ञ फिल्मों के बिजनेस की सटीक भविष्यवाणी का दावा करते नजर आ रहे हैं, लेकिन कई दफा उन्हें भी मुंह छिपाने की जरूरत पड़ती है। दशकों के कारोबार के बावजूद फिल्म व्यापार बड़ा रहस्य बना हुआ है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में अधिकतम सफल फिल्में दे चुके अमिताभ बच्चन पहली पारी के उतार के समय अपनी फ्लॉप फिल्मों से परेशान होकर कहते सुनाई देते थे कि दर्शकों के फैसले के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कभी बॉक्स ऑफिस पर सफलता की गारंटी समझे जाने वाले अमिताभ बच्चन ने यह बात घोर हताशा में कही थी, लेकिन हिंदी फिल्मों

क्राइम कलाकार है तीस मीर खां-फराह खान

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-अजय ब्रह्मात्मज इस मुलाकात के दिन जुहू चौपाटी पर ‘तीस मार खां’ का लाइव शो था। सुबह से ही फराह खान शो की तैयारियों की व्यस्तता में भूल गईं कि उन्हें एक इंटरव्यू भी देना है। बहरहाल याद दिलाने पर वह वापस घर लौटीं और अगले गंतव्य की यात्रा में गाड़ी में यह बातचीत की। फिल्म की रिलीज के पहले की आपाधापी में शिकायत की गुंजाइश नहीं थी। लिहाजा सीधी बातचीत ... - बीस दिन और बचे हैं। कैसी तैयारी या घबराहट है? 0 आज से पेट में गुदगुदी महसूस होने लगी है। कल तक एक्साइटमेंट 70 परसेंट और घबराहट 30 परसेंट थी। आज घबराहट 40 परसेंट हो गई है। मुझे लगता है कि रिलीज होते-होते मैं अपने सारे नाखून कुतर डालूंगी। हमने एक बड़ा कदम उठाया है। यह हमारी कंपनी की पहली फिल्म है। ऐसे में घबराहट तो बढ़ती ही है। व्यस्तता भी बढ़ गई है। आप देख रहे हो कि अपने तीनों बच्चों को लेकर मैं डबिंग चेक करने जा रही हूं। सुबह स्पेशल इफेक्ट चेक किया। फिर मछली लेकर आई। अभी बच्चों को उनकी दादी के पास छोडूंगी। डबिंग चेक करूंगी। फिर लौटते समय बच्चों को साथ घर ले जाऊंगी। उनके साथ दो घंटे बिताने के बाद जुहू चौपाटी के लाइव शो के लिए निकलूंगी। इस

इम्तियाज अली से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सिनेमा की आरंभिक छवियों के बारे में कुछ बताएं? जमशेदपुर में पला-बढा हूं। वहां मेरे फूफा जान के तीन सिनेमा घर हैं। उनका नाम एच. एम. शफीक है। करीम, जमशेदपुर और स्टार टाकीज थे उनके। करीम और जमशेदपुर टाकीज के पास ही उनका घर भी था। सांची के पास है यह। वहां के थिएटरों में शोले तीन साल चली थी। टिकट निकालने के चक्कर में हाथ तक टूट जाया करते थे। नई पिक्चर लगती थी तो हम छत पर चढ कर नजारा देखते थे। हॉल के दरवाजों का खुलना, वहां की सीलन, दीवारों की गंध...सब-कुछ रग-रग में बसा हुआ है। घर में फिल्में देखने की अनुमति थी? नहीं। यह शौक अच्छा नहीं समझा जाता था। पिक्चर छुपकर देखते थे। गेटकीपर हमें पहचानते थे। हाफ पैंट पहने कभी भी थिएटर में चले जाते। कई बार सीट नहीं मिलती तो जमीन पर बैठ कर फिल्म देखते थे। सीन बेकार लगता तो दूसरे हॉल में चले जाते। लार्जर दैन लाइफ छवियां और लोगों की दीवानगी..मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म देखने आ रहे हैं तो खुद को मिथुन ही समझते। स्क्रीन के बीच में पंखे का चलना दिख रहा है। सीटें तोडी जा रही हैं। एक-दो बार पर्दे फाड दिए गए। नॉर्थ इंडिया के छोटे से कस्बे में पिक्चर

देसी मुन्नी, शहरी शीला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज धुआंधार प्रचार से शीला की जवानी.. की पंक्तियां लोग गुनगुनाने लगे हैं, लेकिन शीला..शीला.. शीला की जवानी.. के बाद तेरे हाथ नहीं आनी.. ही सुनाई पड़ता है। बीच के शब्द स्पष्ट नहीं हैं। धमाधम संगीत और अंग्रेजी शब्द कानों में ठहरते ही नहीं। धप से गिरते हैं, थोड़ा झंकृत करते हैं और फिर बगैर छाप छोड़े गायब हो जाते हैं। यही वजह है कि आइटम सांग ऑफ द ईयर के स्वघोषित दावे के बावजूद शीला की जवानी.. का असर मुन्नी बदनाम हुई.. के जैसा नहीं होगा। मुन्नी.. को कोई दावा नहीं करना पड़ा। उसे दर्शकों ने आइटम सांग ऑफ द ईयर बना दिया है। दबंग में आइटम सांग की जरूरत सलमान खान ने महसूस की थी। उन्होंने इसके लिए मुन्नी बदनाम हुई.. पसंद किया और पर्दे पर असहज स्थितियों और दृश्यों की संभावना के बावजूद अपनी छोटी भाभी मलाइका अरोड़ा को थिरकने के लिए आमंत्रित किया। सभी जानते हैं कि पूरी दुनिया के लिए अजीब कहलाने वाले सलमान खान अपने परिवार में कितने शालीन बने रहते हैं। मुन्नी बदनाम हुई.. ने कमाल किया। देखते ही देखते वह दबंग की कामयाबी का एक कारण बन गया। मुन्नी बदनाम हुई.. वास्तव में लौंडा बदनाम हुआ.. का फि

सीरियल में सिनेमा की घुसपैठ

-अजय ब्रह्मात्‍मज इसकी आकस्मिक शुरुआत सालों पहले भाई-बहन के प्रेम से हुई थी। तब एकता कपूर की तूती बोलती थी। उनका सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी और कहानी घर घर की इतिहास रच रहे थे। एकता कपूर की इच्छा हुई कि वह अपने भाई तुषार कपूर की फिल्मों का प्रचार अपने सीरियल में करें। स्टार टीवी के अधिकारी उन्हें नहीं रोक सके। लेखक तो उनके इशारे पर सीन दर सीन लिखने को तैयार थे। इस तरह शुरू हुआ सीरियल में सिनेमा का आना। बड़े पर्दे के कलाकार को जरूरत महसूस हुई कि छोटे पर्दो के कलाकारों के बीच उपस्थित होकर वह घरेलू दर्शकों के भी प्रिय बन जाएं। यह अलग बात है कि इस कोशिश के बावजूद तुषार कपूर पॉपुलर स्टार नहीं बन सके। यह भी आंकड़ा नहीं मिलता कि इस प्रयोग से उनकी फिल्मों के दर्शक बढ़े या नहीं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री को प्रचार का एक और जरिया मिल गया। प्रोफेशनल और सुनियोजित तरीके से संभवत: पहली बार जस्सी जैसी कोई नहीं में हम तुम के स्टार सैफ अली खान को कहानी का हिस्सा बनाया गया। यशराज फिल्म्स की तत्कालीन पीआर एजेंसी स्पाइस के प्रमुख प्रभात चौधरी याद करते हैं, ''वह अलग किस्म की फिल्म थी। इसके प्रचार

तैयार हो रही है एडल्ट शो की जमीन

-अजय ब्रह्मात्‍मज सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के फैसले के मुताबिक 17 नवंबर से बिग बॉस और राखी का फैसला टीवी शो अपने एडल्ट कंटेंट की वजह से रात के ग्यारह बजे के बाद ही प्रसारित होने लगे। स्वाभाविक रूप से इस सरकारी फैसले पर अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। एक समूह पूछ रहा है कि क्यों बिग बॉस और राखी का फैसला ही प्राइम टाइम से बाहर किए गए, जबकि कई सीरियलों और दूसरे टीवी शो में आपत्तिजनक एडल्ट कंटेंट होते हैं। अब तो टीवी न्यूज चैनल प्राइम टाइम पर सेक्स सर्वेक्षण तक पेश करते हैं और विस्तार से सेक्स की बदलती धारणाओं और व्यवहार का विश्लेषण करते हैं। ऐसी स्थिति में दो विशेष कार्यक्रमों को चुनकर रात ग्यारह के बाद के स्लॉट में डाल देने को गलत फैसला माना जा रहा है। वहीं दूसरा समूह सरकारी फैसले का समर्थन करते हुए बाकी सीरियल और शो पर भी शिकंजा करने की वकालत कर रहा है। इस समूह के मुताबिक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ लोग अश्लीलता परोसते हैं और दर्शकों को उत्तेजित कर अपने शो की टीआरपी बढ़ाते हैं। प्राइम टाइम पर आ रहे इन कार्यक्रमों के दौरान बच्चे जागे रहते हैं, इसलिए उन्हें रात के

जरूरी है चिटगांव विद्रोह के सूर्य सेन को जानना: आशुतोष गोवारीकर

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आशुतोष गोवारीकर की हर नई फिल्म के प्रति दर्शकों और समीक्षकों की जिज्ञासाएं और आशंकाएं कुछ ज्यादा रहती हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि लगान के बाद वे एक जिम्मेदार निर्देशकके रूप में सामने आए हैं। उनकी फिल्में हिंदी फिल्मों के पारंपरिक ढांचे में होते हुए भी चालू और मसालेदार किस्म की नहीं होतीं। उनकी हर फिल्म एक नए अनुभव के साथ सीख भी देती है। खेलें हम जी जान से मानिनी चटर्जी की पुस्तक डू एंड डाय पर आधारित चिटगांव विद्रोह पर केंद्रित क्रांतिकारी सूर्य सेन और उनकेसाथियों की कहानी है.. स्वदेस से लेकर खेलें हम जी जान सेतक की बात करूं तो आप की फिल्में रिलीज के पहले अलग किस्म की जिज्ञासाएं बढ़ाती हैं। कुछ शंकाएं भी जाहिर होती हैं। आप इन जिज्ञासाओं और शंकाओं को किस रूप में लेते हैं। इसे मैं दर्शकों और समीक्षकों की रुचि और चिंता के रूप में लेता हूं। हम सभी प्रचलित धारणाओं से ही अपनी राय बनाते हैं। जब जोधा अकबर में मैंने रितिक रोशन को चुना तो पहली प्रतिक्रिया यही मिली कि रितिक अकबर का रोल कैसे कर सकते हैं? यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। ह्वाट्स योर राशि? के समय मेरी दूसरी फिल्मों के आलोचक ही कहने लगे क