लाहौर से जुड़े हिंदी फिल्मों के तार

-अजय ब्रह्मात्मज
लाहौर से हिंदी फिल्मों का पुराना रिश्ता रहा है। उल्लेखनीय है कि आजादी के पहले हिंदी सिनेमा के एक गढ़ के रूप में स्थापित लाहौर में फिल्म इंडस्ट्री विकसित हुई थी। पंजाब, सिंध और दूसरे इलाकों के कलाकारों और निर्देशकों के लिए यह सही जगह थी। गौरतलब है कि 1947 में हुए देश विभाजन के पहले लाहौर में काफी फिल्में बनती थीं। यहां तक कि मुंबई में बनी हिंदी फिल्मों के प्रीमियर और विशेष शो आवश्यक रूप से लाहौर में आयोजित किए जाते थे। एक सच यह भी है कि यहीं अशोक कुमार को देखने के बाद देव आनंद के मन में ऐक्टर बनने की तमन्ना जागी थी।
वैसे भी, आजादी के पहले लाहौर भारत का प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र था। गौरतलब है कि 1947 में देश विभाजन के बाद लाहौर से कुछ कलाकार और फिल्मकार मुंबई गए और मुंबई से कुछ कलाकार लाहौर आ गए। गौर करें, तो मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री आजादी के बाद तेजी से विकसित हुई। लाहौर में कुछ समय तक फिल्में अच्छी तादाद में बनती रहीं, लेकिन पर्याप्त दर्शकों के अभाव में हर साल फिल्मों की संख्या घटती ही चली गई। धीरे-धीरे स्टूडियो बंद होते गए। फिल्म निर्माण की गतिविधियों से गुलजार रहने वाले इलाके रॉयल पार्क में आज दूसरे किस्म की चहल-पहल है। दरअसल, भारत और पाकिस्तान में लोग यह भूल चुके हैं कि हिंदी फिल्मों के विकास में लाहौर की क्या भूमिका रही है? दोनों देशों के फिल्म अध्येताओं ने कभी लाहौर और मुंबई के टूटे-जुड़े तारों को देखने-दिखाने की कोशिश ही नहीं की।
लाहौर में बहुत कम फिल्में बनती हैं। हालांकि हिंदी और पंजाबी में कभी-कभी एक-दो फिल्में आ जरूर जाती हैं, लेकिन यहां के दर्शकों के बीच फिल्में देखने की रुचि कम नहीं हुई है। हालांकि हिंदी फिल्में अवैध तरीके से लाहौर एवं पूरे पाकिस्तान में बड़े चाव से देखी जाती हैं। यश चोपड़ा और महेश भट्ट सरीखे फिल्मकार दोनों देशों के बीच फिल्मों के परस्पर प्रदर्शन की वकालत करते रहे हैं। वैसे, सरकारी स्तर पर इधर अच्छे संकेत मिल रहे हैं। गत 4 अप्रैल को भारत में पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए का प्रदर्शन हुआ, तो उससे एक-दो हफ्ते पहले पाकिस्तान में अब्बास-मस्तान की रेस और आमिर खान की तारे जमीं पर रिलीज हुई। लाहौर में भारत के सभी एंटरटेनमेंट चैनल्स दिखते हैं। लाहौर और पाकिस्तान की पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी फिल्मों के सितारों की खबरें छपती रहती हैं। माल रोड पर हर इतवार को एक गली में पुरानी किताबों की दुकानें लगती हैं, जहां पुरानी फिल्मी पत्रिकाएं आसानी से मिल जाती हैं। पाकिस्तान से उर्दू में ऐसी कई पत्रिकाएं भी निकलती हैं, जिनमें तीन-चौथाई से ज्यादा सामग्री हिंदी फिल्मों से ही संबंधित होती हैं। टीवी चैनलों और अखबारों में फिल्मी खबरों और गतिविधियों को स्थान मिलता है।
पाकिस्तान में हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का अनुमान लाहौर के लोगों की रुचि से लगाया जा सकता है। लाहौर के बाजारों और सड़कों पर दुकानों, पोस्टर्स और होर्डिग्स से झांकते हिंदी फिल्मों के सितारे इस रुचि और स्वीकृति का सबूत हैं। इन दिनों पंजाब के गायकों को भी हिंदी फिल्मों में जगह मिल रही है। उस्ताद नुसरत फतह अली से आरंभ हुआ यह सिलसिला राहत अली खां के जरिए आगे बढ़ रहा है। लाहौर में म्यूजिक की दुनिया में ऐक्टिव कलाकार रिकॉर्डिग और वीडियो शूटिंग के लिए मुंबई की ओर रुख करते रहते हैं। ये सभी बातें इस बात की संभावना जता रहे हैं कि दोनों देशों के मध्य फिल्मों की गतिविधियां दिन ब दिन बढ़ रही हैं। अगर पाकिस्तान में बनी फिल्मों को भारत का बाजार मिल जाए और भारतीय फिल्मों का प्रदर्शन पाकिस्तान में मुमकिन हो सके, तो दोनों देशों की फिल्म इंडस्ट्री को फायदा होगा। साथ ही, इसमें दोनों देशों के दर्शकों का फायदा भी निहित है।

Comments

Manas Path said…
उचित बात. दोनों देशों के बीच इस तरह के संपर्क बढने चाहिए.

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