मेट्रो, मल्टीप्लेक्स और मार्केटिंग

-अजय ब्रह्मात्मज
अपने शहरों के सिनेमाघरों में लगी फिल्मों के प्रति दर्शकों की अरुचि को देखकर लोग मानते हैं कि फिल्म चली नहीं, लेकिन अगले ही दिन अखबार और टीवी चैनलों पर निर्माता, निर्देशक, आर्टिस्ट और कुछ ट्रेड पंडितों को चिल्ला-चिल्लाकर लिखते और बोलते देखते हैं कि फिल्म हिट हो गई है। लोग यह भी देखते हैं कि इस चीख का फायदा होता है। सिनेमाघर की तरफ दर्शकजाते दिखाई देते हैं। पहले-दूसरे दिन खाली पड़ा सिनेमाघर तीसरे दिन से थोड़ा-थोड़ा भरने लगता है।
फिल्म चलाने की यह नई रणनीति है। ट्रेड विशेषज्ञों के मंतव्य के पहले ही शोर आरंभ कर दो कि मेरी फिल्म हिट हो गई है। यही चल रहा है। पिछले दिनों फूंक की साधारण कामयाबी का बड़ा जश्न मनाया गया। इसके सिक्वल की घोषणा भी कर दी गई! उस रात पार्टी में सभी अंदर से मान रहे थे कि फूंक रामू की पिछली फ्लॉप फिल्मों से थोड़ा बेहतर बिजनेस ही कर रही है, फिर भी सभी एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और कह रहे थे कि फिल्म हिट हो गई है। एंटरटेनमेंट और न्यूज चैनल के रिपोर्टर पार्टी में दी जा रही बधाइयों का सीधा प्रसारण कर रहे थे। मीडिया प्रचार की इस चपेट में आम दर्शकों का आना स्वाभाविक है।
धीरे-धीरे दर्शकों के बीच यह विचार फैलाया जा रहा है कि हमें कामयाब और हिट फिल्में देखनी चाहिए। चूंकि हिट होना फिल्म की सफलता की पहली शर्त है, इसलिए निर्माता की पूरी कोशिश किसी तरह हिट का तमगा लेने में रहती है। फिल्म अच्छी है या बुरी, इस पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं है। अच्छी फिल्मों का बॉक्स ऑफिस पर बुरा हश्र होते हम दिन-रात देखते रहते हैं। मुंबई मेरी जान अपेक्षाकृत बेहतरीन फिल्म थी, लेकिन उसे दर्शक नहीं मिल सके। ऐसी अनेक अच्छी फिल्में प्रचार और बाजार के सहयोग के अभाव में दर्शकों से वंचित रह जाती हैं।
कहते हैं इस सिलसिले की शुरुआत बोनी कपूर ने की थी। महेश भट्ट ने उसे मजबूत किया और बाकी निर्माता अब उसी की नकल करते हैं। बीस साल पहले सैटेलाइट चैनल नहीं आए थे और एंटरटेनमेंट चैनल व न्यूज चैनल हमारी जिंदगी के जरूरी हिस्सा नहीं बने थे। दरअसल, तब पोस्टर और होर्डिग ही कारगर हथियार थे। निर्माता अपनी फिल्मों की रिलीज के अगले ही दिन सुपरहिट का पोस्टर शहरों में लगवा देते थे। तब भी आश्चर्य होता था कि अभी शुक्रवार को ही तो फिल्म रिलीज हुई है, सोमवार को सुपरहिट कैसे हो गई? लेकिन उसका असर होता था। दर्शकों की संख्या घटती नहीं थी। मल्टीप्लेक्स के आगमन के बाद इस रणनीति में थोड़ा बदलाव आया है। अब कोशिश की जाने लगी है कि अधिकतम प्रिंट और अधिकतम शो के साथ फिल्म रिलीज करो और तीन दिनों में ही आरंभिक कमाई कर लो। इस प्रयोग के पहले नमूने के तौर पर धर्मा प्रोडक्शन की फिल्म काल का उदाहरण उचित होगा। शाहरुख खान के उत्तेजक डांस और भारी प्रचार के साथ पहले ही तीन दिनों में कारोबार करने का प्रयोग सफल रहा। उसके बाद से करण जौहर और यशराज फिल्म्स ने अधिकतम प्रिंट जारी करने का रिवाज बना लिया। नतीजा है कि सिंह इज किंग के 1500 से अधिक प्रिंट जारी किए गए थे।
वास्तव में हिंदी फिल्में अभी मुख्य रूप से मेट्रो, मल्टीप्लेक्स और मार्केटिंग पर निर्भर करती हैं। इन तीनों के मेल से ही फिल्मों का बिजनेस निर्धारित किया जा रहा है। मल्टीप्लेक्स के कलेक्शन की गिनती होती है और ज्यादातर मल्टीप्लेक्स मेट्रो शहरों में हैं। फिल्म की मार्केटिंग टीम रिलीज के पहले समां बांधती है। दर्शकों को उकसाती है और उन्हें सिनेमाघरों की तरफ आने के लिए प्रेरित करती है। अब किसे चिंता है कि प्रदेश की राजधानियों और जिलों में फिल्में चलती हैं या नहीं? इस व्यापार का एक दुष्परिणाम यह भी है कि सिनेमा के विषय मल्टीप्लेक्स के दर्शकों की रुचि से तय किए जा रहे हैं।

Comments

Manjit Thakur said…
सही कहा सर.. फिल्म रिलीज होते ही हिट होने का तमगा कैसे पा जाती है ये मेरे लिए बड़ा भयंकर सवाल था।

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