डायरेक्टर न होता तो जर्नलिस्ट होता: मधुर भंडारकर

-अजय ब्रह्मात्मज

डायरेक्टर न होता तो जर्नलिस्ट होता: मधुर भंडारकर

पहली बार चांदनी बार से ख्याति अर्जित की निर्देशक मधुर भंडारकर ने। इसके पहले बतौर निर्देशक उनकी एक फिल्म आई थी, जिसने निराश किया था। चांदनी बार भी मुश्किल से पूरी हुई। फैंटेसी एवं रिअलिटी के तत्वों को जोडकर सिनेमा की नई भाषा गढी है मधुर ने। उनकी फिल्में सीमित बजट में संवेदनशील तरीके से मुद्दे को उठाती हैं। इन दिनों वे कॉमेडी फिल्म दिल तो बच्चा है जी की तैयारियों में लगे हैं।

कब खयाल आया कि फिल्म डायरेक्ट करनी है?

बचपन में गणपति महोत्सव, सत्यनारायण पूजा, जन्माष्टमी जैसे त्योहारों पर सडक घेर कर 16 एमएम प्रोजेक्टर से दिखाई जाने वाली ब्लैक-व्हाइट और कलर्ड फिल्में देखता था। किसी से कह नहीं पाता था कि डायरेक्टर बनना है। मेरे दोस्त हीरो, विलेन या कॉमेडियन की बातें करते थे, मैं टेकनीक के बारे में सोचता था। शॉट आगे-पीछे या ऊपर-नीचे हो तो चौंकता था कि इसे कैसे किया होगा? ट्रॉली और क्रेन के बारे में नहीं जानता था। तभी समझ में आ गया था कि वी. शांताराम, विजय आनंद और राज खोसला की फिल्में अलग होती हैं।

फिर..

मैंने विडियो कैसेट का बिजनेस शुरू किया जो पांच साल से ज्यादा चला। मेरे पास 17-18 सौ कैसेट थे। यह काम इसलिए पसंद था कि इसमें फिल्में देखने को मिलती थीं। उसी दौर में मैंने श्याम बेनेगल की कलयुग और मंडी देखीं। निशांत और भूमिका नहीं देख पाया था। तब हमें इन्हें देखने की इजाजत नहीं मिलती थी। तभी सत्यजित राय, श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों के बारे में सुना। इसके बाद सुभाष घई की हीरो और गोविंद निहलानी की अ‌र्द्धसत्य कई-कई बार देखी। गोल्डी साहब और गुरुदत्त की फिल्में अच्छी लगीं। देव आनंद की गाइड तीस-पैंतीस बार देखी। मैंने महबूब स्टूडियो में राज खोसला को माटी मांगे खून की शूटिंग करते देखा। रवि टंडन कीखुद्दार, देव साहब की स्वामी दादा, प्रकाश मेहरा की नमकहलाल की शूटिंग देखी। स्टार्ट, साउंड, कट सुन कर मुझे जोश आ जाता था। ज्यादातर तो मैं सेट पर पीछे की ओर खडा रहता था, लेकिन जिन लोगों को कैसेट देता था, उनके सेट पर थोडे विश्वास के साथ चला जाता था। एक बार किसी एक्टर को एक ही डायलॉग पंद्रह बार बोलते देख मैं खीझ गया। बाद में पता चला कि सीन को बेहतर बनाने के लिए डायरेक्टर ऐसा कराते हैं।

कोई टीचर या गाइड भी था, जिसने दिशा दी हो?

नहीं। मेरे पास छोटा सा प्रोजेक्टर था, जो मेट्रो थिएटर के पास से खरीदा था। उसके अंदर रील डालकर चलाता था और शो करता था। बांबे लैब के बाहर फेंकी गई रीलें लाता था और उन्हें चिपका कर अपनी स्टोरी और फिल्में बनाता था। मेरी फिल्म में एक साथ देव आनंद, अमिताभ बच्चन और फिरोज खान होते थे। हालांकि नहीं जानता था कि फिल्म बनाने का मौका कौन देगा। राज सिप्पी के पास गया तो उनके 12 असिस्टेंट थे। बाद में कैसेट के काम में घाटा हुआ तो घरवालों ने कुछ और करने को कहा। कपडे का बिजनेस किया, कुछ और भी काम किए, लेकिन मन तो फिल्मों में ही था। सीन देखकर फिल्म का नाम बता देता था। जर्नलिस्ट दोस्त किसी सीन के बारे में बताते हुए फिल्म का नाम पूछते थे और मैं सही नाम बता देता था। कास्टिंग के सारे नाम पढता था। पंढरी दादा का नाम हर फिल्म में आता था। वे प्रसिद्ध मेकअप मैन थे। सोचता था कि डायरेक्टर न बना तो फिल्म जर्नलिस्ट जरूर बन जाऊंगा।

फिर फिल्मों का सिलसिला कैसे चला?

बडे डायरेक्टरों ने मौका नहीं दिया तो मैं छोटे डायरेक्टरों के पास गया। कहीं काम मिला तो पैसा नहीं मिला। आने-जाने का खर्च भी नहीं निकलता था। मैं जूनियर आर्टिस्ट को बुलाने, क्राउड को संभालने, मेकअपमैन को बुलाने, एक्टर को बुलाने का काम करता था। तब वैनिटी वैन नहीं होते थे। फिल्म सिटी में रात के दो बजे पैक-अप होने के बाद टेंपो में आर्ट डिपार्टमेंट का सामान लादा जाता था। उसी में बैठकर मेन रोड तक आता था। बातें तो सारी याद हैं, लेकिन किसी के प्रति गुस्सा नहीं है।

किसने मौका दिया? या कहां अप्रोच किया?

मेरे दूर के मामा को मेरे पैशन के बारे में मालूम था। उन्होंने पूछा कि राम गोपाल वर्मा के साथ काम करोगे? फिल्म शिवा तब रिलीज होने वाली थी। मैंने सोचा, कोई मिडिल एज आदमी होगा, जिसने धार्मिक फिल्म बनाई होगी। फिल्म देखी और मिलने चला गया। इसके बाद तो उनका फैन बन गया। उन्होंने मुझे हैदराबाद रात की शूटिंग के दौरान बुलाया और कहा कि उनका असिस्टेंट बन जाऊं। संयोग ही था कि उनकी भी विडियो कैसेट लाइब्रेरी थी। उनके साथ चार-पांच साल, यानी रंगीला तक रहा। रंगीला में एसोसिएट डायरेक्टर था।

बचपन में देखी गई कौन सी फिल्में याद रहीं और क्यों?

प्यासा में वहीदा रहमान जी ने गुलाबो का जो किरदार निभाया था, वह लाजवाब था। ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर वह फिल्म देखी थी। फिल्म की लाइटिंग भी बेहतरीन थी। फिर हृषीकेष मुखर्जी की फिल्म अनाडी देखी। उसमें ललिता जी का किरदार आज तक याद है।

मुंबई के किस इलाके में रहते थे आप? परिवार के बारे में बताएं।

बांद्रा-खार में। खादापुरी इंडस्ट्रियल इलाके में हम रहते थे। पिता जी इलेक्ट्रिक कॉन्ट्रैक्टर थे, मां हाउसवाइफ। बहन पढती थी। फिल्मों के कीडे ने मुझे ही काटा था। दूरदर्शन पर ही फिल्में देखते थे। घर में टीवी नहीं था, स्कूल से लौटते हुए दूसरों के घर जाकर फिल्म देखता और फिर घर लौटकर सबको उसकी कहानी सुनाता था।

आप राम गोपाल वर्मा के असिस्टेंट रहे, लेकिन उनकी शैली का प्रभाव आप पर नहीं दिखता। आपने अलग शैली विकसित की।

हर असिस्टेंट अपने डायरेक्टर से टेकनीक सीखता है, लेकिन जब फिल्में बनाता है तो अपने हिसाब से बनाता है। रंगीला के समय मुझे लगा कि अब अपनी फिल्म डायरेक्ट करनी चाहिए। मेरे पास अनुभव व जानकारी थी, लेकिन इंडस्ट्री में मेरा कोई गॉडफादर नहीं था। एक साल तक किसी ने फिल्म नहीं दी। लोग कहते भी थे कि कमर्शियल फिल्म बनाऊं। तब मैंने त्रिशक्ति बनाई। विडियो कैसेट के व्यापारी बाबू भाई लाठीवाला प्रोड्यूसर थे।

यह फिल्म चांदनी बार के पहले बनी? त्रिशक्ति के बारे में लोग नहीं जानते।

वह पिक्चर आई और चली गई। इसमें मिलिंद गुणाजी, शरद कपूर, अरशद वारसी थे। फिल्म बनने में तीन साल लगे, तब तक सब्जेक्ट, एक्टर और पिक्चर, सब बासी हो गया और बॉक्स ऑफिस पर मेरे एक्टरों की वैल्यू नहीं रह गई। मैंने जिनको भी फिल्म दिखाई, उनसे यही कहा कि यह मेरा आखिरी काम नहीं है। मैं रामू का एसोसिएट था तो लोगों को मुझ पर थोडा भरोसा तो था।

पहली फिल्म की विफलता से लोग निराश हो जाते हैं। आप टिके रहे और अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए? कैसे?

त्रिशक्ति एक साल की बेकारी के बाद हताशा में रिलीज की थी। वह मेरे मन की फिल्म नहीं थी। फ्लॉप का टैग भी लग गया था। किसी हीरो का सपोर्ट नहीं था, कोई आर्थिक मदद देने वाला भी नहीं था। मैं पत्नी और मां से कहता हूं कि लकी हूं, क्योंकि ऐसे कई डायरेक्टर थे, जो पहली फिल्म फ्लॉप होने के बाद गुमनामी में खो गए। त्रिशक्ति के समय कई लोगों से बात भी हुई, लेकिन सभी इस फिल्म का नतीजा देखना चाहते थे। शत्रुघ्न सिन्हा हमेशा कहते हैं कि फिल्मों में सफलता का अनुपात एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं होता। मैंने भी सोचा कि काम न मिला तो टीवी सीरियल करूंगा। मैं लोगों से कहता था कि किसी से मिलवा दो, कोई मेरे साथ काम करने को तैयार नहीं था। प्रोड्यूसर कन्नी काटते थे। मिलने पर कहते थे कल सुबह फोन करो। सुबह फोन करने पर साफ कह देते थे कि अभी कोई फिल्म नहीं है।

निराशा के इस दौर में खुद पर कैसे विश्वास बना रहा?

उन दिनों घर लौटता था तो नींद नहीं आती थी। घर वाले कहते थे कि दूसरा काम करूं। कभी किसी एक्टर से मिलने जाता तो उनकी मेकअप वैन के बाहर दो-तीन घंटे इंतजार करता था। तब जाकर वे निकलते थे और फिर यह कहकर टरका देते कि अगले दो-तीन साल तक टाइम नहीं है। मैंने फैसला कर लिया था कि अगली फिल्म अपने मन से बनाऊंगा। मैं हमेशा कहता हूं कि खुद पर भरोसा होना चाहिए। तभी कोई आप पर इन्वेस्ट करेगा। सामने वाले को जहां लगा कि यह डरा हुआ है तो वह क्यों इन्वेस्ट करेगा? मुझे पता था कि मैं खोटा सिक्का नहीं हूं। तब चांदनी बार आई।

चांदनी बार की प्रेरणा कैसे और कहां से मिली? इसमें आपकी अलग शैली दिखी और दर्शकों-समीक्षकों ने इसे स्वीकार किया।

त्रिशक्ति के फ्लॉप होने के बाद मैं निराश था। मेरा दोस्त स्टॉक मार्केट का ब्रोकर था। एक दिन वह मुझे बार में ले गया, जहां मैंने बार ग‌र्ल्स को बीयर सर्व करते देखा। मैं दो-तीन बार वहां गया, फिर सोचा कि क्यों न इनकी जिंदगी पर फिल्म बनाऊं। कहानी लिखी और दो-तीन प्रोड्यूसरों से मिला। सभी ने मना कर दिया। एक ने कहा कि इसमें चार-पांच गाने और अश्लील दृश्य भरो, नग्न लडकियां दिखाओ। मैंने उनसे स्क्रिप्ट वापस ले ली। फिर आर. मोहन से मिला। उनके बेटे को त्रिशक्ति तकनीकी रूप से अच्छी लगी थी। उन्होंने कहा था कि छोटे बजट की कोई फिल्म हो तो बताना। मैंने उन्हें कहानी सुनाई। उनके हां कहने पर चांदनी बार पर छह महीने तक रिसर्च किया।

हिंदी कमर्शियल फिल्मों में ऐसे रिसर्च नहीं होते। आप समकालीन सामाजिक विषय पर फिल्म बना रहे थे, शोध की क्या प्रक्रिया थी?

त्रिशक्ति में एक कैरेक्टर था अन्ना। बार बिजनेस में उसकी पहचान थी। उसी ने मुझे वहां के कल्चर के बारे में बताया, बार मालिकों, डांसर्स से मिलवाया। पहले लडकियों को बात करने में शर्म आती थी। कुछ मुलाकातों के बाद उनका भरोसा जगा तो उन्होंने अपना दर्द मुझसे बांटा। ग्लैमर, डांस और बीयर के पीछे की दर्दनाक कहानियां मालूम हुई। मेरे पास इतना मटीरियल है कि आठ-दस चांदनी बार बना सकता हूं।

कास्टिंग को लेकर दिक्कत हुई? तब्बू को कैसे राजी किया?

आर. मोहन ने तब्बू से यह कहकर मिलवाया कि मैं रामू का असिस्टेंट हूं। मैंने उनसे कहा कि मेरी फ्लॉप फिल्म के बारे में भी बता दें तो उन्होंने कहा कि तब्बू अगर पूछें तो बता देना। मैं तब्बू से मिला और बता दिया कि मेरी फिल्म फ्लॉप हो चुकी है। फिर भी तब्बू ने स्क्रिप्ट सुनी और कहानी सुनने के बाद कहा कि, मैं यह फिल्म कर रही हूं। सच कहूं तो लिखते समय तब्बू ही मेरे दिमाग में थीं। उनका लुक, कोमलता और परिपक्वता सभी मेरी नायिका से मिलता था, जो दो बच्चों की मां थी।

कभी लगा कि सही मौकेनहींमिल पा रहे हैं? या फिल्म इंडस्ट्री से अपेक्षित सपोर्ट नहीं मिल रहा है। इस भेदभाव पर गुस्सा आया?

गुस्सा आता भी तो क्या कर सकता था! तकलीफ होती थी। शुरू में बडे स्टार कास्ट के साथ महंगी फिल्में नहीं मिलीं। मुझे जो मिला, उसी में मैंने अपनी पहचान बनाई। अगर मेरे पीछे भी कोई रहता तो फर्क पडता। लेकिन मेरी स्थिति मरता क्या न करता वाली थी। पैसा व काम चाहिए। नाम मिल गया तो अतिरिक्त लाभ समझो।

चांदनी बार के बाद सत्ता व आन को देखकर लगा कि मधुर ग्लैमर की चकाचौंध में खो रहे हैं। आन से फायदा नहीं हुआ।

चांदनी बार व सत्ता नायिका प्रधान फिल्में थीं। लोगों ने कहा कि मधुर सिर्फ नायिका प्रधान फिल्में बना सकता है। तब सोचा कि कमर्शियल फिल्म भी बनानी होगी। अपनी फिल्मों से संतुष्टि तो मिलती थी, पैसे नहीं मिलते थे। छवि तोडने के लिए आन की, लेकिन तब पुलिस अफसरों पर इतनी फिल्में आ रही थीं कि फिल्म फ्लॉप हो गई।

आपने अपने प्रिय निर्देशकों में राज खोसला, विजय आनंद, गुरु दत्त का नाम लिया। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी से भी आप प्रभावित रहे। राम गोपाल वर्मा से आपने क्या सीखा?

रामू जी का कैमरा एंगल और टेकनीक अलग होता है। उनकी फिल्मों में बहुत भाषणबाजी नहीं होती। पांच सालों तक किसी के साथ काम करें तो कुछ चीजें स्वाभाविक रूप से शैली में शामिल हो जाती हैं। हां-किसी की नकल नहीं की। कोशिश यही की है किअपनी शैली विकसित करूं।

पेज-3, कॉरपोरेट, ट्रैफिक सिग्नल जैसी फिल्में महानगरों में पल रही संस्कृति को अलग कोणों से उभारती हैं। यह आपका सचेत प्रयास था या अनायास ऐसा होता चला गया?

मैंने मेट्रो लाइफ पर तीन फिल्में बनानी चाही थीं। पेज-3, कॉरपोरेट, ट्रैफिक सिग्नल उसी सिरीज की ट्रायलोजी है। पेज-3 कॉकटेल पार्टी कल्चर और उसमें शामिल होने वाले लोगों पर है। कॉरपोरेट में बिजनेस व‌र्ल्ड के अप्स एंड डाउन हैं। ट्रैफिक सिग्नल ब्लैक कॉमेडी व ह्यूमर थी। मैं शहरी जीवन की विसंगतियों को फिल्मों के जरिये लाने में सफल रहा। लोगों ने पेज-3 संस्कृति के बारे में इस फिल्म के बाद ही जाना।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आ रहे नए डायरेक्टर्स को क्या सुझाव देंगे। यहां सफलता का अनुपात एक प्रतिशत है तो वे कैसे तैयारी करें?

यहां स्ट्रगल है। कोई भी एक्टर शुरू में साथ काम करने के लिए तैयार नहीं होगा। अपना विषय चुनें और उस पर भरोसा रखें। डायरेक्शन में आने के लिए टेकनीक की समझ और स्क्रिप्ट पर पकड जरूरी है। पेज-3 के समय मेरा मजाक बना, लेकिन वह फिल्म लोगों को अच्छी लगी।

आपकी फिल्मों में मध्यवर्गीय दृष्टिकोण दिखता है। फैशन में वह काफी स्पष्ट था। मेघना माथुर किसी भी मध्यवर्गीय परिवार की महत्वाकांक्षी लडकी हो सकती है

मैं स्वयं मध्यवर्ग का हूं तो मेरी सोच भी वैसी ही है। फैशन में मेघना माथुर छोटे शहर से आई लडकी थी। उसे दर्शकों ने आइडेंटिफाई किया। इंडस्ट्री के लोगों को भी वह रिअल कैरेक्टर लगी। मैं रिअलिटी और फैंटेसी के बीच बैलेंस बना कर चलता हूं।

कामयाबी से मधुर भंडारकर में कितना बदलाव आया?

मेरा मूल स्वभाव वही है। अब व्यस्तता बढी है तो प्राथमिकताएं भी बदलीं। जो लोग मुझे राम गोपाल वर्मा के समय से जानते हैं, वे कहते हैं कि मधुर नहीं बदला। लेकिन दायरा बढा, नए दोस्त बने। साइकिल से विडियो कैसेट बांटने वाले मधुर को भूल जाऊं, ऐसा हो ही नहीं सकता।



Comments

This comment has been removed by the author.
Anonymous said…
kya un se poochha jaa sakta hai ki yadi unhein koi cycle-wala-madhur aa mile, to wo uski bharsak madad kar payenge, ya karna chahenge? aur kya unhone apne tak jane vale raston ko cycle wale madhur ke liye khula chhoda hai? sirf jigyaasaavash poochh raha hun.
Sunlight said…
Sir..interview padhkar mujhe mere sapno ka idle bhi mila...aur unko majbooti bhi mili...

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम