संजय लीला भंसाली की सपनीली दुनिया

-अजय ब्रह्मात्‍मज


संजय लीला भंसाली की सपनीली दुनिया

संजय लीला भंसाली की फिल्म गुजारिश के टीवी प्रोमो आकर्षित कर रहे हैं। इस आकर्षण के बावजूद समझ में नहीं आ रहा है कि फिल्म में हम क्या देखेंगे? मुझे संजय लीला भंसाली की फिल्में भव्य सिनेमाई अनुभव देती हैं। मैं उनके कथ्य से सहमत नहीं होने पर भी उनके सौंदर्यबोध और क्रिएशन का कायल हूं। यथार्थ से दूर सपनीली रंगीन दुनिया की विशालता दर्शकों को मोहित करती है। हम दिल दे चुके सनम और देवदास में उनकी कल्पना का उत्कर्ष दिखा है। गुजारिश एक अलग संसार में ले जाने की कोशिश लगती है।

फिल्म का नायक पैराप्लैजिया बीमारी से ग्रस्त होने के कारण ह्वील चेयर से बंध गया है। संभवत: वह अतीत की यादों और अपनी लाचारगी के बावजूद ख्वाबों की दुनिया में विचरण करता है। संजय की पिछली फिल्म सांवरिया भी एक काल्पनिक सपनीली दुनिया में ले गई थी, जिसका वास्तविक दुनिया से कोई संबंध नहीं था। इस बार एक अलग रंग है, लेकिन कल्पना कुछ वैसी ही इस दुनिया से अलग और काल्पनिक है। संजय लीला भंसाली के किरदार आलीशान घरों में रहते हैं। उनके आगे-पीछे विस्तृत खाली स्थान होते हैं, जिनमें सपनीली और सिंबोलिक सामग्रियां सजी रहती हैं। उनकी फिल्म हम दिल दे चुके सनम देखने के बाद एक समीक्षक ने लिखा था कि मानो दर्शक मक्खी हों, जो रूहआफ्जा की बोतल में फंस गए हों। इस टिप्पणी के अतिरेक को घटा दें तो हम संजय लीला भंसाली की फिल्मों के रूप विधान को समझ सकते हैं।

संजय लीला भंसाली का बचपन तंगहाली में गुजरा। छोटे कमरे में हुई परवरिश की वजह से उनमें बांहें फैलाने की छटपटाहट दिखती है। उन्होंने कहा था कि बचपन की ग्रंथियों को वे अब फिल्मों में व्यक्त करते हैं। जीवन में जो नहीं मिला और जिन चीजों से वंचित रहे, उन्हें फिल्मों में पाने की कोशिश करते हैं। निश्चित ही ऐसे दर्शक भी होंगे, जो अपने जीवन की दुर्दशा से तंग होंगे और उन्हें भंसाली की फिल्मों की भव्यता भाती होगी। संजय ने अपनी कल्पना और दृश्य संयोजन से पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है। उनकी फिल्मों की दुनिया जीवन के स्पंदन के अभाव में सिंथेटिक लगती है, लेकिन इन दिनों टीवी चैनलों पर चल रहे सीरियलों और फिल्मों में उनके सेट के प्रतिरूप दिखाई पड़ेंगे। किसी भी फिल्मकार के लिए यह छोटी उपलब्धि नहीं होती कि उसके जीवन काल में ही उसकी शैली का अनुकरण होने लगे।

संजय लीला भंसाली की फिल्मों में काव्यात्मकता रहती है। उनके किरदार परफेक्ट किस्म के होते हैं। किरदारों की भाव मुद्राओं में भी परफेक्शन दिखता है। उनके साथ काम कर चुके कलाकार बताते हैं कि किसी खास दृश्य और भाव के लिए वे घंटों खर्च कर देते हैं। ऐसा समर्पण आज के निर्देशकों में नहीं दिखता। संजय की सृजनात्मकता पर संदेह नहीं किया जा सकता, फिर भी अगर यह फिल्मकार अपने समय और समाज से जुड़ कर चलता तो हमें सार्थक और मनोरंजक फिल्में दे पाता। अभी उनकी फिल्में मुख्य रूप से स्वांत:सुखाय लगती हैं। वे अपने दर्शकों की संवेदना की परवाह नहीं करते। अपने मायावी कल्पना लोक में विचरण करते हैं। उनके खयाल अधिकांश दर्शकों के लिए अमूर्त और अबूझ होते हैं। गुजारिश ऐसी ही एक पहेली लग रही है। संजय को अपनी फिल्मों के बारे में बताना चाहिए। उन्हें समझने का सूत्र और मंत्र देना चाहिए।


Comments

Parul kanani said…
vakai guzaarish ka canvas bahut bada aur attractive hai..aur is baar music bhi khud unhone hi diya hai..mujhe to vo all rounder lagte hai..ab tak ka sabse accha sangeet ..unki tamam filmon ke mukable..ekdam roohani se geet hai..'tera zikra' ne to mujhe unka kayal bna diya hai..really i m so eager to watch this miracle :)
मान्यवर
नमस्कार
बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप .
मेरे बधाई स्वीकारें

साभार
अवनीश सिंह चौहान
पूर्वाभास http://poorvabhas.blogspot.com/

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