भौमिक होने का मतलब

अच्छी फिल्मों के लेखक सचिन भौमिक-अजय ब्रह्मात्‍मज

पिछले मंगलवार को अचानक एक पत्रकार मित्र का फोन आया कि सचिन भौमिक नहीं रहे। इस खबर ने मुझे चौंका दिया, क्योंकि मैंने सोच रखा था कि स्क्रिप्ट राइटिंग पर उनसे लंबी बातचीत करनी है। पता चला कि वे बाथरूम में गिर गए थे। वे अस्पताल में थे। वहां से लौटे तो फिर तबियत बिगड़ी और वे दोबारा काम पर नहीं लौट सके। उनके सभी जानकार बताते हैं कि वे लेखन संबंधी किसी भी असाइनमेंट के लिए तत्पर रहते थे। उनकी यह तत्परता दूसरों की मदद में भी दिखती थी।

सचिन भौमिक ने प्रचुर लेखन किया। पिछले पचास सालों में उन्होंने लगभग 135 फिल्में लिखीं। इनके अलावा अनगिनत फिल्मों के लेखन में उनका सहयोग रहा है। हर युवा लेखक की स्क्रिप्ट वे ध्यान से सुनते थे और जरूरी सलाह देते थे। एक जानकार बताते हैं कि उन्होंने दर्जनों स्क्रिप्ट दूसरों के नाम से लिखी या अपनी स्क्रिप्ट औने-पौने दाम में बेच दी। सचिन भौमिक की यह विशेषता थी कि वे किसी भी फिल्म के लेखन में ज्यादा समय नहीं लगाते थे। उनका ध्येय रहता था कि हाथ में ली गई फिल्म जल्दी से पूरी हो जाए तो अगली फिल्म का लेखन आरंभ करें। वे चंद ऐसे लेखकों में शुमार थे, जिनके पास विषय और विचार की कमी नहीं। लेखन की इस अकुलाहट से उनकी फिल्मों में अधिक गहराई और मौलिकता नहीं दिखती। एक लेखक मित्र मजाक में उनके सामने कहा करते थे कि या तो आप भौमिक हो सकते हैं या मौलिक हो सकते हैं। दोनों एक साथ होना मुश्किल है। उनकी मौत के बाद श्रद्धांजलि लिखते समय सभी के सामने उनकी बॉयोग्राफी नहीं मिलने की दिक्कत आ रही थी। गूगल या दूसरे इंटरनेट सर्च में उनका नाम टाइप करने पर केवल उनकी फिल्मों की फेहरिस्त नजर आ रही थी। साथ में काम कर चुके निर्देशकों और लेखकों के पास बताने के लिए इतना ही था कि वे बहुत अच्छे लेखक और व्यक्ति थे। यह कोई नहीं जान सका कि आखिर किन खासियतों की वजह से वे इतनी फिल्में लिख पाए?

गौर करें, तो उन्होंने हमेशा पॉपुलर स्टारों और पॉपुलर किस्म के फिल्मकारों के लिए ही लेखन किया। आरंभिक दशक में उनके लेखन में गंभीरता दिखती है, जिस पर बांग्ला साहित्य के रोमांटिसिज्म का गहरा असर है। उल्लेखनीय है कि वे बंगाल के ही प्रगतिशील लेखन से दूर रहे। वे अपने लेखन में लोकप्रिय भाव और धारणाओं पर ध्यान देते थे। उनके चरित्र सामान्य स्थितियों में सामान्य प्रतिक्रियाएं ही करते थे। उन्होंने हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा के स्क्रिप्ट लेखन को प्रचलित और स्वीकृत सांचों में बांधा और उसे मजबूत किया। हिंदी फिल्मों की यह विशेषता है कि हर सिचुएशन में किरदारों की हरकतों का अनुमान दर्शकों को हो जाता है। दर्शक इसका आनंद भी उठाते हैं। सचिन भौमिक ने अपनी फिल्मों में दर्शकों की इस सरल समझ और संवेदना पर अधिक जोर दिया। उनकी अधिकांश फिल्मों में कोई गूढ़ता नहीं है।

सचिन भौमिक की याददाश्त जबरदस्त थी। अंग्रेजी, बांग्ला और अन्य भाषाओं का साहित्य उन्होंने पढ़ रखा था। देखी हुई फिल्मों के सीन उन्हें भलीभांति याद रहते थे। जब भी किसी सीन या कैरेक्टर में उलझाव दिखता, वे किसी न किसी पुरानी कृति के रेफरेंस से उसे सुलझा लेते थे। अपने लेखन के प्रति वे अधिक सम्मोहित नहीं रहते थे। उनके एक मित्र लेखक ने बताया कि अगर उन्हें पता चलता था कि कोई और भी समान विषय पर लिख रहा है, तो वे राय-मशविरा कर दोहराव से बचने के लिए अपनी स्क्रिप्ट रोक देते थे या दूसरे की सहमति के बाद ही अपनी स्क्रिप्ट पूरी करते थे। उनके फिल्मी लेखन की खूबी और सीमा है कि वे कभी मौलिकता के आग्रही नहीं रहे। उनके लेखन का मुख्य उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना था। इस मनोरंजन की प्रेरणा कहीं से भी ली जा सकती थी।

Comments

Vibha Rani said…
पॉपुलर फिल्म की पॉपुलर समझ.
Sujit Sinha said…
sachi bhomik ko shardanjali. achha hota aur jankar dete.
या तो आप भौमिक हो सकते हैं या मौलिक हो सकते हैं। दोनों एक साथ होना मुश्किल है। लेकिन सचिन दोनों थे, भौमिक भी मौलिक भी। नमन

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