शमशाद बेगम : खामोश हो गयी खनकती शोख आवाज


-अजय ब्रह्मात्मज
    1932 में सिर्फ 13 साल की उम्र में शमशाद बेगम ने गुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में पंजाबी गीत ‘हथ जोड़ा पंखिया दा’ गाया था। इसके आठ सालों के बाद उन्होंने पंचोली आर्ट फिल्म की ‘यमला जट’ के लिए पहला पाश्र्व गायन किया। यह प्राण की पहली फिल्म थी। प्राण 3 मई को दादा साहेब फालके पुरस्कार से सम्मानित होंगे। पंचोली की फिल्मों में वह नूरजहां के साथ गाने गाती रहीं। उन दिनों लता मंगेशकर ने शमशाद बेगम के साथ कोरस गायन किया और फिर  मशहूर होने के बाद लता मंगेशकर ने उनके साथ अनेक डुएट (दोगाने) गाए। उनके संरक्षक संगीत निर्देशक गुलाम हैदर को शमशाद बेगम की आवाज में झरने की गति और सहजता दिखती थी तो ओ पी नय्यर को उनकी आवाज मंदिर की घंटी से निकली गूंज की तरह लगती थी। शमशाद की आवाज पतली नहीं थी। वह खुले गले से गाती थीं। किशोर उम्र का चुलबुला कंपन से उनके गाए गीतों के शब्द कानों में अठखेलियां करते थे। आजादी के पहले की वह अकेली आवाज थीं,जो लता मंगेशकर की गायकी का साम्राज्य स्थापित होने पर भी स्वायत्त तरीके से श्रोताओं का चित्त बहलाती रहीं। उन्होंने 1972 में ‘बांके लाल’ के लिए आखिरी गीत ‘हम किस से कहें क्या शिकवा करें’ गाया।
    लंबे समय तक शमशाद बेगम की आवाज ही उनकी पहचान बनी रही। फिल्म इंडस्ट्री के बाहर उन्हें कोई जानता-पहचानता नहीं था। उन्होंने गायकी में कदम रखने के साथ अपने पिता से वादा किया था कि वह कैमरे के सामने कभी नहीं आएंगी। तब गायिकाओं को नायिकाओं के रूप में फिल्में मिलने लगती थीं। शमशाद बेगम के पिता नहीं चाहते थे कि वह अभिनय करें। वजह जो भी रही हो, शमशाद बेगम न तो फिल्म के कैमरे के सामने आईं और न स्टिल कैमरे के ़ ़ ़ आठवें दशक के अंत में संभवत: पिता के निधन के बाद उन्होंने तस्वीरें खींचने की अनुमति दी। तब उनके प्रशंसकों ने उन्हें पहचाना।
    गुलाम हैदर ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को तीन आवाजों का तोहफा दिया - शमशाद बेगम, नूरजहां और तला मंगेशकर। गुलाम हैदर इन गायिकाओं की खूबियों को जानते थे। उन्होंने पंजाबी लोक धुनों पर शमशाद बेगम और नूरजहां की मदमस्त आवाज को परवान दिया। शमशाद की आवाज नटखट होने के साथ कशिश लिए हुई थी। गीत शोखियों से लबरेज हो या गम में डूबा हो ़ ़ ़ शमशाद की आवाज लफ्जों के एहसास को पैदा करने में माहिर थीं। ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ की मस्ती,‘कजरा मोहब्बत वाला’ की शोखी, ‘रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’ का चुहल, ‘काहे कोयल शोर मचाए रे’ की शिकायत और ‘तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे’ की चुनौती शमशाद बेगम की खासियत रही। गुलाम हैदर, नौशाद और सी रामचंद्र उनके प्रिय संगीतकार रहे। उनकी गायकी से ही नौशाद को आरंभिक कामयाबी मिली। उनके इस एहसान को नौशाद कभी नहीं भूले। यही वजह है कि लता मंगेशकर की शोहरत और जरूरत के दौर में भी वे शमशाद बेगम के लिए गायकी के मौके निकालते रहे।
    शमशाद बेगम भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की लुप्त हो चुकी कड़ी लाहौर से मुंबई आई थीं। आजादी के पहले 1943 में ही उनकी आवाज का जादू पंजाब से निकल कर मुंबई आ पहुंचा था। तभी तो महबूब ने उन्हें मिन्नतों से मुंबई बुलाया था और ‘तकदीर’ (1943) के आठ गाने गवाए थे। आज के श्रोताओं को अनुमान नहीं होगा, किंतु यह सत्य है कि शमशाद बेगम ने 500 से अधिक फिल्मों में गाने गाए। उनकी गायकी ने हमेशा श्रोताओं को सुकून दिया। लता मंगेशकर के शब्दों में वह बहुत हंसमुख और सीधी-सादी शख्सियत थीं।
    लंबे अर्से तक गुमनाम रहीं शमशाद बेगम की मृत्यु की झूठी खबर 1998 में आई थी। इंटरनेट के शुरुआती दौर में किसी ने भूलवश किसी और शमशाद बेगम की मौत को उनके साथ जोड़ दिया था। इस बार खबर सच्ची है। श्मशाद बेगम सालों से खामोश थीं। वह खामोशी भी अब ठंडी और माटी के सुपुर्द हो गयी।



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Seema Singh said…

मेरी आवाज ही पहचान है ...! यह शब्द पूरी तरह सुश्री बेगम साहिबा पर चरितार्थ होते हैं ;आज के दौर में घोर "सुनकर "आश्चर्य होता है, जो उन्होंने नाम ,शोहरत पाने के बाद भी एक लम्बे समय तक - अपनी पहचान को अँधेरे में ...! तभी शायद उन्होंने "काहे कोयल शोर मचाये रे " गीत को , दिल की गहराई और शिद्धत से गाया ,जिसे आज भी सुनते है तब अपनी खनक को दिल के आर-पार ...!

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