दरअसल ... हिंदी की इंटरनेशनल फिल्म ‘द लंचबॉक्स’



-अजय ब्रह्मात्मज
    रितेश बत्रा निर्देशित ‘द लंचबॉक्स’ 20 सितंबर को पूरे भारत में रिलीज होगी। देश-विदेश के फिल्म समारोहों में प्रशंसित हो चुकी ‘द लंचबॉक्स’ के संयुक्त निर्माता गुनीत मोंगा, अनुराग कश्यप और अरुण रंगाचारी हैं। यह हिंदी में बनी पहली इंटरनेश्नल फिल्म है। इसके निर्माण में अनेक देशों के निर्माताओं और कंपनियों ने सहयोग दिया है। सबसे पहले सिख्सा एंटरटेनमेंट और आर्टे फ्रांस सिनेमा ने पहल की। भारत और फ्रांस के बीच 1984 में संयुक्त फिल्म निर्माण का समझौता हुआ था, लेकिन पिछले तीस सालों में दोनों देशों के सहयोग से बनी पहली फिल्म ‘द लंचबॉक्स’ है। इस फिल्म के निर्माण में भारत, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका की कंपनियों ने सहयोग किया है। इस साल कान फिल्म फेस्टिवल में श्रेष्ठ निर्देशक अवार्ड भी ले चुकी है। ऐसी उपलब्धियों के बावजूद यह माना जा रहा था कि भारत में इसे रिलीज करना मुमकिन नहीं होगा।
    भारत के निर्माता, वितरक और प्रदर्शक की तिगड़ी ने महाजाल विकसित कर लिया है। इस महाजाल को छोटी और सार्थक फिल्में भेद नहीं पातीं। उन्हें सही ढंग से प्रदर्शित नहीं किया जाता। अधिकाधिक कमाई में हर हफ्ते रिलीज हो रही मेनस्ट्रीम की हिंदी फिल्में थिएटरों और स्क्रीन पर कब्जा कर लेती हैं। उनकी आपस की ही लड़ाई कभी ‘जब तक है जान’ बनाम ‘सन ऑफ द सरदार’ तो कभी ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ बनाम ‘वंस अपान ए टाइम इन मुंबई दोबारा’ के रूप में समाने आती है। ऐसे में छोटी फिल्मों को दर्शकों के अनुकूल पर्याप्त स्क्रीन मिलने की संभावनाएं कम हो जाती हैं। अगर कभी कोई फिल्म रिलीज हो भी गई तो थिएटर उसके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं। उनकी स्क्रीन टाइमिंग ऐसे रखी जाती है कि उन्हें कम दर्शक मिलते हैं। और फिर दर्शक न मिल पाने का बहाना बना कर फिल्म उतार दी जाती है। पिछले दिनों ‘शिप ऑफ थीसियस’ ने उदाहरण पेश किया कि अगर प्रदर्शकों का सहयोग मिले तो ये फिल्म भी कुछ हफ्तों तक थिएटरों में टिकी रह सती हैं।
    भारतीय संदर्भ में बड़ी कारपोरेट कंपनियां या फिल्मी हस्तियों के जुडऩे से भी परिदृश्य बदल जाता है। ‘शिप ऑफ थीसियस’ को किरण राव की वजह से बाजार और थिएटर का समर्थन मिला। पूरी उम्मीद है कि ‘द लंचबॉक्स’ को करण जौहर की वजह से व्यापक रिलीज मिलेगी। करण जौहर ने इस फिल्म के प्रिव्यू के बाद हुए प्रेस कांफ्रेंस में वादा भी किया है कि वे ‘द लंचबॉक्स’ को छोटे शहरों तक ले जाएंगे। अभी जरूरत है कि छोटे शहरों में भी ऐसी फिल्में रेगुलर थिएटर में रिलीज हों और आम दर्शकों तक पहुंचे। इधर यह अच्छी बात हुई है कि कमर्शियल और आर्ट सिनेमा के बीच की पवित्रता की दीवार ढह गई है। अब एक ही कारपोरेट कंपनी दोनों तरह की फिल्मों का निर्माण कर रही है।
    ‘द लंचबॉक्स’ अनोखी प्रेम कहानी है। साजन फर्नाडिस और इला के बीच टिफिन पत्राचार होता है। दोनों कभी मिलते नहीं हैं, लेकिन एक-दूसरे के द्वंद्व और तकलीफ को समझते हैं। उनके बीच पैदा हुई सहानुभूति ‘द लंचबॉक्स’ के जरिए आवगमन करती है। मुंबई की पृष्ठभूमि में रचित इस फिल्म को निर्देशक रितेश बत्रा ने शहर का मिजाज और स्वाद भी दिया है। ‘द लंचबॉक्स’ की कल्पना किसी और शहर में नहीं की जा सकती थी। यह फिल्म मुंबई की भागदौड़ और लिप्सा के बीच अलग-थलग और अकेले पड़ चुके दो किरदारों की भावुक कहानी है। उनके प्रेम में भौतिकता या शारीरिकता नहीं है। और न ही यह कोई अमूर्त प्रेम है। निर्देशक ने संयमित और संवेदनशील तरीके से सभी किरदारों को पेश किया है। फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दिकी निम्रत कौर और इरफान का अभिनय हिंदी फिल्मों के लिए उदाहरण और मार्गदर्शक है। तीनों की मितव्ययिता और संप्रेषणीयता मुग्ध करती है।
    निस्संदेह अभी हमारे दर्शक हर तरह की फिल्मों के लिए तैयार हैं। अनेक दर्शक और शुभचिंतक व्यर्थ ही इस चिंता से ग्रस्त रहते हैं कि चूंकि ऐसी फिल्मों का कारोबार नहीं होता, इसलिए यह दुखद स्थिति है। जरूरत है कि ऐसे चिंतित प्राणि बदलाव की वजह बने। वे खुद फिल्में देखने जाएंगे तो फिल्म के दर्शक बढ़ेंगे। अगर कोई यह उम्मीद करे कि ऐसी फिल्मों को ‘गजनी’, ‘एक था टाइगर’ या ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ के जितने दर्शक मिलेंगे तो वह भ्रम में है। हां, अगर ऐसी फिल्में व्यवस्थित तरीके से रिलीज हों तो इन्हें पर्याप्त दर्शक मिलेंगे और फिल्म को लाभ भी होगा। ‘शिप ऑफ थीसियस’ और ‘बीए पास’ लाभ में रही है। अब ‘द लंचबॉक्स’ की बारी है।

   

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