दरअसल : सिनेमाघर पहुंचें महिलाएं


-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों नवदीप सिंह की फिल्म एनएच 10 आई। सराहना और कामयाबी की वजह से यह फिल्म उल्लेखनीय हो गई है। फिल्म की निर्माता और मुख्य अभिनेत्री अनुष्का शर्मा हैं। उनके इस जुड़ाव के प्रति आम दर्शक और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का रवैया और व्यवहार सहज नहीं है। जब कभी अभिनेत्रियां निर्माता बनती हैं या मेन लीड में आती हैं तो ट्रेड सर्किल और आम दर्शक दोनों ही अतिरिक्त पारखी हो जाते हैं। वे खूबियों से अधिक कमियों की बात करते हैं। फिल्म के समर्थक के बजाए वे विरोधी के तौर पर खड़े हो जाते हैं। बताने लगते हैं कि यह फिल्म तो अवश्य ही असफल होगी। दर्शकों का उत्साह भी संतोषजनक और समर्थक नहीं रहता। तमाम संशयों के बावजूद एनएच 10 सफल रही। फिल्म के निर्देशक का सोया करिअर जाग गया। स्वयं अनुष्का शर्मा समकालीन अभिनेत्रियों में एक कदम आगे दिख रही हैं। 
एनएच 10 के प्रति आम दर्शकों के रवैए और व्यवहार पर गौर करें तो उनकी सोच के सामाजिक आधार नजर आएंगे। दर्शकों के समूह को हम एक ईकाई मान लेते हैं। ऐसा है नहीं। दर्शकों के समूह में हर उम्र,लिंग और आर्थिक पृष्ठभूमि के दर्शक होते हैं। सबकी अपनी पृष्ठभूमि,परिस्थिति और परवरिश होती है। वे इसी आधार पर किसी फिल्म को पसंद-नापसंद करते हैं। मुझे एक पाठक ने पत्र लिखा कि अगर अक्षय कुमार एक्शन के लिए हैं ही तो हम क्यों अनुष्का शर्मा को देखने जाएं? सवाल वाजिब है। हमें देखना होगा कि क्या एनएच 10 अनुष्का शर्मा के एक्शन दिखाने के लिए बनाई गई है या फिल्म की कहानी ऐसी है कि उसमें एक्शन दृश्य भी आए हैं? और फिर हिंदी फिल्मों के दर्शक समूह में पुरुषों का प्रतिशत ज्यादा रहता है,इसलिए उनके रसास्वादन एवं संतुष्टि के लिए लेखक-निर्देशक भी उनकी रुचि का खयाल रखते हैं। यह अनायास और अप्रत्यक्ष तरीके से होता है। हिंदी फिल्मों में अधिकांश कार्य पुरुष किरदार ही करते हैं। महिलाओं की उसमें सहायक या दर्शक भूमिका होती है। यहां तक कि महिला प्रधान फिल्मों में नायिकाएं सहयोगी पुरुष किरदारों पर निर्भर करती हैं।
होता यह है कि अगर फिल्म की कहानी और घटनाएं महिलाओं के नियंत्रण में आ जाएं तो पुरुष बहुल दर्शक समूह कसमसाने लगता है। हम अपने दैनंदिन जीवन में ही देखें तो पुरुष औरतों के अधीन और आदेश में नहीं रहना चाहते। सदियों से चली आ रही पुरुष प्रधानता ने पुरुषों और समाज का ऐसा स्वभाव बना दिया है कि हमें इसमें कुछ भी गलत और अस्वाभाविक नहीं लगता। लोग कहते ही हैं न-आखिर वह पुरुष है,मालिक है और अंतिम जिम्मेदारी तो उसकी की है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सफल महिलाएं भी ऐसे प्रतिरोध का मुकाबला नहीं कर पातीं। फिल्में देखते समय समाज का यही स्वभाव सक्रिय रहता है। खास कर हिंदी फिल्मों में चरित्रों की रचना और उनका निर्वाह पुरुष संचेतना के लिहाज से किया जाता है। याद करें तो दुर्बल,शोषित और पीडि़त किरदारों की महिला प्रधान फिल्में हमें पसंद आती रही हैं। उन्हें सम्मानित भी किया जाता है। क्यों नहीं क्वीन की नायिका और अभिनेत्री को पसंद और स्वीकृत किया जाता? कुछ अपवादों को छोड़ दें तो यही कहा और बताया जाता है कि महिला प्रधान फिल्में नहीं चलतीं।
दरअसल,जरूरत है कि महिलाएं सिनेमाघरों में आएं। फिल्में देखने के लिए वे अपने पुरुष पिता,दोस्त,पति,प्रेमी,जीजा और भाई पर निर्भर नहीं रहें। क्या जरूरी है कि फिल्में चुनने और देखने का फैसला कोई पुरुष ही करे? किसी भी सिनेमाघर के निकास के पास खड़े हो जाएं और फिल्म देख कर निकलते दर्शकों पर गौर व गिनती करें तो महिला दर्शकों का प्रतिशत 100 में 20 से अधिक नहीं मिलेगा। यह कठोर सच्चाई है। जीवन की सभी क्षेत्रों की तरह यहां भी महिलाओं की भागीदारी कम है। अगर महिला दर्शक बढ़ेंगी और संख्या में पुरुषों के बराबर हो जाएंगी तो यकीन करें लेखक और निर्देशक भी फिल्मों की कहानी और किरदारों के चुनाव में महिलाओं को महत्व देने लगेंगे। उनकी रुचियों का खयाल रखेंगे। अभी दर्शकों में पुरुष-महिला अनुपात असंतुलित और पुरुषों की तरफ झुका हुआ है,इसलिए भी महिला प्रधान फिल्में ज्यादा नहीं चल पातीं। महिलाओं के विजय और शौर्य गाथाओं से पुरुष दर्शक बिदक जाते हैं? 

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