मिडिल क्‍लास औरत की अधूरी कहानी-महेश भट्ट




-अजय ब्रह्मात्‍मज
    सोल्जिनित्सिन ने कहा था कि किसी भी समाज की भावनात्‍मक गहराई नापनी हो तो उस समाज की कलाएं देख लें। उससे आप उस समाज के नैतिक रेशों को पहचान लेंगे। मौसम बदलता है तो पत्‍तों से पता चलता है। समाज में परिवर्तन की आहट फिल्‍मों की बदलती कहानियों से मिलने लगती है। उनका ढांचा बदलता है। मुझे लगता है कि भारतीय समाज में गहरे स्‍तर पर परिवर्तन घट चुका है। अब मुंबई की फिल्‍म इंडस्‍ट्री में इसे महसूस किया जा रहा है। पीकू और तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स इसके उदाहरण हैं। इसकी कड़ी में हमारी अधूरी कहानी को देख सकते हैं। 21 वीं  सदी के दूसरे दशक में आ रही इन फिल्‍मों को देख कर लोगों को लग रहा है कि ऐसी कहानियां पहले नहीं आई थीं। मैं तो  कहूंगा कि ऐसा सिनेमा पहले भी था, अपनी जड़ों से जुड़ा और संस्‍कृति से संबद्ध।
    अभी की फिल्‍मों के रिदार पहले से जटिल हो गए हैं। संस्‍कारों की लगाम से वे मुक्‍त होना चाहते हैं। हमारी अधूरी कहानी मिडिल क्‍लास हिंदुस्‍तानी औरत की कहानी है। वह मंगलसूत्र पहनती है। बिंदी लगाती है। अकेली जान ही संतान पालती है। इसकी प्रेरणा मुझे अपने जीवन से ही मिली। मैंने अपनी मां को तनहा पाया। पिता के होने के बाद भी वे थे नहीं। उनकी गैरमौजूदगी का एहसास हमेशा रहा। कहीं पर यह उनकी कहानी है। मेरे पिता,मां और मेरी सौतेली मां के जीवन का सार है इसमें। फिल्‍म में आप उनके किरदारों की तलाश न करें। उनके जिए हुए सच से मैंने साच हासिल की है। सारांश,अर्थ और जनम के वक्‍त यह सच मेरी सोच में नहीं था। उस वक्‍त मेरे अंदर गुस्‍सा और आक्रोश पल रहा था। ऐसा लगता था कि हमारे ऊपर जुल्‍म हुआ है। मन में भावना रहती थी कि अपनी कहानियों में हम आप का हराएंगे और जीतेंगे।
    66 की उम्र में आने के बाद दर्द झेलने और तकलीफ पीने के बाद महसूस हो रहा है कि वे सभी इंसान थे। अभी मैं उनकी नजर से भी उस दौर को देखने की कोशिश कर रहा हूं। अभी सब बेचारे लगते हैं। सभी अपने संस्‍कारों और सीमाओं के दायरे में दिख रहे हैं। मैंने उन्‍हें ही तीन किरदारों के जरिए कहा है। उन किरदारों को विध्‍्या बालन,इमरान हाशमी और राजकुमार राव निभा रहे हैं। विद्या के अंदर सती और सीता है। राधा बनने की प्‍यास भी है। अपनी यात्रा में वह दुर्गा मां भी बन जाती है। कंेद्रीय कथा विद्या के दृष्टिकोण से कही गई है। वह बराबर का दर्जा चाहती है। हमारी अधूरी कहानी प्रासंगिक फिल्‍म है। अर्थ की शबाना आजमी में विद्रोह था। उसने अपने पति को आड़े हाथों लिया था। इसमें विद्या पति से जूझती है। यह हिंदस्‍तानी दायरे की औरत के विद्रोह की कहानी है। वह अपनी मुक्ति को पश्चिमी संदर्भ से परिभाषित नहीं कर रही है। वह पूछती है कि मांग मेरी और सिंदूर तेरे नाम का... कोख मेरी और संतान तेरे नाम का। वह मूलभूत सवाल पूछती है। वह जानना चाहती है कि शादी के बाद पति का नाम उसे जिस्‍म और रुह में क्‍यों गाड़ दिया जाता है। मेरे बचपन की यादें हैं। जिन औरतों से मेरा प्रेम हुआ,उन सभी में मैंने अपनी मां के ही अंश देखे। सभी तनहा मिलीं। मुझे तनहा छोड़ गईं। कुछ लोग कहते हैं कि मैं औरतों के नजरिए से ही अपनी कहानी कहता हूं।
    मुश्किल खेल है। मोहित सूरी ने भी मेहनत की है। हमारी अधूरी कहानी में लेखक महेश भट्ट नए मुहावरों के साथ मिलेगा। जब हम खुद अपनी जिंदगी को जीवनीकार के तौर पर देखते हैं तो ऐसी कहानियां आती हैं। यह आत्‍मकथा नहीं है। यह खुद को ही देखना है जिंदगी के आईने में...इसमें दूसरे के दर्द को भी शामिल कर लेते हैं। मोहित ने मेरी विरासत को संभाल लिया है और आगे ले गया है।
    कहानियां समाज का नैतिक कंपास होती हैं। फिल्‍मों के किरदार हमें सालों साल तक प्रभावित करते हैं। मुझे यकीन है कि वसुधा की जिंदगी दर्शकों को प्रभावित करती है। पूजा भट्ट ने क्रांतिकारी जिंदगी जी है,लेकिन इस फिल्‍म को देख कर कांपती हुई निकली थीं। हमारी अधूरी कहानी देश की आम औरतों की कहानी है। जिंदगी की सारी कहानियां अधूरी रहती हैं। संपूर्णता तो एक भ्रम है। सच्‍ची प्रेमकहानियां तड़प देती हैं। किसी ने कहा था कि जिस जिंदगी की परीक्षा नहीं हुई,वह जिंदगी बेमानी है। तो किसी ने कहा कि जिंदगी जी ही नहीं गई तो उसकी परीक्षा क्‍या होगी ? मैंने तो जिंदगी जी है और उसकी परीक्षा भी दी है।

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