दरअसल : तुम्‍हारी राजनीति क्‍या है डायरेक्‍टर



-अजय ब्रह्मात्‍मज
    हिंदी में राजनीतिक फिल्‍में कम बनती हैं,लेकिन हर फिल्‍म का राजनीतिक पक्ष होता है। यह विरोधाभासी तथ्‍य नहीं है। इसे सही संदर्भ और परिप्रेक्ष्‍य में समझा जाए तो स्‍पष्‍ट होगा कि हर तरह की फिल्‍म की एक राजनीति होती है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री की मुख्‍यधारा की पलायनवादी फिल्‍मों में भी राजनीति रहती है। दरअसल,राजनीति की सही समझ नहीं रखने से हम यह कहने और बताने की भूल करते हैं कि राजनीति में हमारी रुचि नहीं है। हिंदी फिल्‍मों के ज्‍यादातर फिल्‍मकार यह कहते मिल जाएंगे कि हमारी फिल्‍मों में राजनीति नहीं रहती। राजनीति से हमारा क्‍या लेना-देना,हम तो फिल्‍में बनाते हैं।
    समझने की जरुरत है कि कोई भी फिल्‍म वैाक्‍यूम में नहीं बनती। एक खास परिवेश में फिल्‍मों की प्‍लानिंग की जाती है। कहानी का चुनाव हो या लेखन...राजनीति की शुरूआत यहीं से हो जाती है। लेखक की अपनी पूष्‍ठभूमि और परवरिश से कहानियां तय होती हैं। यहां तक कि अगर लेखक को स्‍टार,प्रोड्यूसर या डायरेक्‍टर कहानी का आयडिया देते हैं तो उसका भी राजनीतिक संदर्भ होता है। उस कहानी को पर्दे पर जीवंत करने वाले कलाकारों की अपनी राजनीति होती है,जो उनके अभिनय और चरित्र निर्वाह से प्रकट होती है। फिल्‍म के निर्माण और वितरण की भी राजनीति होती है। उसके बाद दर्शक आते हैं। उनकी पसंद-नापसंद के पीछे भी राजनीति रहती है। कहने का तात्‍पर्य यह है कि फिल्‍म निर्माण की पूरी प्रक्रिया ही राजनीतिक है।
    अनेक फिल्‍मकार राजनीति से परहेज करते दिखते हैं,जबकि उनकी कथित अराजनीतिक फिल्‍मों में भी राजनीति रहती है। अगर फिल्‍मकार की राजनीतिक समझ अच्‍छी हो तो वह कायदे से फिलम में प्रकट होती है। राजनीतिक समझ नहीं होने पर वे अनजाने ही प्रचलित राजनीति के शिकार होते हैं। उन्‍हें मालूम भी नहीं होता और वे किसी और की राजनीति कर जाते हैं। एक युवा फिल्‍मकार हैं। वे सभी के प्रिय हैं। उनकी फिल्‍में अराजनीतिक होने के चक्‍कर में अराजक हो जाती है,जो आखिरकार रुढि़वादी और दक्षिणपंथी सोच को बल देती है। अपनी जिंदगी,व्‍यवहार और प्रतिक्रियाओं में वे प्रगतिशील और वामपंथी नजर आते हैं,लेकिन उनकी फिल्‍मों को खुरचें तो वे प्रतिक्रियावादी साबित होंगी।
    समस्‍या समीक्षकों और दर्शकों की भी है। आम तौर पर उन्‍हीं फिल्‍मों को राजनीतिक माना जाता है,जिनमें पार्टी-पॉलिटिक्‍स की बातें हों। अगर फिल्‍म किसी राजनेता पर बन रही हो तो उसे पॉलिटिकल फिल्‍म मान लिया जाता है। धीरे-धीरे देश इस कदर असहिष्‍णु और अनुदार होता जा रहा है कि अब खुले तौर पर राजनीतिक पहलुओं से फिल्‍में बनाना नामुमकिन हो गया है। सभी इतने संवेदनशील और टची हो गए हैं कि हल्‍के आक्षेप और उल्‍लेख से भी आहत हो जाते हैं। अधिकोश फिल्‍मकारों का कोई पद्वा नहीं होता। उनका निष्‍पक्ष होना भी एक राजनीति है। दरअसल,वे सभी यथास्थितिवादी होते हैं। उन्‍हें डर रहता है कि पक्ष स्‍पष्‍ट करने पर उनके दर्शक कम हो जाएंगे या उनकी फिल्‍में विवादों में फंस जाएंगी।
    सभी सुरक्षित रहना चाहते हैं। इस सुरक्षा में ही वे लाभ कमाना चाहते हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में ऐसे फिल्‍मकार कम हैं,जिनकी फिल्‍मों में स्‍पष्‍ट राजनीति दिखती है। ऐसा उनकी राजनीतिक समझदारी की वजह से होता है। ज्‍यादातर फिल्‍मकार तो जानते भी नहीं कि उनकी फिल्‍में किस राजनीति का समर्थन कर रही हैं। यही हाल कलाकारों का भी है। वे अपनी फिल्‍मों और भूमिकाओं के चुनाव का कारण नहीं समझ पाते। अपनी भूमिकाओं की राजनीतिक व्‍याख्‍या करना तो दूर की बात है।
    इन सारे कारणों से हमारे कलाकार और फिल्‍मकार राजनीतिक प्रक्रियाओं से बचते हैं। हमेशा सत्‍ता के करीब रहने की कोशिश में वे विरोध या विपक्ष में होने से बचते हैं। सामाजिक मुद्दों और आपदाओं के समय तो उनकी सक्रियता दिखती है,लेकिन राजनीतिक मुद्दों पर लंबी और गहरी खामोशी ही जाहिर होती है। गौर करें तो अभी समाज को हिला देने वाली घटनाओं से भी वे अप्रभावित दिख रहे हैं।

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आप को आज १२..१०.१५ के िदन लखनऊ फेस्टिवल में सुन कर अच्छा लगा...

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