सिनेमालोक : भटकती बहस नेपोटिज्म की

 

सिनेमालोक

भटकती बहस नेपोटिज्म की

सही परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में विमर्श आगे नहीं बढ़ रहा है. नेपोटिज्म और आउटसाइडर को लेकर चल रहा वर्तमान विमर्श अनेक दफाअतार्किक, निराधार और धारणागत टिप्पणियों से उलझता जा रहा है. कोई दिशा नहीं दिख रही है. निदान तो दूर की बात है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जारी इस प्रवृत्ति से इनकार नहीं किया जा सकता. समाज के हर क्षेत्र की तरह यहां भी पहले से स्थापित हस्तियां अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए हर तिकड़म अपनातीहैं. भाई-भतीजावाद आम बात है, लेकिन इसी सामाजिक और पेशेगत व्यवस्था को भेद कर कुछ प्रतिभाएं मेहनत, लगन और बेहतर काम से अपनी जगह बना लेती हैं. शुरू शुरू में आउटसाइडर रही प्रतिभाएं 20-25 सालों तक टिकने के बाद इनसाइडर बन जाती हैं. अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और अक्षय कुमार ताजा उदाहरण है. स्वभाविक रूप से अभिषेक बच्चन, आर्यन और आरो का फिल्मी झुकाव होता है. परिवार के प्रभाव में उन्हें आसानी से फिल्में मिलीं और आगे भी मिलेंगी,लेकिन अपनी प्रतिभा और अभ्यास से ही वे दर्शकों के दिलों में जगह बना पाते हैं.

यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है. आगे भी चलता रहेगा. इस संदर्भ में मनोज बाजपेयी ने सही बात कही है कि फिल्म इंडस्ट्री की स्थापित हस्तियों को स्वविवेक और समझदारी से तय करना होगा कि वे कैसे बाहरी प्रतिभाओं को सही समय पर अवसर दे सकें.चूंकि फिल्म निर्माण महंगा सौदा है, इसलिए कलाकारों और तकनीशियनों के चुनाव में उनकी दक्षता और क्षमता को नजर में रखा जाता है. नए कलाकारों को लांच करते समय उनकी पूरी ट्रेनिंग होती है.यह ट्रेनिंग तत्कालीन  परिपाटी के मुताबिक होती है. पांचवें-छठे दशक में भाषा, उच्चारण और संवाद अदायगी पर ज्यादा जोर रहता था. उर्दू और हिंदी का अभ्यास करवाया जाता था. इन दिनों जिम और लुक पर विशेष ध्यान दिया जाता है. स्टंट का प्रशिक्षण दिया जाता है. सभी कलाकारों से अपेक्षा रहती है कि वे नृत्य में कुशल हों. कभी कलाकारों का गायक होना अतिरिक्त योग्यता रखता था.उन्हें ज्यादा फिल्में मिलती थीं. अभी भाषा और गायकी आदि पर कोई खास ध्यान नहीं दिया जाता.

पिछले दिनों कंगना रनोट ने एक टीवी चैनल के इंटरव्यू में फिर से करण जौहर और आदित्य चोपड़ा पर नेपोटिज्म के आरोप लगाए.यह उनका स्थायी राग है. बार-बार दोहराए जाने से उनकी बात का असर कम हो रहा है. अपने इस इंटरव्यू में उन्होंने बेवजह तापसी पन्नू और स्वरा भास्कर का नाम भी घसीट लिया. कंगना रनोट और उनकी बहन रंगोली चंदेल के निशाने पर तापसी पन्नू रहती हैं. कंगना मानती है कि उनके साथ खड़ी नहीं होने की वजह से वे दोनों जौहर-चोपड़ा मंडली के समर्थन में हिन्. तापसी पन्नू हमेशा जवाब देती हैं. उनके जवाब संतुलित और संयमित होते हैं. इस सन्दर्भ में ऋचा चड्ढा ने पिछले दिनों विस्तार से अपने ब्लॉग पर लिखा है. उन्होंने एक आउटसाइड की नजर से पूरे मामले को थोड़े अलग संदर्भ में देखा है. अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने तार्किक बातें की हैं.

सरकार और संस्था के हस्तक्षेप से नेपोटिज्म नहीं रोका जा सकता है. ऐसा कोई नियम या प्रावधान नहीं बनाया जा सकता. इसमें कोटा सिस्टम में आरक्षण भी नहीं लागू किया जा सकता. वास्तव में फिल्म और अन्य कला परफार्मेंस व्यक्तिगत प्रतिभा का प्रदर्शन है. टीम वर्क के बावजूद अनेक प्रतिभाओं के सामूहिक प्रयास से ही संतोषजनक परिणाम निकलते हैं. फुटबॉल-क्रिकेट का मैच हो या नाटक-फिल्म का प्रदर्शन.... खेलो और फिल्मों में खिलाड़ियों और कलाकारों की व्यक्तिगत प्रतिभा व योगदान भी गौर किया जाता है.वहां दर्शक खिलाड़िया और कलाकार के परिवार का ध्यान नहीं रखता. वह बेहद क्रूरता से रिजेक्ट कर देता है’

प्रयास और इंतजाम के बावजूद कलाकारों को थोपा नहीं जा सकता है. दर्शक उनकी निराई और छटाई करते रहते हैं. वे योग्य को देखते और सराहते हैं. अयोग्य को किनारे कर देते हैं. आखिरकार प्रतिभा ही टिकती है.

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