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फिल्‍म समीक्षा : पीकू

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-अजय ब्रह्मात्‍म्‍ाज  **** चार स्‍टार  कल शाम ही जूही और शूजीत की सिनेमाई जुगलबंदी देख कर लौटा हूं। अभिभूत हूं। मुझे अपने पिता याद आ रहे हैं। उनकी आदतें और उनसे होने वाली परेशानियां याद आ रही हैं। उत्तर भारत में हमारी पीढ़ी के लोग अपने पिताओं के करीब नहीं रहे। बेटियों ने भी पिताओं को अधिक इमोशनल तवज्जो नहीं दी। रिटायरमेंट के बाद हर मध्यीवर्गीय परिवार में पिताओं की स्थिति नाजुक हो जाती है। आर्थिक सुरक्षा रहने पर भी सेहत से संबंधित रोज की जरूरतें भी एक जिम्मेदारी होती है। अधिकांश बेटे-बेटी नौकरी और निजी परिवार की वजह से माता-पिता से कुढ़ते हैं। कई बार अलग शहरों मे रहने के कारण चाह कर भी वे माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाते। 'पीकू' एक सामान्य बंगाली परिवार के बाप-बेटी की कहानी है। उनके रिश्ते को जूही ने इतनी बारीकी से पर्दे पर उतारा है कि सहसा लगता है कि अरे मेरे पिता भी तो ऐसे ही करते थे। ऊपर से कब्जियत और शौच का ताना-बाना। हिंदी फिल्मों के परिप्रेक्ष्य में ऐसी कहानी पर्दे पर लाने की क्रिएटिव हिम्मत जूही चतुर्वेदी और शूजीत सरकार ने दिखाई है। 'विकी डोनर' के बाद एक बार

इरफान की अनौपचारिक बातें-3

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3 आखिरी किस्‍त  इरफान ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्‍लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्‍नी पर इसे तीन किस्‍तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्‍या राय है ? आप उन्‍हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्‍य लिख्‍ें chavannichap@gmail.com   कल से आगे....  -अजय ब्रह्मात्‍मज         यहां की बात करूं तो 2014 का पूरा साल स्पेशल एपीयरेंस में ही चला गया। पहले गुंडे किया और फिर हैदर। अभी पीकू कर रहा हूं। मुझे यह पता है कि दर्शक मुझे पसंद कर रहे हैं। वे मुझ से उम्मीद कर रहे हैं। मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि वे निराश न हों। मैं कुछ सस्पेंस लेकर आ सकूं। आर्ट फिल्म करने में मेरा यकीन नहीं है , जिसमें डायरेक्टर की तीव्र संलग्नता रहती है। ऐसी फिल्में आत्ममुग्धता की शिकार हो जाती हैं। आर्ट हो है , पर वैसी फिल्म कोई करे जिसमें कुछ नया हो। ना ही मैं घोर कमर्शियल फिल्म करना चाहता हूं। फिर भी सिनेमा के बदलते स्वरूप में अपनी तरफ से कुछ योगदान करता रहूंगा। पीकू के बाद तिग्मांशु के साथ एक फिल्म करूंगा। और भी क

इरफान की अनौपचारिक बातें-2

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2.  इरफान ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्‍लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्‍नी पर इसे तीन किस्‍तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्‍या राय है ? आप उन्‍हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्‍य लिख्‍ें chavannichap@gmail.com   कल से आगे....  -अजय ब्रह्मात्‍मज       मीरा नायर की जब फिल्म मिली थी , उसके ठीक पहले मैंने नेमसेक किताब पढक़र खत्म की थी। मुझे लगा कि कुछ दैवीय हस्तक्षेप हो रहा है। अभी मैंने किताब खत्म की और अभी मुझे यह रोल मिल रहा है। किताब में तो मेरा किरदार पृष्ठभूमि में ही रहता है। जिंदगी बार-बार उसका इम्तिहान ले रही है। शुरू में मीरा ने मुझसे तीन महीने का समय ले लिया था। तब कोंकणा सेन शर्मा फिल्म में थीं। फिर पता चला कि तब्बू कर रही हैं। बीच में उन्होंने अभिषेक बच्चन को भी लाने की कोशिश की। शूटिंग टलती रही और मेरा समय बर्बाद होता रहा। छह महीने के  इंतजार के बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। तब मुझे कुल 15 लाख रुपए मिले थे। मैंने तय कर लिया था कि नेमसेक करनी है। मैं टिका रहा। मैं कुछ मांग कर

इरफान की अनौपचारिक बातें

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इरफान ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्‍लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्‍नी पर इसे तीन किस्‍तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्‍या राय है ? आप उन्‍हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्‍य लिख्‍ें chavannichap@gmail.com - अजय ब्रह्मात्मज सीखते-सीखते यहां तक तो आ गया। मैंने जो प्रोफेशन चुना है , वह मेरे मकसद और लक्ष्य के करीब पहुंचने के लिए है। उसमें मदद मिले तो ठीक है। बाकी शोहरत , पैसा , नाम...य़ह सब बायप्रोडक्ट है। यह सब तो मिलना ही था। यह सब भी मिल गया। इनके बारे में सोच कर नहीं चला था। जयपुर से निकलते समय कहां पता था कि कहां पहुंचेंगे ? अभी पहुंचे भी कहां हैं। सफर जारी है। मुझे याद आता है एक बार बेखयाली में मैंने मां से कुछ कह दिया था। थिएटर करता था तो मां ने परेशान होकर डांटा था ...य़ह सब काम आएगा क्या ? मैंने अपनी सादगी में कह दिया था कि आप देखना कि इस काम के जरिए मैं क्या करूंगा ? मेरे मुंह से निकल गया था और वह सन्न होकर मेरी बात सुनती रह गई थीं। उन्हें यकीन नहीं हुआ था। तब यह मेरा इरादा था। पता नहीं

इरफान की अनौपचारिक बातें

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-अजय ब्रह्मात्मज मंजिल अभी बाकी है       सीखते-सीखते यहां तक तो आ गया। मैंने जो प्रोफेशन चुना है,वह मेरे मकसद और लक्ष्य के करीब पहुंचने के लिए है। बाकी शोहरत,पैसा,नाम ... य़ह सब बायप्रोडक्ट है। यह सब तो मिलना ही था। इनके बारे में सोच कर नहीं चला था। जयपुर से निकलते समय कहां पता था कि कहां पहुंचेंगे? अभी पहुंचे भी कहां हैं। सफर जारी है। मुझे याद आता है एक बार बेखयाली में मैंने मां से कुछ कह दिया था। थिएटर करता था तो मां ने परेशान होकर डांटा था ...य़ह सब काम आएगा क्या? मैंने अपनी सादगी में कह दिया था कि आप देखना कि इस काम के जरिए मैं क्या करूंगा? मेरे मुंह से निकल गया था और वह सन्न होकर मेरी बात सुनती रह गई थीं। उन्हें यकीन नहीं हुआ था। तब यह मेरा इरादा था। पता नहीं था कि कैसे होगा ...क्या होगा? हर मां तो ऐसे ही परेशान रहती है। उन्हें लगता है कि हम वक्त बर्बाद कर रहे हैं। उन्होंने जो दुनिया नहीं देखी है,उसमें जाने की बात से ही कांप जाती हैं। अपने देश में हर मां-बाप की चिंता रहती है कि बच्चे कैसे और कब कमाने लगेंगे? बदल गया है सिनेमा      अभी सिनेमा बदल गया है। करने लायक कुछ फिल्मे

Irrfan Khan: Defying Definition

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                              by Sohini Mitter Irrfan Khan resists being labelled. It is limiting, says the actor, whose search for more meaningful roles continues despite the overwhelming affirmation from critics and audiences alike A way from the hustle and bustle of mainland Mumbai rests a quiet stretch of land dotted with leafy palm trees that sway in the winter breeze and monstrous old buildings that are being renovated into hotels, resorts or residential complexes. Called Madh Island, the area is not only far but also far removed from B-town’s usual cacophony. Its famous resident, Irrfan Khan, is looking for just that. Cut off from what he calls the corrupting influence of “a movie-city like Bombay” on an artist, Irrfan, 46, inhabits—and defines—a world of his own, just like in his movies. Dressed impeccably in a white blazer and slim-fit grey trousers, beard trimmed to perfection, hands gently rolling a cigarette—something he “g

संवाद और संवेदना की रेसिपी और लंचबॉक्स :सुदीप्ति

यह सिर्फ 'लंचबॉक्स ' फिल्म की समीक्षा नहीं है. उसके बहाने समकालीन मनुष्य के एकांत को समझने का एक प्रयास भी है. युवा लेखिका सुदीप्ति ने इस फिल्म की संवेदना को समकालीन जीवन के उलझे हुए तारों से जोड़ने का बहुत सुन्दर प्रयास किया है. आपके लिए- जानकी पुल.से साभार और साधिकार =========================================== पहली बात: इसे‘लंचबॉक्स’ की समीक्षा कतई न समझें. यह तो बस उतनी भर बात है जो फिल्म देखने के बाद मेरे मन में आई. अंतिमबात यानी कि महानगरीय आपाधापी में फंसे लोगों से निवेदन: इससे पहले कि ज़िंदगी उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे, जहाँ खुशियों का टिकट वाया भूटान लेना पड़े, कम-से-कम ‘लंचबॉक्स’ देख आईये. अंदर की बात: दरअसल कोई भी फिल्म मेरे लिए मुख्यत: दृश्यों में पिरोयी गई एक कथा की तरह है.माध्यम और तकनीक की जानकारी रखते हुए किसी फिल्म का सूक्ष्म विश्लेषण एक अलग और विशिष्ट क्षेत्र है,जानती हूँ. फिर भी कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं,जिन्हें देख आप जो महसूस करते हैं उसे ज़ाहिर करने को बेताब रहते है. ऐसी ही एक फिल्म है ‘लंचबॉक्स’. ‘लंचबॉक्स’ में तीन मुख्य किरदा