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Showing posts with the label सिने संस्कार

हिन्दी टाकीज:फिल्में देखने का मज़ा तो दोस्तों के साथ ही आता है-निशांत मिश्रा

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हिन्दी टाकीज-२५ इस बार निशांत मिश्रा के संस्मरण...निशांत ने बड़े प्यार से उन दिनों को याद किया है और हिन्दी टाकीज कि कड़ी को आगे बढाया है.उनके संस्मरण के साथ हिन्दी टाकीज २५ वें पड़ाव पर आ चुका है.योजना के मुताबिक अभी ७५ पड़ाव बाकी हैं.चवन्नी को उम्मीद है कि हु सब मंजिल तक अवश्य पहुंचेंगे। निशांत अपने बारे में लिखते हैं...मूलतः भोपाल का रहने वाला हूँ, उम्र ३४ साल। पेशे से भारत सरकार के नई दिल्ली स्थित एक कार्यालय में अनुवादक हूँ। सैंकडों चीज़ों के बारे में जानता हूँ, माहिर किसी में नहीं हूँ। हिन्दी में अनुवाद करके एक ब्लॉग पर ज़ेन कथाएँ और अन्य नैतिक कथाएँ पोस्ट करता हूँ। एक ब्लॉग चित्रगीत पर पुराने फिल्मी गीतों के वीडियो गीतों के बोलों के साथ पोस्ट करता हूँ। मेरी पसंद की दूसरी बातों के बारे में मेरे ब्लौगर प्रोफाइल से जानकारी मिल सकती है। मेरा फ़ोन नम्बर है : 9868312120 और मेरा ई-मेल है : the.mishnish@gmail.com लगभग ३4 साल का हो गया हूँ और सिनेमाहाल में सैंकडों फिल्में देख चुका हूँ। चवन्नी-चैप पर बहुतों की यादें पढ़कर मैंने भी सोचा कि फिल्मों के बारे में कुछ लिखा जाए। मेमोरी मेरी पहले काफ

हिन्दी टाकीज:तब मां भी साथ होती और सिनेमा भी-विनीत कुमार

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हिन्दी टाकीज-२४ विनीत कुमार मीडिया खासकर टीवी पर सम्यक और संयत भाव से लिख रहे हैं। समझने-समझाने के उद्देश्य से सकारात्मक सोच के साथ मीडिया के प्रभाव पर हिन्दी में कम लोग लिख रहे हैं.विनीत की यात्रा लम्बी है.चवन्नी की उम्मीद है कि वे भटकेंगे नहीं.विनीत के ब्लॉग का नाम गाहे-बगाहे है,लेकिन वे नियमित पोस्ट करते हैं.उनके ब्लॉग पर जो परिचय लिखा है,वह महत्वपूर्ण है...टेलीविजन का एक कट्टर दर्शक, कुछ भी दिखाओगे जरुर देखेंगे। इस कट्टरता को मजबूत करने के लिए इसके उपर डीयू से पीएच।डी कर रहा हूं। एम.फिल् में एफएम चैनलों की भाषा पर काम करने पर लोगों ने मुझे ससुरा बाजेवाला कहना शुरु कर दिया था,इस प्रसंग की नोटिस इंडियन एक्सप्रेस ने ली और इसके पीछे का तर्क भी प्रकाशित किया। मुझे लगता है कि रेडियो हो या फिर टीवी सिर्फ सूचना,मनोरंजन औऱ टाइमपास की चीज नहीं है,ये हमारे फैसले को बार-बार बदलने की कोशिश करते हैं,हमारी-आपकी निजी जिंदगी में इसकी खास दख़ल है। एक नयी संस्कृति रचते हैं जो न तो परंपरा का हिस्सा है और न ही विरासत में हासिल नजरियों का। आए दिन बदल जानेवाली एक सोच। इस सोच को समझने के लिए जरुरी है लगा

हिन्दी टाकीज:फ़िल्म देखना आसान हो गया है-राजीव जैन

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हिन्दी टाकीज-२३ जयपुर से प्रकाशित एक दैनिक समाचार पत्र में वरिष्ठ उपसंपादक, सात साल से में रहकर दुनिया के बारे में कुछ जानने का प्रयास कर रहा हूं। `शुरुआत´ नाम से ब्लॉग लिख रहा हूं। अपने परिचय में राजीव जैन ने इतना ही लिखा.लेकिन उनके ब्लॉग पर कुछ और जानकारियां हैं... पेशे से पत्रकार, वर्तमान में जयपुर के एक दैनिक समाचार पत्र में कार्यरत, उम्र 27 साल, कद 5 फुट 8।5 इंच, दूसरों की खबरों की चीरफाड का 6 साल से ज्‍यादा का अनुभव, शुरुआत से डेस्‍क पर ही था। रिपोर्टिंग शौकिया ही कि दस बीस बार, दो पांच बार दिल्‍ली में या फिर यूं किसी संपादक या डेस्‍क इंचार्ज ने किसी प्रेस कांफ्रेंस या खाने वाले प्रोग्राम में बैचलर होने के वास्‍ते कवरेज के लिए भेज दिया, लेकिन अपना कुछ लिखने का यह पहला ही प्रयास है। कोशिश कर रहा हूं कि इसे नियमित रख सकूं, सीधे यही लिखने से कुछ मानवीय त्रुटियां रह सकती हैं, एडिटिंग आप लोग पढते हुए कर लीजिएगा सुझाव सादर आमंत्रित हैं। अधिक जानकारी के लिए मेल करें mr.rajeevjain@gmail.com पर राम तेरी गंगा मैली मुझे अब याद नहीं कि इस फिल्‍म में क्‍या था, मैं शायद तब बमुश्किल छह-सात साल

हिन्दी टाकीज:पर्दे में खो जाने का आनंद अजीब होता है-गिरीन्द्र

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हिन्दी टाकीज-२२ इस बार गिरीन्द्र ने अपने संस्मरण लिखे हैं.गिरीन्द्र का एक ब्लॉग है]जिसका नाम उन्होंने अनुभव रखा है। अपने बारे में वे लिखते मैथिली में कहूं तो- 'कहबाक कला सीखे छी'। वैसे हर पल सीखने की चाहत रखता हूं। गांव पसंद है और शहर में इंटरनेट से जुड़ा कंप्यूटर। किताबें,गजलें और गाड़ी के पीछे की सीट पर बैठकर सड़कों को देखना पसंद है। ईमेल है- girindranath@gmail।com और बात करने का नंबर- 09868086126 सिनेमा घर, टॉकिज और न जाने लोग इस लाजबाब घर को क्या से क्या कहते हैं, लेकिन हमारे शहर में लोग इसे कहते हैं- सिलेमा घर। मैं इससे दूर ही रहा, काफी कम जाना होत था। याद करने की कोशिश करता हूं तो शायद 1987 में पहली बार सिनेमा देखने हॉल गया था। उस समय किशनगंज के एक हॉस्टल में पढाई करता था। छुट्टी में अपने शहर पूर्णिया आया था और सिनेमा देखने हॉल गया,लेकिन छह वर्ष की अवस्था में सिनेमा को सिलेमा हॉल में समझ नहीं पा रहा था। फिर नंबे के दशक में फिल्मों से मोहब्बत शुरू हुई और फिल्म महबूबा बन गई। छु्ट्टी में शहर आने का मतलब एक-दो सिनेमा देखना था। दोस्तों के साथ हम सिनेमा हॉल पहुंचते थे। पहली

हिन्दी टाकीज:मन के अवसाद को कम करता है सिनेमा-डॉ मंजु गुप्ता

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हिन्दी टाकीज-२१ हिन्दी टाकीज में इस बार डॉ मंजु गुप्ता के संस्मरण..डॉ गुप्ता दर्शन शास्त्र की प्राध्यापिका हैं.वे मुंगेर के आर डी एंड डीजे कॉलेज में पढ़ाती है। सिनेमा और साहित्य में उनकी रुचि है.चवन्नी के आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और यह संस्मरण भेजा.उनकी कहानियो का संग्रह मुठभेड़ नाम से प्रकाशित हो चुका है.उन्होंने भरोसा दिया है कि वे भविष्य में भी सिनेमा पर कुछ लिखेंगीं चवन्नी के लिए। जीवन की एकरसता जीवन को नीरस बना देती है। न उसमें आनंद होता हे और न कोई उल्लास। नित्य एक जैसे कार्यकलापों से मन उंचाट सा हो जाता है, हृदय की प्रसन्नता मानो खो सी जाती है। परंतु सुंदर दृश्यों एवं मनोरम वस्तुओं को देखने से हमारा हृदय कमल खिल उठता है, मन गुनगुनाने लगता है। अपने कमरे की खिडक़ी के पास बैठी मैं बाहर गिरती हुई वर्षा की रिमझिम बूंदों को देख रही थी। जिसे देखकर मन को बड़ा सकून मिल रहा था। बारिश की वे बूंदें अनायास मुझे कहीं दूर स्मृति में ले जातीं। कहते हैं न कि अतीत की यादें यदि सुनहरी हो तो हमेशा वह तरोताजा ही लगती है। बाहर हो रही वर्षा को देख बार-बार मन में यह विचार आता 'काश! कालिदा

सिनेमा का तिलस्‍म...-युनूस खान

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हिन्दी टाकीज-२० इस बार हिन्दी टाकीज की अगली कड़ी युनूस खान लेकर आए हैं.युनूस मुंबई में रहते हैं और अपनी मीठी बोली से सभी की ज़िन्दगी में मिठास घोलते हैं.हाँ,उसके लिए ज़रूरी नहीं है कि आप का उनसे संपर्क हुआ हो। ऐसे मीठे लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। शायद यह छोटे शहर का संस्कार हो या फिर युनूस का आत्मज्ञान। हिन्दी टाकीज के लिए लिखने का आग्रह उन्होंने बहुत पहले स्वीकार कर लिया था,लेकिन लेख भेजने में थोड़ी देर हो गई। युनूस खान का ब्लॉग संगीतप्रेमियों के बीच बहुत पॉपुलर है. उनके परिचय की बात करें तो... मध्‍यप्रदेश के दमोह शहर में जन्‍म । शिक्षा दीक्षा मध्‍यप्रदेश के अलग अलग शहरों में । कविताएं लिखता हूं । सिनेमा-संगीत पर दैनिक भास्‍कर में साप्‍ताहिक कॉलम 'स्‍वरपंचमी' । विविध भारती मुंबई में पिछले बारह वर्षों से उदघोषक । दुनिया भर की फिल्‍मों में रूचि । उनके बाकी ब्लॉग पर आप जन चाहते हों तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें... http://www.radiovani.blogspot.com http://www.tarang-yunus.blogspot.com http://www।radionamaa.blogspot.com htttp://www.shrota.blogspot.com http://www.batkahi-mamta.b

हिन्दी टाकीज:फिल्में सोच बदल सकती हैं-पूजा उपाध्याय

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हिन्दी टाकीज-१९ पूजा उपाध्याय से मुलाक़ात ब्लॉग के जरिए हुई.पहली झलक में ही उन्होंने प्रभावित किया.मैंने आव देखा ना ताव और उनसे आग्रह कर दिया और उन्होंने ने मान भी रखा. अपने अनुभव उन्होंने ने लिख भेजे.उसे जस का तस् प्रस्तुत कर रहा हूँ.उन्होंने अपने परिचय में लिखा है.... मॉस कॉम में पटना विमेंस कॉलेज से स्नातक(प्रतिष्ठा), फ़िर दिल्ली आकर Indian institute of mass communication से पीजी डिप्लोमा लिया. फ़िल्म डायरेक्ट करना चाहती हूँ, पटकथा पर काम कर रही हूँ, कुछ डॉक्युमेंटरी और लघु फिल्में बनाई हैं, कॉलेज में ही. कविता लिखने का शौक़ काफ़ी दिनों से है, आजकल कहानियाँ भी लिख लेती हूँ कभी कभी. प्रयाग संगीत समिति से हिन्दुस्तानी संगीत में विशारद हूँ, कॉलेज में किसी भी प्रोग्राम का अभिन्न अंग रही इसी कारण. दो साल दिल्ली में advertising और इवेंट मैनेजमेंट में कॉपीराईटर रही, फ़िर लगा कि अपनी फ़िल्म पर जितनी जल्दी काम शुरू कर दूँ बेहतर होगा, वैसे भी एक रेगुलर ऑफिस में काम करते हुए अपना कुछ काम करना बहुत मुश्किल होता. यायावर प्रवृत्ति की हूँ, घूमना फिरना बहुत अच्छा लगता है, दिल्ली में थी तो पुराने किल

हिन्दी टाकीज: धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं-नीरज गोस्वामी

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हिन्दी टाकीज-१८ इस बार नीरज गोस्वामी.यहाँ बचपन या किशोरावस्था की यादें तो नहीं हैं,लेकिन नीरज गोस्वामी ने बड़े मन से इसे लिखा है.वे अपने नाम से एक ब्लॉग भी लिखते हैं।उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है....अपनी जिन्दगी से संतुष्ट,संवेदनशील किंतु हर स्थिति में हास्य देखने की प्रवृत्ति।जीवन के अधिकांश वर्ष जयपुर में गुजारने के बाद फिलहाल भूषण स्टील मुंबई में कार्यरत,कल का पता नहीं।लेखन स्वान्त सुखाय के लिए। बात बहुत पुरानी है शायद 1977 के आसपास की...जयपुर से लुधियाना जाने का कार्यक्रम था एक कांफ्रेंस के सिलसिले में. सर्दियों के दिन थे. दिन में कांफ्रेंस हुई शाम को लुधियाना में मेरे एक परिचित ने सिनेमा जाने का प्रस्ताव रख दिया. अंधे को क्या चाहिए?दो आँखें...फ़ौरन हाँ कर दी. खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."ध

हिन्दी टाकीज:जूते पहन कर जा सकते थे उस मन्दिर में-मुन्ना पांडे (कुणाल)

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हिन्दी टाकीज-१७ इस बार मुन्ना पाण्डेय(कुणाल).कुणाल के ब्लॉग मुसाफिर से इसे लिया गया है.वहां मुन्ना पाण्डेय ने बहुत खूबसूरती के साथ श्याम चित्र मन्दिर की झांकी पेश की है। यह झांकी किसी भी छोटे शहर की हो सकती है.मुन्ना पाण्डेय का परिचय उनके ही शब्दों में लिखें तो,'तब जिंदगी मजाक बन गयी थी,दिल्ली आया था घर छोड़कर कि कुछ काम-धंधा करुं और मजाक बनी जिंदगी को कुछ मतलब दूं। लेकिन यहां आकर मजाक-मजाक में पढ़ने लग गया। रामजस कॉलेज से बीए करने के बाद एमए करने का मूड हो आया. तब तक किताबों का चस्का लग गया था और इसी ने मुझे एमए में गोल्ड मेडल तक दिला दिया। एम.फिल् करने लग गया। अब हंसिए मत, सच है कि मजाक-मजाक में ही जेआरएफ भी हो गया औऱ अब॥अब क्या। हबीब तनवीर के नाटक पर डीयू से रिसर्च कर रहा हूं। जिस मजाक ने मुझे नक्कारा करार देने की कोशिश की आज भी उसी मजाक के लिए भटकता-फिरता हूं। पेशे से रिसर्चर होते हुए भी मिजाज से घुमक्कड़ हूं। फिल्में खूब देखता हूं,बतगुज्जन पर भरोसा है और पार्थसारथी पर बार-बार रात बिताने भागता रहता हूं। अब तो जिंदगी और मजाक दोनों से प्यार-सा हो गया है।' gopalganj अग्निपथ स

हिन्दी टाकीज:चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों..-जी के संतोष

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हिन्दी टाकीज-१६ हिदी टाकीज में इस बार जी के संतोष . संतोष जी बनारस के हैं.क्रिकेट खेलते थे और फोटोग्राफी और फिल्मों का शौक था.फोटो जर्नलिज्म से आरम्भ किया और फिर खेल पत्रकार बन गए.इन दिनों दैनिक जागरण में कार्यरत हैं.मन हुआ तो साइकिल से काठमांडू और चम्बल की भी सैर कर आए.चवन्नी के आग्रह को संतोष ने स्वीकार किया और अपने अंदाज में सिनेमा से जुड़े संस्मरण लिखे. बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म देखी जिसने पूरे शो के दौरान हिलने तक न हीं दिया। नीरज पांडेय ने कमाल की फिल्म बनाई है-ए वेन्सडे। इस फिल्म में इंटरवल की भी कोई जरूरत नहीं थी। तेजी से भागती इस फिल्म में भारतीय सिनेमा के दो बेहतरीन अदाकार अनुपम खेर और नसीरूद्दीन शाह अपने बेहतरीन रंग में दिखाई दिए-जवाबी कव्वाली सुनाते हुए। कहानी दर्शकों को अच्छी तरह बांधे रखती है क्योंकि आज लगभग आधी दुनिया आतंकवाद से प्रभावित है। आज के बाजारवाद के दौर से परहेज रखते हुए इस तरह की फिल्म बनाकर नीरज पांडेय ने जोखिम उठाया है। महानगरों में इन दिनों फिल्में बहुधा मल्टीप्लेक्सेज में लगती है। यहां फिल्में देखना ज्यादा मजेदार होता हैं। एक तो फिल्में वैसे भी तकनीक मे

हिन्दी टाकीज:फिल्म बनाई है तो कोई बात होगी-सचिन श्रीवास्तव

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हिन्दी टाकीज-१५ इस बार सचिन श्रीवास्तव.सचिन नई इबारतें नाम से एक ब्लॉग लिखते हैं.उनके लेखन में एक बांकपन है,जो इन दिनों दुर्लभ होता जा रहा है.आजकल सभी चालाक और सुरक्षित लिखते हैं.अगर सचिन की बात करें तो उनके ही शब्द हैं,'मैं अपने बारे में उतना ही जानता हूं जितना कोई अपने किसी पडोसी के बारे में जानता हो सकता है। गांव देहात में यह भी पता होता है कि पडोसी ने कल कितनी रोटियां खाई थीं और नगरीय सभ्यता ने सिखाया कि पडोसी के बेटी के ब्याह में भी पूछकर ही मदद की जाए... मैं खुद को इतना ही जानता हूं... बडी और दिलचस्प बात यह कि सारी दुनिया का कुछ न कुछ हिस्सा जानने का दम भरता हूं और कभी कभी आइने में अपनी ही शक्ल देखकर बाजू हट जाता हूं कि भाई सहाब को शायद यहां से कहीं जाना है... मैं सफर पर हूं कहां पहुंचना है यह नहीं जानता बस चल रहा हूं थके कदमों से अकेला...' हिन्दी टाकीज सीरिज़ के लिए बात हुई तो आरम्भिक आलस्य के बाद सचिन ने यह लेख भेजा,' पूरी ईमानदारी से बताया,'इसे लिखते हुए मेरे सामने कोई नहीं था बस मुंगावली, गुना, गंजबासौदा और ऐसे ही आसपास के कस्बों के टॉकीज थे। लिखते हुए उन या