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गीत-संगीत में पिरोए हैं कश्‍मीरी अहसास - स्‍वानंद किरकिरे

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    -अजय ब्रह्मात्‍मज     पशमीना घागों से कोई ख्‍वाब बुने तो उसके अहसास की नजुकी का अंदाजा लगाया जा सकता है। कच्‍चे और अनगढ़ मोहब्‍बत के खयालों की शब्‍दों में कसीदाकारी में माहिर स्‍वानंद किरकिरे ‘ फितूर ’ के गीतों से यह विश्‍वास जाहिर होता है कि सुदर और कामेल भवनाओं की खूबसूरत बयानी के लिए घिसे-पिटे लब्‍जों की जरूरत नहीं होती। स्‍वानंद किरकिरे ने अमित त्रिवेदी के साथ मिल कर ‘ फितूर ’ का गीत-संगीत रख है। उनकी ‘ साला खड़ूस ’ भी आ रही है। शब्‍दों के शिल्‍पकार स्‍वानंद किरकिरे से हुई बातचीत के अंश...        स्‍वानंद किरकिरे बताते हैं, ’ अभिषेक कपूर और अमित त्रिवेदी के साथ मैाने ‘ काय पो छे ’ की थी। उस फिल्‍म के गीत-संगीत को सभी ने पसंद किया था। ‘ फितूर ’ में एक बार फिर हम तीनों साथ आए हैं। ’ फितूर ’ का मिजाज बड़ा रोमानी है। ऊपर से काश्‍मीर की पृष्‍ठभूमि की प्रेमकह कहानी है। उसका रंग दिखाई देगा। उसमें एक रुहानी और सूफियाना आलम है। ‘ फितूर ’ इंटेंस लव स्‍टोरी है,इसलिए बोलों में गहराई रखी गई है। गानों के रंग में भी फिल्‍म की थीम का असर दिखेगा। मैंने शब्‍दों को बुनते

फिल्‍म समीक्षा : क्रेजी कुक्‍कड़ फैमिली

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-अजय ब्रह्माात्‍मज  स्टार: तीन रितेश मेनन की 'क्रेजी कुक्कड़ फैमिली' भिन्न किस्म की कॉमेडी फिल्म है। चार असफल संतानों के पिता बेरी एक बार फिर कोमा में चले गए हैं। इस बार नालायक संतानों को उम्मीद है कि उनका इंतकाल हो जाएगा। इसी उम्मीद में वे एकत्रित होते हैं। सभी को धन की जरूरत है। पिता की जायदाद से हिस्सा मिलने पर ही उनकी जिंदगी की फिसली गाड़ी पटरी पर लौट सकती है। पिता की वसीयत वकील गुप्ता के पास है। वसीयत पढ़े जाने की एक शर्त यह है कि चारों की शादी हो जानी चाहिए। चारों संतान पिता के पास पहुंचते हैं। पवन और अर्चना की शादी हो चुकी है। अमन किराए पर बीवी लेकर आया है और अभय की शादी आनन-फानन में तय कर दी जाती है, लेकिन मंडप में ठीक फेरे के समय राज खुलता है कि उसने भी शादी कर ली है, लेकिन... बहरहाल वसीयत जाहिर होने के पहले हड़बोंग मचा रहता है। सभी एक-दूसरे पर आरोप लगाने और खुद को सच्चा-सीधा साबित करने में लगे रहते हैं। घर के नौकर और मां ही केवल बेरी की सेहत को लेकर फिक्रमंद हैं। संतान तो इंतजार में हैं कि पिता मरे और वे अपना हिस्सा लेकर निकलें। 'क्रेज

फिल्‍म समीक्षा : सोनाली केबल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  बड़ी मछलियां तालाब की छोटी मछलियों को निगल जाती हैं। अपना आहार बना लेती हैं। देश-दुनिया के आर्थिक विकास के इस दौर में स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्थानीय उद्यमियों के व्यापार को निगलने के साथ नष्ट कर रही हैं। इस व्यापक कथा की एक उपकथा 'सोनाली केबल' में है। अपने इलाके में सोनाली केबल चला रही सोनाली ऐसी परिस्थितियों में फंसती है। फिल्म में सोनाली विजयी होती है। वास्तविकता में स्थितियां विपरीत और भयावह हैं। निर्देशक चारूदत्त आचार्य ने अपनी सुविधा से किरदार गढ़े हैं। उन्होंने प्रसंगों और परिस्थितियों के चुनाव में भी छूट ली है। तर्क और कारण को किनारे कर दिया है। सिर्फ भावनाओं और संवेगो के आधार पर ही आर्थिक आक्रमण का मुकाबला किया गया है। हम अपने आसपास देख रहे हैं कि सभी प्रकार के उद्यमों में किस प्रकार रिटेल व्यापारी मल्टीनेशनल के शिकार हो रहे हैं। सोनाली का मुकाबला मल्टीनेशनल कंपनी से है। इस मल्टीनेशनल कंपनी की नीति और समझ में सारे मनुष्य उसके ग्राहक हैं। अपने उत्पादों को उनकी जरूरत बनाने के बाद वह उनसे लाभ कमाएगी। इस

बहुत अलग है लेखन और अभिनय -स्वानंद किरकिरे

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-अजय ब्रह्मात्मज     एनएसडी से डिजाइन और डायरेक्शन में डिप्लोमा लेकर मुंबई पहुंचे स्वानंद किरकिरे की आज मुख्य पहचान गीतकार की है। थिएटर के सभी विभागों से परिचित स्वानंद किरकिरे इन दिनों अभिनय पर फोकस कर रहे हैं। पिछले दिनों मुंबई की रिमझिम बारिश में यारी रोड के एक कैफे में उनसे लंबी बातचीत हुई। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की इस अनोखी प्रतिभा से हुई बातों के अंश ़ ़ ़ -इन दिनों आप का ध्यान अभिनय पर लगा है? 0 एक्टर बनने की कभी मेरी ख्वाहिश नहीं रही। अगर ऐसा होता तो मैं उसके लिए भी स्ट्रगल करता। संयोग से अभिनय के ऑफर आए तो मना करने का मन नहीं हुआ। इधर कुछ फिल्में करने के बाद मेरी ख्वाहिशें जागी हैं। मुझे अच्छा लग रहा है। पहले नाटकों में अभिनय किया ही है,इसलिए एकदम से नई बात नहीं है। -एनएसडी के दिनों के किसी नाटक का नाम बताएं? 0 रॉबिन दास के साथ मैंने ‘बाकी इतिहास’ किया था। उसमें मैं और नवाजुद्दीन सिद्दिकी हुआ करते थे। हमलोगों को पहले रोल नहीं मिला था। हम दोनों ने इम्प्रूवाइज कर अपने लिए रोल बना लिया था। रॉबिन दास आज भी उसकी तारीफ करते हैं। मुझे लगता है एक्टिंग को बोझ की तरह न लें तो आसानी स

स्वानंद किरकिरे से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

- आपको राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। राष्ट्रीय पुरस्कार एक तरीके से बहुत बड़ी पहचान होती है। आप किस रूप में देखते हैं इसे ? 0 हर पुरस्कार के बारे में बातें होती है कि ये पुरस्कार ठीक नहीं है , वो पुरस्कार ठीक नहीं है , लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार के बारे में ऐसा कुछ नहीं कह सकते। यह बड़ी प्रतिष्ठा की बात होती है कि किसी काम को राष्ट्रीय पहचान मिले। राष्ट्रीय पंरस्कार मिलता है तो उसका सुख अलग है। सुख से ज्यादा एक संतुष्टि की भावना होती है। मैं चला था इंदौर से और यहां आकर मैंने काम करना शुरू किया था। इतनी जल्दी इस कैरियर में इतना बड़ा पुरस्कार मिल जाए , इसकी उम्मीद भी नहीं थी और न कभी आकांक्षा थी। घर-परिवार के लिए बहुत खुशी की बात है। सभी लोगों को लगा कि स्वानंद सही जगह पर गया हुआ है। दूसरी बात यह होती है कि राष्ट्रीय पुरस्कार में पूरे हिंदुस्तान की फिल्में रहती हैं। उनके साथ आपकी प्रतियोगिता रहती है। यह किसी और फिल्म पुरस्कार की तरह नहीं है कि आपकी फिल्म कितनी चली है या गाना कितना हिट हुआ है ? या आप किस लॉबी में बैठे हुए हैं या किसके साथ आपने काम किया है ? असके साथ किया है तो आपको अवार