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दर्शक भी देखने लगे हैं बिजनेस

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-अजय ब्रह्मात्‍मज ह र हफ्ते फिल्मों की रिलीज के बाद उनके कलेक्शन और मुनाफे के आंकड़े आरंभ हो जाते हैं। कुछ सालों पहले तक हिट और सुपरहिट लिखने भर से काम चल जाता था। अब उतने से ही संतुष्टि नहीं होती। ट्रेड पंडित और विश्लेषक पहले शो से ही कलेक्शन बताने लगते हैं। मल्टीप्लेक्स थिएटरों के आने के बाद आंकड़े जुटाना, दर्शकों का प्रतिशत बनाता और कुल मुनाफा बताना आसान हो गया है। इन दिनों एक सामान्य दर्शक भी नजर रखना चाहे तो इंटरनेट के जरिए मालूम कर सकता है कि कोई फिल्म कैसा बिजनेस कर रही है। फिल्मों के प्रति धारणाएं भी इसी बिजनेस के आधार पर बनने लगी हैं। सामान्य दर्शक के मुंह से भी सुन सकते हैं कि फलां फिल्म ने इतने-इतने करोड़ का व्यापार किया। क्या सचमुच फिल्म के कलेक्शन से फिल्म के रसास्वादन में फर्क पड़ता है? क्या कलेक्शन के ट्रेंड से आम दर्शक प्रभावित होते हैं? फिल्में देखना और उन पर लिखना मेरा काम है। शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्मों की समीक्षा अब शनिवार को अखबारों में आने लगी हैं। इंटरनेट केइस दौर में वो रिव्यू मेल करने के आधे घंटे के अंदर वह ऑनलाइन हो जाती है। इस दबाव में अनेक बार फिल्म के बा

प्रोमोशन के दांव-पेंच

-अजय ब्रह्मात्‍मज खबरों, अपीयरेंस, संगत-सोहबत के अलावा अब आप फिल्मों के ट्रेलर और प्रोमोशन से भी समझ और जान सकते हैं कि इन दिनों हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की किस लॉबी में कौन-कौन हैं? कैसे? पिछले हफ्ते रिलीज हुई बॉडीगार्ड आपने देखी होगी। इस फिल्म के साथ करण जौहर की फिल्म अग्निपथ का ट्रेलर जारी किया गया। चार महीनों के बाद 2012 की जनवरी के दूसरे हफ्ते में यह फिल्म रिलीज होगी, लेकिन करण जौहर ने सुनिश्चित किया कि उनकी फिल्म का ट्रेलर बॉडीगार्ड के साथ जरूर आ जाए। करण जौहर इस फिल्म के निर्माता हैं। उन्होंने इस चाहत के लिए संजय दत्त और रितिक रोशन का इस्तेमाल किया। सलमान खान के साथ उनके संबंधों को पहले दुरुस्त किया और फिर उसका लाभ उठाया। सभी जानते हैं कि करण जौहर और शाहरुख खान के करीबी संबंध हैं, जबकि शाहरुख खान और सलमान खान की खुन्नस के बारे में भी सभी जानते हैं। सलमान खान की फिल्म बॉडीगार्ड ईद के मौके पर रिलीज हुई। जबरदस्त प्रचार और उम्मीद की इस फिल्म के साथ ट्रेलर आने का मतलब अपनी फिल्म के लिए अभी से दर्शकों में उत्सुकता बढ़ाना है। ईद के दिन रिलीज हुई बॉडीगार्ड के प्रोमोशन के लिए सलमान खान स्वय

राष्ट्रीय एकता के पुरस्कार से सम्मानित हिंदी फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्मज अभी न तो हम गुलाम हैं और न ही कोई आजादी की लड़ाई चल रही है। युद्ध और आक्रमण की स्थिति भी नहीं है। हालांकि पड़ोसी देशों से तनाव बना हुआ है और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से हम अछूते नहीं हैं। फिर भी आजादी के 64 सालों में देश ने काफी प्रगति की है। दुनिया के विकसित देशों में हमारी गिनती होने लगी है। इस माहौल में देश की संप्रभुता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम राष्ट्रीय एकता पर ध्यान दें। भारत सरकार की राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समिति सन् 1966 से हर साल एक फिल्म को राष्ट्रीय एकता की सर्वोत्तम फिल्म का पुरस्कार देती है। अभी तक हिंदी में बनी पंद्रह फिल्मों को राष्ट्रीय एकता की सर्वोत्तम फिल्मों के रूप में चुना गया है। राष्ट्रीय एकता पुरस्कार आरंभ हुए को पहला पुरस्कार मनोज कुमार अभिनीत ‘शहीद’ को मिला। 1966 - शहीद 1967 - सुभाष चंद्र 1970 - सात हिंदुस्तानी 1974 - गरम हवा 1975 - परिणय 1984 - सूखा 1985 - आदमी और औरत 1988 - तमस 1994 - सरदार 1998 - बोर्डर 1999 - जख्म 2001 - पुकार 2004 - पिंजर 2005 - नेताजी सुभाष चंद्र बोस 2008 - धर्म 2010 - दिल्ली-6 अगर आपने ये फिल्में नहीं देखी ह

बांग्लादेश में हिंदी फिल्में

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों आई एक खबर को भारतीय मीडिया ने अधिक तूल नहीं दिया। चूंकि खबर बांग्लादेश से आई थी और बांग्लादेश भारतीय मीडिया के लिए बिकाऊ नहीं है, इसलिए इस खबर पर गौर नहीं किया गया। खबर भारतीय फिल्मों से संबंधित थी। 45 सालों के बाद बांग्लादेश में भारतीय फिल्मों पर लगी पाबंदी हटी है। वहां की एक संस्था ने 12 भारतीय फिल्में इंपोर्ट की है, जिनमें से 3 बांग्ला और 9 हिंदी फिल्में हैं। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के लिए भी यह बड़ी खबर नहीं बन सकती थी, क्योंकि पश्चिमी देशों से हो रहे करोड़ों डॉलर के व्यापार के सामने बांग्लादेश में 12 फिल्मों के व्यवसाय का आंकड़ा कहां टिकता है। चलिए थोड़ा पीछे लौटते हैं। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों पर पाबंदी लगा दी गई थी। आक्रोश और विद्वेष में लिए गए इस फैसले की वास्तविकता हम समझ सकते हैं। दो साल पहले की पाकिस्तान यात्रा में वहां की फिल्म इंडस्ट्री के नुमाइंदों और फिल्म पत्रकारों से हुई बातचीत से मुझे यह स्पष्ट संकेत मिला था कि भारतीय फिल्मों खासकर हिंदी फिल्मों पर

अब वो डायलॉग कहाँ?

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-सौम्‍या अपराजिता और रघुवेन्‍द्र सिंह संवाद अदायगी का अनूठा अंदाज और उसका व्यापक प्रभाव हिंदी फिल्मों की विशेषता रही है, लेकिन वक्त के साथ इस खासियत पर जमने लगी हैं धूल की परतें मेरे पास मां है.. लगभग एक वर्ष पूर्व ऑस्कर अवॉर्ड के मंच पर हिंदी फिल्मों का यह लोकप्रिय संवाद अपने पारंपरिक अंदाज में गूंजा था। सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार ग्रहण करने के बाद ए.आर. रहमान ने कहा, ''भारत में एक लोकप्रिय संवाद है- 'मेरे पास मां है।' हिंदी फिल्मों के इस संवाद के साथ मैं अपनी मां को यह अवॉर्ड समर्पित करता हूं।'' जी हाँ, विश्व सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित मंच पर पुरस्कार ग्रहण करने के बाद अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ए.आर. रहमान को अपने असंख्य गीतों की कोई पंक्ति नहीं, बल्कि दीवार फिल्म का लोकप्रिय संवाद ही सूझा। गुम हो रहे हैं संवाद इसके उलट विडंबना यह है कि अब कम शब्दों में प्रभावी ढंग से लिखे जाने वाले संवादों और उनकी अदायगी की विशिष्ट शैली को अस्वाभाविक माना जाने लगा है। नए रंग-ढंग के सिनेमा के पैरोकारों ने अपनी फिल्मों को स्वाभाविकता और वास्तविकता के रंग में घोलने

हिंदी फिल्‍मों की पहली तिमाही

-अजय ब्रह्मात्‍मज पहली तिमाही में रिलीज हुई 22 फिल्मों से केवल 6 फिल्मों की कमाई उल्लेखनीय रही। यमला पगला दीवाना, तनु वेड्स मनु, नो वन किल्ड जेसिका, दिल तो बच्चा है जी, धोबी घाट और ये साली जिंदगी ने अपनी लागत के अनुपात में अधिक कमाई की। पटियाला हाउस समेत बाकी छोटी-बड़ी फिल्में दर्शकों का दिल नहीं जीत सकी। ट्रेड पंडितों की राय में पहली तिमाही में व‌र्ल्ड कप की वजह से कई हफ्ते थिएटर खाली रहे, इसलिए बिजनेस कम हुआ। लेकिन गौर करें तो व‌र्ल्ड कप के दरम्यान ही रिलीज हुई तनु वेड्स मनु ने बेहतर कारोबार किया। ये साली जिंदगी के निर्देशक सुधीर मिश्रा ट्रेड पंडितों के विश्लेषण से सहमत नहीं हैं। उनके मुताबिक, यह तर्क बेकार है कि व‌र्ल्ड कप की वजह से ही फिल्म का बिजनेस मारा गया। आप अच्छी फिल्म नहीं बनाओगे तो लोग खाली रहने पर भी थिएटर नहीं आएंगे। और फिर फिल्में ही रिलीज नहीं होंगी तो दर्शक क्या देखने आएंगे? पहली तिमाही में सुधीर मिश्र की फिल्म ये साली जिंदगी ने 17 करोड़ से अधिक का कारोबार किया है। देओल परिवार की फिल्म यमला पगला दीवाना कमाई के लिहाज से सबसे आगे रही। उसका कुल कारोबार 5

हिंदी फिल्मों की हदबंदी

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले सप्ताह आई ब्रेक के बाद की आलिया कन्फ्यूज्ड है। वह प्रेम के एहसास और शादी की योजना से दूर रहना चाहती है। उसे करियर बनाना है। उसे अपनी संतुष्टि के लिए कुछ करना है। इसी कोशिश में वह प्रेमी अभय से ब्रेक लेती है और देश छोड़ कर चली जाती है। उसे लगता है कि अभय का प्रेम उसके भविष्य की राह का रोड़ा है। डेढ़ घंटे के ड्रामे के बाद जो होता है, वह हर हिंदी फिल्म में होता है। अंत में वह देश लौटती है और अभय के साथ शादी के मंडप में बैठ जाती है। इधर की कुछ फिल्मों में ऐसी हीरोइनें बार-बार दिख रही हैं। इम्तियाज अली की फिल्म लव आज कल की भी यही थीम थी। वहीं ये इसकी शुरुआत मान सकते हैं। आई हेट लव स्टोरीज और आयशा भी हमने देखीं। कुछ और फिल्में होंगी। इन सभी फिल्मों के कॉमन थीम में कन्फ्यूज्ड लड़कियां हैं। सभी आज की लड़कियां हैं। आजाद सोच की आधुनिक लड़कियां, जो अपनी एक स्वतंत्र पहचान चाहती हैं। इस पहचान के लिए वे संघर्ष करती हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों की हदबंदी उन्हें आखिरकार प्रेमी और हीरो के पास ले आती हैं। हिंदी फिल्मों में ढेर सारी चीजें बदल कर भी नहीं बदलतीं। प्रेम और शादी से पूरी फ

भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं

जयपुर. हिंदी सिनेमा केवल मुंबई की बपौती नहीं है और मैं मानता हूं कि हर प्रदेश का अपना सिनेमा होना चाहिए। यह सिनेमा के विकास के लिए जरूरी है। यह बात जाने माने फिल्म पत्रकार अजय बrात्मज ने ‘समय, समाज और सिनेमा’ विषय पर हुए संवाद में कही। जेकेके के कृष्णायान सभागार में शनिवार को जवाहर कला केन्द्र और भारतेन्दु हरीश चन्द्र संस्था की ओर से आयोजित चर्चा में उन्होने सिनेमा के जाने अनजाने पहलुओं को छूने की कोशिश की। उन्होने कहा कि मुझे उस समय बहुत खुशी होती है जब मैं सुनता हूं कि जयपुर ,भोपाल या लखनऊ का कोई सिनेमा प्रेमी संसाधन जुटा कर अपनी किस्म की फिल्म बना रहा है। सिनेमा के विकास के लिए उसका मुंबई से बाहर निकलना जरूरी है। साथ ही उन्होने यह बात भी कही कि महाराष्ट्र में जहां मराठी फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को 15 से 60 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है मगर राजस्थान जैसे प्रदेश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वह कहते हैं कि मुझे आशा है कि भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं होगा। आज के सिनेमा की दशा और दिशा के प्रति आशान्वित अजय ने कहा कि सबसे अच्छी बात जो आज के सिनेमा में देखने को मिल रही है वह यह कि पिछ

दरअसल : हिंदी फिल्मों में बढ़ते इंग्लिश संवाद

-अजय बह्मात्‍मज   हमारे समाज में इंग्लिश का चलन बढ़ा है और बढ़ता ही जा रहा है। हम अपनी रोजमर्रा की बातचीत में बेहिचक इंग्लिश व‌र्ड्स का इस्तेमाल करते हैं। अभी तो यह स्थिति हो गई है कि ठीक से हिंदी बोलो, तो लोगों को समझने में दिक्कत होने लगती है। इसी वजह से अखबार और चैनलों की भाषा बदल रही है। हिंदी वाले (लेखक और पत्रकार) लिखते समय भले ही हिंदी शब्दों का उपयोग करते हों, लेकिन उनकी बातचीत में अंग्रेजी के शब्द घुस चुके हैं। बोलते समय खुद को अच्छी तरह संप्रेषित करने के लिए हम अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेते हैं। हालांकि देखा गया है कि दोबारा बोलने या सही संदर्भ और कंसर्न के साथ बोलने पर ठेठ हिंदी भी समझ में आती है, लेकिन हम सभी जल्दबाजी में हैं। कौन रिस्क ले और हमने मान लिया है कि कुछ जगहों पर अंग्रेजी ही बोलना चाहिए। फाइव स्टार होटल, एयरपोर्ट, ट्रेन में फ‌र्स्ट एसी, किसी भी प्रकार की इंक्वायरी आदि प्रसंगों में हम अचानक खुद को अंग्रेजी बोलते पाते हैं, जबकि हम चाहें तो हिंदी बोल सकते हैं और अपना काम करवा सकते हैं। कहीं न कहीं हिंदी के प्रति एक हीनभावना हम सभी के अंदर मजबूत होती जा रही है। समाज