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एक वह भी ज़माना था-रेखा श्रीवास्तव

हिन्दी टाकीज-११ इस बार रेखा श्रीवास्तव.मूल रूप से उरई की निवासी रेखा श्रीवास्तव कविता,कहानियाँ और विभिन्न विषयों पर लेख इतय्दी लिखती हैं.उनका अपना ब्लॉग है- हिंदीजन . चवन्नी के आग्रह पर उन्होंने यह विशेष लेख लिखा है.हिन्दी टाकीज में किसी स्त्री सिनेप्रेमी का यह पहला लेख है.चवन्नी चाहता है की अलग-अलग दृष्टिकोण और माहौल की जानकारियां और अनुभव हम आपस में बांटे.चवन्नी का आप सभी से आग्रह है की इस कड़ी को आगे बढ़ायें और अपने संस्मरण,अनुभव और यादें लिख भेजें.पता है -chavannichap@gmail.com फिल्मी दुनिया बचपन से ही मेरे इतने करीब रही कि ऐसा कभी नहीं लगा कि यह कुछ अलग दुनियाँ है। बचपन से ही छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख़बर से वाक़िफ़ रहती थी। मेरे पापा ख़ुद पढ़ने और लिखने के शौकीन थे। उस समय प्रकाशित होने वाली जितनी भी मैगज़ीन थी सब मेरे घर आती थी। चाहे वे साहित्यिक में सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी हो या फिर फिल्मी में 'सुचित्रा' जो बाद में 'माधुरी के नाम से प्रकाशित हुई। फिल्मी कलियाँ, फिल्मी दुनियाँ, सुषमा । यह सब फिल्मों के शौकीनों कि जान हुआ करती थी। उस समय इन

हमका सलीमा देखाय देव...-चण्डीदत्त शुक्ल

हिन्दी टाकीज-१० इस बार हिन्दी टाकीज में चंडीदत्त शुक्ल .यूपी की राजधानी लखनऊ से 128 किलोमीटर, बेकल उत्साही के गांव बलरामपुर से 42, अयोध्या वाले फैजाबाद से 50 किलोमीटर दूर है गोंडा. 1975 के किसी महीने में यहीं पैदा हुए थे चण्डीदत्त शुक्ल. वहीं पढ़े-लिखे. लखनऊ और जालंधर में कई अखबारों, मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने के बाद फिलहाल दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर हैं.लिखने-पढ़ने की दीवानगी है, वक्त मिले न मिले मौका निकाल लेते हैं. थिएटर, टीवी-सिनेमा से पुरानी रिश्तेदारी है. स्क्रिप्टिंग, एक्टिंग, वायस ओवर, एंकरिंग का शौक है पर जो भी काम करने को मिले, छोड़ते नहीं. सुस्त से ब्लागर भी हैं. उनके ब्लाग हैं www.chauraha1.blogspot.com और www.chandiduttshukla1.blogspot.com . साहित्य में भी बिन बुलाए घुसे रहने के लिए तैयार. कई किताबों की योजना है पर इनमें से चंद अब भी फाइनल होने के इंतजार में हैं...और जानना हो, तो chandiduttshukla@gmail.com पर मिल सकते हैं। हमका सलीमा देखाय देव... झींकते-रींकते हुए हम पहले मुंह बनाते, फिर ठुनकते और जब बस न चलता तो पेंपें करके रोने लगते। देश-दुनिया के हजारों बच्

हम फिल्में क्यों देखते हैं?-शशि सिंह

हिन्दी टाकीज-९ जिन खोजा तिन पाइया का मुहावरा शशि सिंह के बारे में सही बयान करता है. झारखण्ड के हजारीबाग जिले में स्थित कोलफील्ड रजरप्पा में पले-बढे शशि सिंह हिन्दी के पुराने ब्लॉगर हैं.सपने देखने-दिखने में यह नौजवान जितना माहिर है,उन्हें पूरा करने को लेकर उतना ही बेचैन भी है.अपनी जड़ों से गहरे जुड़े शशि सिंह ने प्रिंट पत्रकारिता शरुआत की थी.इन दिनों वे न्यू मीडिया (mobile vas) में सक्रीय हैं और वोडाफोन में कार्यरत हैं.शशि सिंह के आग्रह से आप नहीं बच सकते,क्योंकि उसमें एक छिपी चुनौती भी रहती है,जो कुछ नया करने के लिए सामने वाले को उकसाती है। हम फिल्में क्यों देखते हैं? जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं,इसलिए हम फिल्में देखते हैं। यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते। मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और। खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है,इसलिए हम फिल्में देखते हैं। फ्लैश बैक फिल्में देखने की बात चली तो याद आता है वो दिन जब मैंने सिनेमाघर में पहली फिल्म देखी। सिनेमा का वह मंदिर था,रामगढ़ का राजीव पिक्चर पैलेस। इस मंदिर में मैंने पहली

हिन्दी टाकीज:हजारों ख्वाईशें ऐसी... -विनीत उत्पल

हिन्दी टाकीज-८ इस बार विनीत उत्पल.विनीत ने बडे जतन से सब कुछ याद किया है.विनीत पेशे से पत्रकार हैं। फिल्म, फ़िल्म और फ़िल्म, यह शब्द है या कुछ और। इससे परिचय कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह मायने रखता है। दीवारों पर चिपके पोस्टरों, अख़बारों में छपी तस्वीरें, गली-मोहल्ले में लाउडस्पीकरों में बजते गाने व डायलाग या घरों में रेडियो से प्रसारित होने वाले फिल्मी गाने मन मस्तिष्क पर दस्तक देते। उत्सुकता जगाते। शादी-ब्याह के मौके पर माहौल को मदमस्त करते फिल्मी गाने हों या २६ जनवरी या १५ अगस्त को बजने वाले देशभक्ति के तराने, बचपन की अठखेलियों के साथ कौतुहल का विषय होता। बचपन के वो दिन जब हजारों ख्वाईशें ऐसी कि फिल्मी पोस्टर पर हीरो को स्टाइल देते देख ख़ुद के अरमान स्मार्ट बनने और दीखने की कोशिश में खो जाते। उस दौर में तमाम हीरोइनें एक जैसी लगतीं। मन में उथल-पुथल कि गाने बजते कैसे हैं, डायलाग कैसे बोला जाता है, हीरो जमीन से उठकर परदे पर कैसे आता है, क्या पोस्टर पर दीखने वाला स्टंट वास्तव में होता है। वो हसीन पल मां बताती है कि सैनिक स्कूल, तिलैया में हर शनिवार को फ़िल्म दिखाया जाता था। फुर्सत मिलने पर

हिन्दी टाकीज:दर्शक की यादों में सिनेमा -रवीश कुमार

हिन्दी टाकीज-7 रवीश कुमार को उनके ही शब्दों में बताएं तो...हर वक्त कई चीज़ें करने का मन करता है। हर वक्त कुछ नहीं करने का मन करता है। ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं। पर खुद के प्रति गंभीर नहीं हूं। मैं बोलने को लिखने से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं क्योंकि यही मेरा पेशा भी है। ...रवीश ने हिन्दी टाकीज के ये आलेख अपने ब्लॉग पर बहुत पहले डाले थे,लेकिन चवन्नी के आग्रह पर उन्होंने अनुमति दी की इसे चवन्नी के ब्लॉग पर पोस्ट किया जा सकता है.जिन्होंने पढ़ लिया है वे दोबारा फ़िल्म देखने जैसा आनंद लें और जो पहले पाठक हैं उन्हें तो आनंद आएगा ही .... जो ठीक ठीक याद है उसके मुताबिक पहली बार सिनेमा बाबूजी के साथ ही देखा था। स्कूटर पर आगे खड़ा होकर गया था। पीछे मां बैठी थी। फिल्म का नाम था दंगल। उसके बाद दो कलियां देखी। पटना के पर्ल सिनेमा से लौटते वक्त भारी बारिश हो रही थी। हम सब रिक्शे से लौट रहे थे। तब बारिश में भींगने से कोई घबराता नहीं था। हम सब भींगते जा रहे थे। मां को लगता था कि बारिश में भींगने से घमौरियां ठीक हो जाती हैं। तो वो खुश थीं। हम सब खुश थे। बीस रुपये से भी कम में चार लोग सिनेमा

हिन्दी टाकीज: फ़िल्में, बचपन और छोटू उस्ताद-रवि रतलामी

हिन्दी टाकीज-6 हिन्दी टाकीज में इस बार रवि रतलामी.ब्लॉग जगत के पाठकों को रवि रतलामी के बारे में कुछ भी नया बताना नामुमकिन है.उनके कार्य और योगदान के हम सभी कृतज्ञ हैं.उन्होंने चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया और यह सुंदर आलेख भेजा.इस कड़ी को कम से कम १०० तक पहुँचाना है.चवन्नी का आप सभी से आग्रह है कि आप अपने अनुभव और संस्मरण बांटे.आप अपने आलेख यूनिकोड में chavannichap@gmail.com पर भेजें. फ़िल्में, बचपन और छोटू उस्ताद पिछली गर्मियों में स्पाइडरमैन 3 जब टॉकीज में लगी थी तो घर के तमाम बच्चों ने हंगामा कर दिया कि वो तो टॉकीज पर ही फ़िल्म देखने जाएंगे और वो भी जितनी जल्दी हो सके उतनी. उन्हें डीवीडी, डिश या केबल पर इसके दिखाए जाने तक का इंतजार कतई गवारा नहीं था. और उसमें हमारा हीरो छोटू भी था. बच्चे उठते बैठते, खाते पीते अपने अभिभावकों को प्रश्न वाचक दृष्टि से देखते रहते कि उन्हें हम कब फ़िल्म दिखाने ले जा रहे हैं. अंततः जब छोटू ने स्पाइडरमैन फ़िल्म देखने के नाम पर खाना पीना बंद कर बुक्के फाड़कर रोना पीटना शुरू कर दिया कि उनके पापा-मामा तीन मर्तबा वादा करने के बाद भी स्पाइडरमैन दिखाने नहीं ले ज

हिन्दी टाकीज: सिनेमा बुरी चीज़ है, बेटा-नचिकेता देसाई

हिन्दी टाकीज में इस बार नचिकेता देसाई । नचिकेता देसाई ने भूमिगत पत्रकारिता से पत्रकारिता में कदम रखा। पिछले २५ सालों में उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों से लेकर हिन्दी और अंग्रेज़ी के विभिन्न अख़बारों में सेवाएँ दीं.आपातकाल के दौर में उन्होंने रणभेरी नाम की पत्रिका निकली थी.इन दिनों अहमदाबाद में हैं और बिज़नस इंडिया के विशेष संवाददाता हैं.अहमदाबाद में वे हार्मोनिका क्लब भी चलाते हैं.आप उन्हें nachiketa.desai@gmail.com पर लिख सकते हैं। बात मेरे बचपन की है. बनारस में राज कपूर की फिल्म 'संगम' लगी थी. मेरी बड़ी बहन और उसकी सहेलियां फिल्म देखना चाहती थीं. अब बनारस में उन दिनों लड़कियां अकेली सिनेमा देखने नहीं जा सकती थीं. इसलिए उन्होंने मेरी नानी से कहा, "चलो हमारे साथ, अच्छी फिल्म है." नानी, श्रीमती मालतीदेवी चौधरी, प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थीं, भारत की संविधान सभा की सदस्य रह चुकी थीं और उड़ीसा के आदिवासियों के बीच उन्हें उनके अधिकारों के लिए संगठित करने का काम करती थीं. बहुत ना-नुकुर के बाद राजी हो गईं। चार घंटे की फिल्म, तिस पर वैजयंती माला के नहाने

हिन्दी टाकीज:जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू-पंकज शुक्ला

हिन्दी टाकीज सीरीज में इस बार पंकज शुक्ला.पंकज शुक्ला ने फ़िल्म पत्रकार के रूप में शुरूआत की.विभिन्न अख़बारों में काम करते हुए वे फिल्मों के करीब आए और आखिरकार एक फ़िल्म निर्देशित की.उनकी भोजपुरी फ़िल्म भोले शंकर जल्दी ही रिलीज हो रही है। जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू सिनेमा को सिनेमा कहना तो हम लोगों ने बहुत बाद में सीखा। पहले तो ये पिच्चर होती थी। बचपन की बाकी बातें तो याद नहीं हां, लेकिन शायद ककहरा सीखने के वक्त ही पिच्चर का दीवाना मैं हो गया था। उन दिनों पापा रेलवे में मुलाजिम थे और पैदाइश के बाद हम लोगों को सीधे जोधपुर एक्सपोर्ट कर दिया गया था, वहीं पहली पिच्चर देखी- परिचय। ये फिल्म इसलिए मुझे याद रही क्योंकि इसे देखने के लिए मैंने खूब धमाल मचाया था। सिनेमा से ये मेरा पहला परिचय था। गुलज़ार की कारीगरी के साथ साथ जितेंद्र और जया भादुड़ी की अदाकारी के मायने तो खैर बरसों बाद मुझे समझ में आए, कुछ याद रहा तो बस कछुए की पीठ पर जलती मोमबत्ती वाला सीन। परिचय के बाद और जोधपुर से वापस गांव में इंपोर्ट होने से पहले हाथी मेरे साथी और बॉबी जैसी फिल्में भी देखने को मिलीं। पापा को फिल्में देखने का

हिन्दी टाकीज:फिल्में देखना जरूरी काम है-रवि शेखर

रवि शेखर देश के जाने-माने फोटोग्राफर हैं.उनकी तस्वीरें कलात्मक और भावपूर्ण होती हैं.उनकी तस्वीरों की अनेक प्रदर्शनियां हो चुकी हैं.इन दिनों वे चित्रकारों पर फिल्में बनाने के साथ ही योग साधना का भी अभ्यास कर रहे हैं.चित्त से प्रसन्न रवि शेखर के हर काम में एक रवानगी नज़र आती है.उन्होंने हिन्दी टाकीज सीरिज में लिखने का आग्रह सहर्ष स्वीकार किया.चवन्नी का आप सभी से आग्रह है की इस सीरिज को आगे बढायें। प्रिय चवन्नी, एसएमएस और ईमेल के इस जमाने में बरसों बाद ये लाइनें सफेद कागज पर लिखने बैठा हूं। संभाल कर रखना। तुमने बनारस के उन दिनों को याद करने की बात की है जब मैं हिंदी सिनेमा के चक्कर में आया था। और मुझे लगता है था कि मैं सब भूल गया हूं। यादों से बचना कहां मुमकिन हो पाता है - चाहे भले आपके पास समय का अभाव सा हो। सन् 1974 की गर्मियों के दिन थे। जब दसवीं का इम्तहान दे कर हम खाली हुए थे। तभी से हिंदी सिनेमा का प्रेम बैठ चुका था। राजेश खन्ना का जमाना था। परीक्षा के बीच में उन दिनों फिल्में देखना आम नहीं था। तभी हमने बनारस के 'साजन' सिनेमा हाल में 'आ

वो काग़ज़ की कश्‍ती, वो बारिश का पानी-अविनाश

समझौते,सुविधाओं और संपर्कों की बूंदाबांदी के इस दौर में ज्यादातर लोग भीग रहे हैं.कुछ ही लोग हैं,जिनके पास विचारों का छाता या सोच की बरसाती है.इस बेईमान मौसम में ख़ुद को संभाले रखना भी एक लड़ाई है.अविनाश हमारे बीच सधे क़दमों से बेखौफ आगे बढ़ रहे हैं.चवन्नी ने ऐसा उत्साह विरले व्यक्तियों में देखा है,जो आपकी हर योजना के प्रति सकारात्मक राय रखे और यथासंभव सहयोग और साथ के लिए तैयार रहे.चवन्नी ने सिनेमा को लेकर कुछ अलग किस्म के लेखों के बारे में सोचा और दोस्तों से ज़िक्र किया.सबसे पहला लेख अविनाश ने भेजा.चवन्नी उसे यहाँ प्रकाशित कर रहा है.इच्छा है कि इस सीरिज़ के अंतर्गत हम सिनेमा से निजी संबंधों को समझें और उन अनुभवों को बांटे ,जिनसे हमें सिने संस्कार मिला.चवन्नी का आग्रह होगा कि आप भी अपने अनुभव भेजें.इसे फिलहाल हिन्दी टाकीज नाम दिया जा रहा है। वो काग़ज़ की कश्‍ती, वो बारिश का पानी अविनाश नौजवानी में एक अजीब सी गुन-धुन होती है। आप आवारा हैं और मां-बाप का आप पर बस नहीं, तो आप या तो कुछ नहीं बनना चाहते या सब कुछ बन जाना चाहते हैं। जैसे एक वक्त था, जब मुझे लगता था कि मैं भारतीय सिनेमा का एक ज़र