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गुस्‍सा तुम्‍हरा खारा खारा - अनारकली

मेरी एक पोस्‍ट पर टिप्‍पणी के रूप में आई है सरला माहेश्‍वरी की यह कविता। आप सभी के लिए इसे यहां सुरक्षित कर रहा हूं। अनारकली ऑफ़ आरा ! -सरला माहेश्वरी अनारकली ऑफ आरा वाह ! तुम्हारा पारा ग़ुस्सा तुम्हारा खारा खारा बजबजाता शहर आरा नंगा बेचारा उस पर टमाटर जैसा चेहरा बन गया अंगारा क्या खूब ललकारा ! धो धो कर मारा धूम मचाकर मारा कुलपति को भरे बाजार मारा रंडी हो या रंडी से कम पत्नी हो या पत्नी से कम नहीं सहेंगे तुम्हारे करम जुल्म और सितम नाचेंगे, गाएँगे, हमरी मर्ज़ी नहीं चलेगी तुम्हारी मनमर्ज़ी हमरे पास भी देनी होगी अर्ज़ी ! हमारा मान हमारा ईमान नहीं सहेंगे अपमान अनवर जैसा रौशन मन हीरे जैसा हीरामन खाता केवल देश की क़सम नहीं कोई तीसरी क़सम शेष में दी ऐसी पटकन धड़क उठी फिर जीवन की धड़कन ! अनारकली ऑफ आरा वाह ! तुम्हारा पारा ग़ुस्सा तुम्हारा खारा खारा

मुखर प्रतिरोध की कहानी - अनारकली

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हम ने फेसबुक पर आग्रह किया था कि अगर कोई अनारकली ऑफ आरा पर लखना चाहता है तो वह अपना लेख हमें भेज दें। उसे चवन्‍नी पर प्रकाशित किया जाएगा। फेसबुक स्‍टेटस में पांच-दस पंक्तियों में सभी अपनर राय रख रहे हैं। समय के साथ वह अतीत के आर्काइव में खो जाएगाा। यहां प्रकाशित करने पर हम खोज कर पढ़ सकेंगे। बहरहाल,आप निष्‍ठा सक्‍सेना की राय पढ़ें और अपनी भेजें।  निष्‍ठा सक्‍सेना : ****************************** *********** अविनाश दास के निर्देशन में बनी 'अनारकली ऑफ़ आरा' पेशेवर लोक गायिका के मुखर प्रतिरोध की कहानी है। वह अपनी देह पर किसी और की मनमर्जी की मुखालफत करती है। यह फिल्म हाशिये पर पड़ी उन औरतों की दारुण दशा प्रस्तुत करती है, जो द्विअर्थी गीत गाने के कारण पुरुष समाज द्वारा अपनी जागीर मान ली जाती है। यह स्त्री मुक्ति के साथ एक कलाकार के प्रतिरोध की भी आवाज है। जिस नृत्य शैली में वह लोगों का मनोरंजन करती है उसी शैली में वह गुलामी को भी 'ना' कहती है। कला किस बेहतरीन रूप से प्रतिरोध का स्वर बन सकती है यह बात भी फिल्म खूब दर्शाती है।   फिल्म की शुरुआत दुष्

फिल्‍म समीक्षा - फिल्‍लौरी

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दो युगों में की प्रेमकहानी फिल्‍लौरी -अजय ब्रह्मात्‍मज भाई-बहन कर्णेश शर्मा और अनुष्‍का शर्मा की कंपनी ‘ क्‍लीन स्‍लेट ’ नई और अलग किस्‍म की कोशिश में इस बार ‘ फिल्‍लौरी ’ लेकर आई है। फिल्‍लौरी की लेखक अन्विता दत्‍त हैं। निर्देशन की बागडोर अंशय लाल ने संभाली है। दो युगों की दो दुनिया की इस फिल्‍म में दो प्रेमकहानियां चलती हैं। पिछले युग की प्रेमकहानी की प्रमिका शशि इस युग में भूतनी बन चुकी है और संयोग से कनन और अनु के बीच टपक पड़ती है। अन्विता दत्‍त और अंशय लाल ने दो युगों की इस फंतासी को वीएफएक्‍स के जरिए पर्दे पर उतारा है। फिल्‍म में तर्क और विचार को परे कर दें तो यह रोचक फिल्‍म है। कनन तीन सालों के बाद कनाडा से लौटा है। उसकी शादी बचपन की दोस्‍त अनु से होने वाली है। बेमन से शादी के लिए तैयार हुए कनन के बारे में पता चलता है कि वह मांगलिक है। मांगलिक प्रभाव से निकलने के लिए जरूरी है कि पहले किसी पेड़ से उसकी शादी की जाए। आधुनिक सोच-विचार के कनन को यह बात अजीब लगती है। आरंभिक आनाकानी के बाद परिवार के दबाव में वह इसके लिए भी राजी हो जाता है। पेड़ से शादी होने पर उस

फिल्‍म समीक्षा - अनारकली ऑफ आरा

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फिल्‍म रिव्‍यू ’ मर्दों ’ की मनमर्जी की उड़े धज्जी अनारकली ऑफ आरा     -अमित कर्ण 21 वीं सदी में आज भी बहू , बेटियां और बहन घरेलू हिंसा , बलात संभोग व एसिड एटैक के घने काले साये में जीने को मजबूर हैं। घर की चारदीवारी हो या स्‍कूल-कॉलेज व दफ्तर चहुंओर ‘ मर्दों ’ की बेकाबू लिप्‍सा और मनमर्जी औरतों के जिस्‍म को नोच खाने को आतुर रहती है। ऐसी फितरत वाले बिहार के आरा से लेकर अमेरिका के एरिजोना तक पसरे हुए हैं। लेखक-निर्देशक अविनाश दास ने उन जैसों की सोच वालों पर करारा प्रहार किया है। उन्‍होंने आम से लेकर कथित ‘ नीच ’ माने जाने वाले तबके तक को भी इज्‍जत से जीने का हक देने की पैरोकारी की है। इसे बयान करने को उन्‍होंने तंज की राह पकड़ी है। इस काम में उन्हें कलाकारों , गीतकारों , संगीतकारों व डीओपी का पूरा सहयोग मिला है। उनकी नज़र नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से फिल्‍म को लैस करती है। अविनाश दास ने अपने दिलचस्‍प किरदारों अनारकली , उसकी मां , रंगीला , हीरामन , धर्मेंद्र चौहान , बुलबुल पांडे व अनवर से कहानी में एजेंडापरक जहान गढा है। हरेक की ख्‍वाहिशें , महत्‍वाकांक्षाएं व ला

मामूलीपन की भव्यता बचाने की जद्दोजहद : अनारकली ऑफ आरा

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मामूलीपन की भव्यता बचाने की जद्दोजहद : अनारकली ऑफ आरा -विनीत कुमार अविनाश दास द्वारा लिखित एवं निर्देशित फिल्म “अनारकली ऑफ आरा” अपने गहरे अर्थों में मामूलीपन के भीतर मौजूद भव्यता की तलाश और उसे बचाए रखने की जद्दोजहद है. इसे यूं कहे कि इस फिल्म का मुख्य किरदार ये मामूलीपन ही है जो शुरु से आखिर तक अनारकली से लेकर उन तमाम चरित्रों एवं परिस्थितियों के बीच मौजूद रहता है जो पूरी फिल्म को मौजूदा दौर के बरक्स एक विलोम ( वायनरी) के तौर पर लाकर खड़ा कर देता है. एक ऐसा विलोम जिसके आगे सत्ता, संस्थान और उनके कल-पुर्जे पर लंपटई, बर्बरता और अमानवीयता के चढ़े प्लास्टर भरभरा जाते हैं.  एक स्थानीय गायिका के तौर पर अनारकली ने अपनी अस्मिता और कलाकार की निजता( सेल्फनेस) को बचाए रखने के लिए जो संघर्ष किया है, वह विमर्श के जनाना डब्बे में रखकर फिल्म पर बात करने से रोकती है. ये खांचेबाज विश्लेषण के तरीके से कहीं आगे ले जाकर हर उस मामूली व्यक्ति के संघर्ष के प्रति गहरा यकीं पैदा करती है जो शुरु से आखिर तक बतौर आदमी बचा रहना चाहता है. पद और पैसे के आगे हथियार डाल चुके समाज

कहालियों में इमोशन की जरूरत - शिवम नायर

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कहालनयों में इमोशन की जरूरत - शिवम नायर -अजय ब्रह्मात्‍मज तापसी पन्‍नू अभिनीत ‘ नाम शबाना ’ के निर्देशक शिवम नायर हैं। यह उनकी चौथी फिल्‍म है। नई पीढ़ी के कामयाब सभी उनका बहुत आदर करते हैं। संयोग ऐसा रहा कि उनकी फिल्‍में अधिक चर्चित नहां हो सकीं। ‘ नाम शबाना ’ से परिदृश्‍य बदल सकता है। नीरज पांडेय ने ‘ बेबी ’ की ‘ स्पिन ऑफ ’ फिल्‍म के बारे में सोचा तो उन्‍हें शिवम नायर का ही खयाल आया। - ‘ नाम शबाना ’ थोड़ा अजीब सा टायटल है। कैसे यह नाम आया और क्‍या है इस फिल्‍म में ? 0 ‘ बेबी ’ में तापसी पन्‍नू का नाम शबाना था। नीरज पांडेय ने ‘ स्पिन ऑफ ’ फिल्‍म के बारे में सोचा। भारत में यह अपने ढंग की पहली कोशिश है। ऐसी फिल्‍म में किसी एक कैरेक्‍टर की बैक स्‍टोरी पर जाते हैं। ‘ नाम शबाना ’ टायटल नीरज ने ही सुझाया। फिल्‍म में मनोज बाजपेयी दो-तीन बार इसी रूप में नाम लेते हैं। - नीरज पांडेय की फिल्‍म में आप कैसे आए ? उन्‍होंने आप को बुलाया या आप... 0 नीरज के साथ मेरे पुराने संबंध हैं। ‘ ए वेडनेसडे ’ के बाद उन्‍होंने मुझे दो बार बुलाया,लेकिन स्क्रिप्‍ट समझ में नहीं आने से

शबाना नाम है जिसका- तापसी पन्‍नू

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शबाना नाम है जिसका - तापसी पन्‍नू -अजय ब्रह्मात्‍मज तापसी पन्‍नू की ‘ नाम शबाना ’ भारत की पहली ‘ स्पिन ऑफ ’ फिल्‍म है। यह प्रीक्‍वल नहीं है। ‘ स्पिन ऑफ ’ में पिछली फिल्‍म के किसी एक पात्र के बैकग्राउंड में जाना होता है। तापसी पन्‍नू ने ‘ नीरज पांडेय ’ निर्देशित ‘ बेबी ’ में शबाना का किरदार निभाया था। उस किरदार को दर्शकों ने पसंद किया था। उन्‍हें लगा था कि इस किरदार के बारे में निर्देयाक को और भी बताना चाहिए था। तापसी कहती हैं, ’ दर्शकों की इस मांग और चाहत से ही ‘ नाम शबाना ’ का खयाल आया। नीरज पांडेय ने ‘ बेबी ’ के कलाकारों से इसे शेयर किया तो सभी का पॉजीटिव रेस्‍पांस था। इस फिल्‍म में पुराने लीड कलाकार अब कैमियो में हैं। दो नए किरदार जोड़े गए है,जिन्‍हें मनोज बाजपेयी और पृथ्‍वी राज निभा रहे हैं। ‘ मनोज बाजपेयी ही मुझे स्‍पॉट कर के एस्‍पीनोज एजेंसी के लिए मुझे रिक्रूट करते हैं। ‘ ’ नाम शबाना ’ की शबाना मुंबई के भिंडी बाजार की निम्‍नमध्‍यवर्गीय मुसलमान परिवार की लड़की है। उसके साथ अतीत में कुछ हुआ है,जिसकी वजह से वह इस कदर अग्रेसिव हो गई है। तापसी उसके स्‍वभाव के

बार- बार नहीं मिलता ऐसा मौका - राजकुमार राव

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राजकुमार राव -अजय ब्रह्मात्‍मज राजकुमार राव के लिए यह साल अच्‍छा होगा। बर्लिन में उनकी अमित मासुरकर निर्देशित फिल्‍म ‘ न्‍यूटन ’ को पुरस्‍कार मिला। अभी ‘ ट्रैप्‍ड ’ रिलीज हो रही है। तीन फिल्‍मों ’ बरेली की बर्फी ’ , ’ बहन होगी तेरी ’ और ‘ ओमेरटा ’ की शूटिंग पूरी हो चुकी है। जल्‍दी ही इनकी रिलीज की तारीखें घोषित होंगी। -एक साथ इतनी फिल्‍में आ रही हैं। फिलहाल ‘ ट्रैप्‍ड ’ के बारे में बताएं ? 0 ‘ ट्रैप्‍ड ’ की शूटिंग मैंने 2015 के दिसंबर में खत्‍म कर दी थी। इस फिल्‍म की एडीटिंग जटिल थी। विक्रम ने समय लिया। पिछले साल मुंबई के इंटरनेशनल फिल्‍म फेस्टिवल ‘ मामी ’ में हमलोगों ने फिल्‍म दिखाई थी। तब लोगों को फिल्‍म पसंद आई थी। अब यह रेगुलर रिलीज हो रही है। -रंगमंच पर तो एक कलाकार के पेश किए नाटकों का चलन है। सिनेमा में ऐसा कम हुआ है,जब एक ही पात्र हो पूरी फिल्‍म में... 0 हां, फिल्‍मों में यह अनोखा प्रयोग है। यह एक पात्र और एक ही लोकेशन की कहानी है। फिल्‍म के 90 प्रतिशत हिस्‍से में मैं अकेला हूं। एक्‍टर के तौर पर मेरे लिए चुनौती थी। ऐसे मौके दुर्लभ हैं। फिलिकली और म

दरअसल : विरोध के नाम पर हिंसा और बयानबाजी क्‍यों?

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दरअसल... विरोध के नाम पर हिंसा और बयानबाजी क्‍यों ? -अजय ब्रह्मात्‍मज गनीमत है कि कोल्‍हापुर में संजय लीला भंसाली की ‘ पद्मावती ’ के सेट पर हुई आगजनी में किसी की जान नहीं गई। देर रात में हुड़दंगियों ने तोड़-फोड़ के बाद सेट को आग के हवाले कर दिया। संजय लीला भंसाली की टीम को माल का नुकसान अवश्‍य हुआ। कॉस्‍ट्यूम और जेवर खाक हो गए। अगली शूटिंग में कंटीन्‍यूटी की दिक्‍कतें आएंगी। फिर से सब कुछ तैयार करना होगा। ऐसी परेशानियों से हुड़दंगियों को क्‍या मतलब ? उन पर किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं होती तो उनका मन और मचलता है। वे फिर से लोगों और विचारों को तबाह करते हैं। देश में यह कोई पहली घटना नहीं है,लेकिन इधर कुछ सालों में इनकी आवृति बढ़ गई है। किसी भी समूह या समुदाय को कोई बात बुरी लगती है या विचार पसंद नहीं आता तो वे हिंसात्‍मक हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर गाली-गलौज पर उतर आते हैं। सेलिब्रिटी तमाम मुद्दों पर कुछ भी कहने-बोलने से बचने लगे हैं। कोई भी नहीं चाहता कि उसके घर,परिजनों और ठिकानों पर पत्‍थर फेंके जाएं। खास कर क्रिएटिव व्‍यक्ति ऐसी दुर्घटनाओं की संभावना से बचने के लि

फिल्‍म समीक्षा : ट्रैप्‍ड

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फिल्‍म रिव्‍यू जिजीविषा की रोचक कहानी ट्रैप्‍ड -अजयं ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍मों की एकरूपता और मेनस्‍ट्रीम मसाला फिल्‍मों के मनोरंजन से उकता चुके दर्शकों के लिए विक्रमादित्‍य मोटवाणी की ‘ ट्रैप्‍ड ’ राहत है। हिंदी फिल्‍मों की लीक से हट कर बनी इस फिल्‍म में राजकुमार राव जैसे उम्‍दा अभिनेता हैं,जो विक्रमादित्‍य मोटवाणी की कल्‍पना की उड़ान को पंख देते हैं। यह शौर्य की कहानी है,जो परिस्थितिवश मुंबई की ऊंची इमारत के एक फ्लैट में फंस जाता है। लगभग 100 मिनट की इस फिल्‍म में 90 मिनट राजकुमार राव पर्दे पर अकेले हैं और उतने ही मिनट फ्लैट से निकलने की उनकी जद्दोजहद है। फिल्‍म की शुरूआत में हमें दब्‍बू मिजाज का चशमीस शौर्य मिलता है,जो ढंग से अपने प्‍यार का इजहार भी नहीं कर पाता। झेंपू,चूहे तक से डरनेवाला डरपोक,शाकाहारी(जिसके पास मांसाहारी न होने के पारंपरिक तर्क हैं) यह युवक केवल नाम का शौर्य है। मुश्किल में फंसने पर उसकी जिजीविषा उसे तीक्ष्‍ण,होशियार,तत्‍पर और मांसाहारी बनाती है। ‘ ट्रैप्‍ड ’ मनुष्‍य के ‘ सरवाइवल इंस्टिंक्‍ट ’ की शानदार कहानी है। 21 वीं सदी के दूसरे दशक में