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बॉक्स ऑफिस:२६.०९,२००८

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औसत व्यापार कर लेगी 1920 निर्माता सुरेन्द्र शर्मा की विक्रम भट्ट निर्देशित डरावनी फिल्म 1920 हर जगह पसंद की गयी। मुंबई के मल्टीप्लेक्स से लेकर छोटे शहरों के सिं गल स्क्रीन तक में इसे ठीक-ठाक दर्शक मिल रहे हैं। विक्रम भट्ट की पिछली फिल्मों की तुलना में 1920 बड़ी हिट है। एक लंबे समय के बाद विक्रम भट्ट ने फिर से कामयाबी का स्वाद चखा है। मुंबई में आरंभिक दिनों में इसका कलेक्शन 55 से 60 प्रतिशत के बीच रहा। चूंकि फिल्म की तारीफ हो रही है, इसलिए ट्रेड पंडित अनुमान लगा रहे हैं कि 1920 औसत व्यापार कर लेगी। नए चेहरों रजनीश दुग्गल और अदा शर्मा को लेकर बनी फिल्म के लिए यह बड़ी बात है। अर्जुन बाली की रू-ब-रू में भले ही रणदीप हुडा और शहाना गोस्वामी ने बेहतर काम किया था। लेकिन लचर पटकथा और कमजोर प्रस्तुति केकारण फिल्म दर्शकों को नहीं बांध सकी। पहले दिन इसे सिर्फ 15 प्रतिशत दर्शक मिले। रितुपर्णो घोष की फिल्म द लास्ट लियर अंग्रेजी फिल्म है, लेकिन अमिताभ बच्चन, प्रीति जिंटा और अर्जुन रामपाल के कारण हिंदी फिल्मों के ट्रेड सर्किल में उसकी चर्चा है। इस फिल्म को पर्याप्त दर्शक नहीं मिले। मुं

फ़िल्म समीक्षा:१९२०

डर लगता है -अजय ब्रह्मात्मज डरावनी फिल्म की एक खासियत होती है कि वह उन दृश्यों में नहीं डराती, जहां हम उम्मीद करते हैं। सहज ढंग से चल रहे दृश्य के बीच अचानक कुछ घटता है और हम डर से सिहर उठते हैं। विक्रम भट्ट की 1920 में ऐसे कई दृश्य हैं। इसे देखते हुए उनकी पिछली डरावनी फिल्म राज के प्रसंग याद आ सकते हैं। यह विक्रम की विशेषता है। 1920 वास्तव में एक प्रेम कहानी है, जो आजादी के पहले घटित होती है। अर्जुन और लिसा विभिन्न धर्मोके हैं। अर्जुन अपने परिवार के खिलाफ जाकर लिसा से शादी कर लेता है। शादी के तुरंत बाद दोनों एक मनोरम ठिकाने पर पहुंचते हैं। वहां रजनीश को एक पुरानी हवेली को नया रूप देना है। फिल्म में हम पहले ही देख चुके हैं कि हवेली में बसी अज्ञात शक्तियां ऐसा नहीं होने देतीं। लिसा को वह हवेली परिचित सी लगती है। उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ती हैं और कुछ छायाएं भी दिखती हैं। ऐसा लगता है किहवेली से उसका कोई पुराना रिश्ता है। वास्तव में हवेली में बसी अतृप्त आत्मा को लिसा का ही इंतजार है। वह लिसा के जिस्म में प्रवेश कर जाती है। जब अर्जुन को लिसा की अजीबोगरीब हरकतों से हैरत होती है तो वह पहले मे

यहां माफी मांगने का मौका नहीं मिलता: अदा शर्मा

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विक्रम भट्ट की 1920 अदा शर्मा की पहली फिल्म है, लेकिन फिल्म देखने वालों को यकीन ही नहीं होगा कि उनकी यह पहली फिल्म है। अपने किरदार को उन्होंने बहुत खूबसूरती और सधे अंदाज में निभाया है। प्रस्तुत हैं अदा शर्मा से बातचीत.. पहली फिल्म की रिलीज के पहले से ही तारीफ हो रही है। इसके लिए आपने कितनी तैयारी की थी? पूरी तैयारी की थी। डांस, ऐक्टिंग और एक्सप्रेशन, सभी पर काम किया था। विक्रम वैसे भी न केवल पूरी सीन को परफॉर्म करके बताते हैं, बल्कि संवाद, इमोशन आदि सब-कुछ समझा देते हैं। उससे काफी मदद मिली। दूसरी अभिनेत्रियों की तरह थिएटर या ट्रेनिंग लेकर आप नहीं आई हैं? थिएटर किया है मैंने, लेकिन तब नहीं सोचा था कि ऐक्टिंग करना है। जैसे डांस सीखती थी, वैसे ही थिएटर करती थी। हां, ऐक्टिंग क्लासेज में कभी नहीं गई। मुझे इसकी जरूरत भी नहीं महसूस हुई। मुझे लगा कि मेरे अंदर ऐक्टिंग टैलॅन्ट है और अभ्यास से हम उसे निखार सकते हैं। मेरे खयाल में अभिनय आपके व्यक्तित्व में जन्म से ही आता है। पहली फिल्म के लिए आपने क्या सावधानी बरती? अभी बहुत टफ मुकाबला है। आप पहली फिल्म के बहाने किसी से माफी नहीं मांग सकते। आपको प

हिन्दी टाकीज:हजारों ख्वाईशें ऐसी... -विनीत उत्पल

हिन्दी टाकीज-८ इस बार विनीत उत्पल.विनीत ने बडे जतन से सब कुछ याद किया है.विनीत पेशे से पत्रकार हैं। फिल्म, फ़िल्म और फ़िल्म, यह शब्द है या कुछ और। इससे परिचय कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह मायने रखता है। दीवारों पर चिपके पोस्टरों, अख़बारों में छपी तस्वीरें, गली-मोहल्ले में लाउडस्पीकरों में बजते गाने व डायलाग या घरों में रेडियो से प्रसारित होने वाले फिल्मी गाने मन मस्तिष्क पर दस्तक देते। उत्सुकता जगाते। शादी-ब्याह के मौके पर माहौल को मदमस्त करते फिल्मी गाने हों या २६ जनवरी या १५ अगस्त को बजने वाले देशभक्ति के तराने, बचपन की अठखेलियों के साथ कौतुहल का विषय होता। बचपन के वो दिन जब हजारों ख्वाईशें ऐसी कि फिल्मी पोस्टर पर हीरो को स्टाइल देते देख ख़ुद के अरमान स्मार्ट बनने और दीखने की कोशिश में खो जाते। उस दौर में तमाम हीरोइनें एक जैसी लगतीं। मन में उथल-पुथल कि गाने बजते कैसे हैं, डायलाग कैसे बोला जाता है, हीरो जमीन से उठकर परदे पर कैसे आता है, क्या पोस्टर पर दीखने वाला स्टंट वास्तव में होता है। वो हसीन पल मां बताती है कि सैनिक स्कूल, तिलैया में हर शनिवार को फ़िल्म दिखाया जाता था। फुर्सत मिलने पर

मेट्रो, मल्टीप्लेक्स और मार्केटिंग

-अजय ब्रह्मात्मज अपने शहरों के सिनेमाघरों में लगी फिल्मों के प्रति दर्शकों की अरुचि को देखकर लोग मानते हैं कि फिल्म चली नहीं, लेकिन अगले ही दिन अखबार और टीवी चैनलों पर निर्माता, निर्देशक, आर्टिस्ट और कुछ ट्रेड पंडितों को चिल्ला-चिल्लाकर लिखते और बोलते देखते हैं कि फिल्म हिट हो गई है। लोग यह भी देखते हैं कि इस चीख का फायदा होता है। सिनेमाघर की तरफ दर्शकजाते दिखाई देते हैं। पहले-दूसरे दिन खाली पड़ा सिनेमाघर तीसरे दिन से थोड़ा-थोड़ा भरने लगता है। फिल्म चलाने की यह नई रणनीति है। ट्रेड विशेषज्ञों के मंतव्य के पहले ही शोर आरंभ कर दो कि मेरी फिल्म हिट हो गई है। यही चल रहा है। पिछले दिनों फूंक की साधारण कामयाबी का बड़ा जश्न मनाया गया। इसके सिक्वल की घोषणा भी कर दी गई! उस रात पार्टी में सभी अंदर से मान रहे थे कि फूंक रामू की पिछली फ्लॉप फिल्मों से थोड़ा बेहतर बिजनेस ही कर रही है, फिर भी सभी एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और कह रहे थे कि फिल्म हिट हो गई है। एंटरटेनमेंट और न्यूज चैनल के रिपोर्टर पार्टी में दी जा रही बधाइयों का सीधा प्रसारण कर रहे थे। मीडिया प्रचार की इस चपेट में आम दर्शकों का आना

हिन्दी टाकीज:दर्शक की यादों में सिनेमा -रवीश कुमार

हिन्दी टाकीज-7 रवीश कुमार को उनके ही शब्दों में बताएं तो...हर वक्त कई चीज़ें करने का मन करता है। हर वक्त कुछ नहीं करने का मन करता है। ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं। पर खुद के प्रति गंभीर नहीं हूं। मैं बोलने को लिखने से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं क्योंकि यही मेरा पेशा भी है। ...रवीश ने हिन्दी टाकीज के ये आलेख अपने ब्लॉग पर बहुत पहले डाले थे,लेकिन चवन्नी के आग्रह पर उन्होंने अनुमति दी की इसे चवन्नी के ब्लॉग पर पोस्ट किया जा सकता है.जिन्होंने पढ़ लिया है वे दोबारा फ़िल्म देखने जैसा आनंद लें और जो पहले पाठक हैं उन्हें तो आनंद आएगा ही .... जो ठीक ठीक याद है उसके मुताबिक पहली बार सिनेमा बाबूजी के साथ ही देखा था। स्कूटर पर आगे खड़ा होकर गया था। पीछे मां बैठी थी। फिल्म का नाम था दंगल। उसके बाद दो कलियां देखी। पटना के पर्ल सिनेमा से लौटते वक्त भारी बारिश हो रही थी। हम सब रिक्शे से लौट रहे थे। तब बारिश में भींगने से कोई घबराता नहीं था। हम सब भींगते जा रहे थे। मां को लगता था कि बारिश में भींगने से घमौरियां ठीक हो जाती हैं। तो वो खुश थीं। हम सब खुश थे। बीस रुपये से भी कम में चार लोग सिनेमा

फ़िल्म समीक्षा :रॉक ऑन

दोस्ती की महानगरीय दास्तान -अजय ब्रह्मात्मज फरहान अख्तर की पहली फिल्म दिल चाहता है में तीन दोस्तों की कहानी थी। फिल्म काफी पसंद की गई थी। इस बार उनकी प्रोडक्शन कंपनी ने अभिषेक कपूर को निर्देशन की जिम्मेदारी दी। दोस्त चार हो गए। महानगरीय भावबोध की रॉक ऑन मैट्रो और मल्टीप्लेक्स के दर्शकों के लिए मनोरंजक है। आदित्य, राब, केडी और जो चार दोस्त हैं। चारों मिल कर एक बैंड बनाते हैं। आदित्य इस बैंड का लीड सिंगर है और वह गीत भी लिखता है। उसके गीतों में युवा पीढ़ी की आशा-निराशा, सुख-दुख, खुशी और इच्छा के शब्द मिलते हैं। चारों दोस्तों का बैंड मशहूर होता है। उनका अलबम आने वाला है और म्यूजिक वीडियो भी तैयार हो रहा है। तभी एक छोटी सी बात पर उनका बैंड बिखर जाता है। चारों के रास्ते अलग हो जाते हैं। दस साल बाद आदित्य की पत्नी के प्रयास से चारों दोस्त फिर एकत्रित होते हैं। उनका बैंड पुनर्जीवित होता है। आपस के मतभेद और गलतफहमियां भुलाकर सब खुशहाल जिंदगी की तरफ बढ़ते हैं। लेखक-निर्देशक अभिषेक कपूर ने रोचक पटकथा लिखी है। ऊपरी तौर पर फिल्म में प्रवाह है। कोई भी दृश्य फालतू नहीं लगता लेकिन गौर करने पर हम पाते

फ़िल्म समीक्षा:चमकू

-अजय ब्रह्मात्मज यथार्थ का फिल्मी चित्रण शहरी दर्शकों के लिए इस फिल्म के यथार्थ को समझ पाना सहज नहीं होगा। फिल्मों के जरिए अंडरव‌र्ल्ड की ग्लैमराइज हिंसा से परिचित दर्शक बिहार में मौजूद इस हिंसात्मक माहौल की कल्पना नहीं कर सकते। लेखक-निर्देशक कबीर कौशिक ने वास्तविक किरदारों को लेकर एक नाटकीय और भावपूर्ण फिल्म बनाई है। फिल्म देखते वक्त यह जरूर लगता है कि कहीं-कहीं कुछ छूट गया है। एक काल्पनिक गांव भागपुर में खुशहाल किसान परिवार में तब मुसीबत आती है, जब गांव के जमींदार उससे नाराज हो जाते हैं। वे बेटे के सामने पिता की हत्या कर देते हैं। बेटा नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वहीं उसकी परवरिश होती है। बड़ा होने पर चमकू नक्सल गतिविधियों में हिस्सा लेता है। एक मुठभेड़ में गंभीर रूप से घायल होने के बाद वह खुद को पुलिस अस्पताल में पाता है। वहां उसके सामने शर्त रखी जाती है कि वह सरकार के गुप्त मिशन का हिस्सा बन जाए या अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठे। चमकू गुप्त मिशन का हिस्सा बनता है। वह मुंबई आ जाता है, जहां वह द्वंद्व और दुविधा का शिकार होता है। वह इस जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता है लेकिन अपराध जगत की त

बॉक्स ऑफिस:२९.०८.२००८

नही चला मल्लिका का जादू सिंह इज किंग ने यह ट्रेंड चालू कर दिया है कि शुक्रवार को फिल्म रिलीज करो और अगले सोमवार को कामयाबी का जश्न मना लो। इसके दो फायदे हैं- एक तो ट्रेड में बात फैलती है कि फिल्म हिट हो गयी है और दूसरे कामयाबी के जश्न की रिपोर्टिग देख, सुन और पढ़ कर दूसरे शहरों के दर्शकों को लगता है कि फिल्म हिट है, तभी तो पार्टी हो रही है। इस तरह कामयाबी के प्रचार से फिल्म को नए दर्शक मिल जाते हैं। पिछले सोमवार को फूंक की कामयाबी की पार्टी थी। एक बुरी फिल्म की कामयाबी का जश्न मनाते हुए निर्देशक राम गोपाल वर्मा की संवेदना अवश्य आहत हुई होगी। मन तो कचोट रहा होगा, लेकिन कैसे जाहिर करें? बहरहाल, फूंक के प्रचार से आरंभिक दर्शक मिले। पहले दिन इसका कलेक्शन 70 प्रतिशत था। राम गोपाल वर्मा की पिछली फिल्मों के व्यापार को देखते हुए इसे जबरदस्त ओपनिंग मान सकते हैं। शनिवार को दर्शक बढ़े, लेकिन रविवार से दर्शक घटने आरंभ हो गए। इस फिल्म की लागत इतनी कम है कि सामान्य बिजनेस से भी फिल्म फायदे में आ गयी है। मान गए मुगले आजम और मुंबई मेरी जान का बुरा हाल रहा। संजय छैल की मान गए मुगले आजम देखने दर्शक गए

फिल्मी पर्दे और जीवन का सच

-अजय ब्रह्मात्मज कुछ दिनों पहले शबाना आजमी ने बयान दे दिया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें (पति जावेद अख्तर समेत) मुंबई में मकान नहीं मिल पा रहा है। उनके बयान का विरोध हो रहा है। शबाना का सामाजिक व्यक्तित्व ओढ़ा हुआ लगता है, लेकिन अपने इस बयान में उन्होंने उस कड़वी सच्चाई को उगल दिया है, जो भारतीय समाज में दबे-छिपे तरीके से मौजूद रही है। मुंबई की बात करें, तो अयोध्या की घटना के बाद बहुत तेजी से सामुदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। निदा फाजली जैसे शायर को अपनी सुरक्षा के लिए मुस्लिम बहुल इलाके में शिफ्ट करना पड़ा। गैर मजहबी और पंथनिरपेक्ष किस्म के मुसलमान बुद्धिजीवियों, शायरों, लेखकों और दूसरी समझदार हस्तियों ने अपने ठिकाने बदले। आम आदमी की तो बात ही अलग है। अलिखित नियम है कि हिंदू बहुल सोसाइटी और बिल्डिंग में मुसलमानों को फ्लैट मत दो। हिंदी सिनेमा बहुत पहले से इस तरह के सामाजिक भेदभाव दर्शाता रहा है। देश में मुसलमानों की आबादी करीब बीस प्रतिशत है, लेकिन फिल्मों में उनका चित्रण पांच प्रतिशत भी नहीं हो पाता। मुख्यधारा की कॉमर्शिअॅल फिल्मों में कितने नायकों का नाम खुर्शीद, अनवर या शाहरुख होता है? न