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फिल्म समीक्षा:हरि पुत्तर

माहौल खराब करती है हरि पुत्तर जैसी फिल्में फिल्म के निर्माता-निर्देशक ने हैरी पाटर से मिलता जुलता नाम हरि पुत्तर रखकर भले ही चर्चा पा ली हो, लेकिन इस फिल्म की जितनी भ‌र्त्सना की जाए कम है। बच्चों के लिए ऐसी अश्लील, फूहड़ और विवेकहीन फिल्म की कल्पना किसी अपराध से कम नहीं। भारत में बच्चों के लिए बनाई जाने वाली फिल्मों की वैसे ही कमी है। लेकिन हरि पुत्तर जैसी फिल्में माहौल को और भी गंदा व खराब करती हैं। विदेशी फिल्म से प्रेरणा लेकर बनाई गई इस फिल्म को घटिया ढंग से लिखा और फिल्मांकित किया गया है। हरि अपने माता-पिता के साथ इंग्लैंड रहने चला गया है। वहां एक दिन परिवार के सभी लोग भूल से उसे छोड़कर पिकनिक पर निकल जाते हैं। कहानी यह है कि कैसे वह गुप्त मिशन में लगे अपने पिता के प्रोजेक्ट की चिप की रक्षा करता है? यह फिल्म रोचक बन सकती थी लेकिन इसे देखकर तो यही लगता है कि हम बच्चों को कामेडी के नाम पर क्या परोस रहे हैं? सारिका और जैकी श्राफ ने इतना बुरा काम कभी नहीं किया। बाल कलाकार जैन खान को दी गई हिदायतें ही फूहड़ है, इसलिए उनके अभिनय में फूहड़ता दिखती है। सौरभ शुक्ला और विजय राज के बुरे अभिन

'द्रोण' में मेरा लुक और कैरेक्टर एकदम नया है-अभिषेक बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्मज कह सकते हैं कि अभिषेक बच्चन के करिअर पर थ्री डी इफेक्ट का आरंभ 'द्रोण' से होगा। यह संयोग ही है कि उनकी आगामी तीनों फिल्मों के टाइटल 'डी' से आरंभ होते हैं। 'द्रोण', 'दोस्ताना' और 'दिल्ली-६' में विभिन्न किरदारों में दिखेंगे। 'द्रोण' उनके बचपन के दोस्त गोल्डी बहल की फिल्म है। इस फंतासी और एडवेंचर फिल्म में अभिषेक बच्चन 'द्रोण' की शीर्षक भूमिका निभा रहे हैं। पिछले दिनों मुंबई में उनके ऑफिस 'जनक' में उनसे मुलाकात हुई तो 'द्रोण' के साथ ही 'अनफारगेटेबल' और बाकी बातों पर भी चर्चा हुई। फिलहाल प्रस्तुत हैं 'द्रोण' से संबंधित अंश ... - सबसे पहले 'द्रोण' की अवधारणा के बारे में बताएं। यह रेगुलर फिल्म नहीं लग रही है। 0 'द्रोण' अच्छे और बुरे के सतत संघर्ष की फिल्म है। सागर मंथन के बाद देवताओं ने एक साधु को अमृत सौंपा था। जब साधु को लगा कि असुर करीब आ रहे हैं और वे उससे अमृत छीन लेंगे तो उसने अमृत घट का राज प्रतापगढ़ के राजा वीरभद्र सिंह को बताया और उनसे सौगंध ली कि वे अमृत की रक्षा

फिल्मों की आय से भी बनती है राय

-अजय ब्रह्मात्मज यह चलन कुछ समय से तेज हुआ है। फिल्म रिलीज होने के कुछ दिनों और हफ्तों के बाद अखबारों, ट्रेड पत्रिकाओं और इंटरनेट पर विज्ञापनों और खबरों के जरिए निर्माता फिल्म के ग्रॉस कलेक्शन की जानकारी देता है। यह आंकड़ा काफी बड़ा होता है। ऐसा लगता है कि फिल्म ने खूब व्यवसाय किया है और इसीलिए कलेक्शन इतना तगड़ा हुआ है। दरअसल, इस अभियान के पीछे निर्माता की मंशा और कोशिश यही रहती है कि फिल्म हिट मान ली जाए, क्योंकि अगर फिल्म के प्रति धारणा बन गई कि वह हिट है, तो उससे निर्माता को फायदा होता है। दरअसल, निर्माता आगामी फायदे के लिए आंकड़ों का झूठ गढ़ता है। वह आम दर्शकों समेत ट्रेड को भी झांसा देता है, जबकि ट्रेड पंडित वास्तविक आय के बारे में अच्छी तरह जान रहे होते हैं। गौर करें, तो ग्रॉस कलेक्शन झूठ से अधिक झांसा है। आंकड़ा सही रहता है, लेकिन वास्तविक आय कुल आमद की दस-पंद्रह प्रतिशत ही होती है। चूंकि आम दर्शक और सामान्य पाठक इन आंकड़ों के समीकरण से वाकिफ नहीं होते, इसलिए ग्रॉस कलेक्शन देखकर फिल्म को हिट मान लेते हैं। इस कलेक्शन में वितरक और प्रदर्शक के शेयर शामिल रहते हैं। इसके अलावा, फिल्

बॉक्स ऑफिस:२६.०९.२००८

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वेलकम टू सज्ज्जनपुर को मिले दर्शक पिछले हफ्ते की तीनों ही फिल्में कामेडी थीं। सीमित बजट की इन फिल्मों में कोई पॉपुलर स्टार नहीं था। कमर्शियल दृष्टिकोण से देखें तो इन सभी में सबसे ज्यादा पॉपुलर अमृता राव को माना जा सकता है। वह वेलकम टू सज्जनपुर में थीं। वेलकम टू सज्जनपुर श्याम बेनेगल की फिल्म है। कह सकते हैं कि उन्होंने पहली बार इस विधा की फिल्म बनाने की कोशिश की और सफल रहे। वेलकम टू सज्जनपुर को दर्शक मिल रहे हैं। शुक्रवार को इस फिल्म को ओपनिंग उल्लेखनीय नहीं थी, लेकिन शनिवार के रिव्यू और आरंभिक दर्शकों की तारीफ से इसके दर्शकबढ़े। इस फिल्म के लिए 40-50 प्रतिशत दर्शक कम नहीं कहे जा सकते। इस फिल्म को छोटे शहरों में आक्रामक प्रचार के साथ अभी भी ले जाया जाए तो कुछ और दर्शक मिलेंगे। यह भारतीय गांव की कहानी है, जहां हंसी के लिए सीन नहीं लिखने पड़ते। बाकी दो फिल्मों में हल्ला के निर्देशक जयदीप वर्मा अपनी फिल्म को मिली प्रतिक्रिया से दुखी और नाराज है। उन्हें लगता है कि उनकी उद्देश्यपूर्ण फिल्म को किसी साजिश के तहत नकार दिया गया। ऐसा नहीं है। फिल्म ही बुरी थी। उन्हें आत्मावलोकन करना चाहिए। तीसर

हम फिल्में क्यों देखते हैं?-शशि सिंह

हिन्दी टाकीज-९ जिन खोजा तिन पाइया का मुहावरा शशि सिंह के बारे में सही बयान करता है. झारखण्ड के हजारीबाग जिले में स्थित कोलफील्ड रजरप्पा में पले-बढे शशि सिंह हिन्दी के पुराने ब्लॉगर हैं.सपने देखने-दिखने में यह नौजवान जितना माहिर है,उन्हें पूरा करने को लेकर उतना ही बेचैन भी है.अपनी जड़ों से गहरे जुड़े शशि सिंह ने प्रिंट पत्रकारिता शरुआत की थी.इन दिनों वे न्यू मीडिया (mobile vas) में सक्रीय हैं और वोडाफोन में कार्यरत हैं.शशि सिंह के आग्रह से आप नहीं बच सकते,क्योंकि उसमें एक छिपी चुनौती भी रहती है,जो कुछ नया करने के लिए सामने वाले को उकसाती है। हम फिल्में क्यों देखते हैं? जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं,इसलिए हम फिल्में देखते हैं। यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते। मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और। खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है,इसलिए हम फिल्में देखते हैं। फ्लैश बैक फिल्में देखने की बात चली तो याद आता है वो दिन जब मैंने सिनेमाघर में पहली फिल्म देखी। सिनेमा का वह मंदिर था,रामगढ़ का राजीव पिक्चर पैलेस। इस मंदिर में मैंने पहली

फ़िल्म समीक्षा:वेलकम टू सज्जनपुर

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सहज हास्य का सुंदर चित्रण -अजय ब्रह्मात्मज श्याम बेनेगल की गंभीर फिल्मों से परिचित दर्शकों को वेलकम टू सज्जनपुर छोटी और हल्की फिल्म लग सकती है। एक गांव में ज्यादातर मासूम और चंद चालाक किरदारों को लेकर बुनी गई इस फिल्म में जीवन के हल्के-फुल्के प्रसंगों में छिपे हास्य की गुदगुदी है। साथ ही गांव में चल रही राजनीति और लोकतंत्र की बढ़ती समझ का प्रासंगिक चित्रण है। बेनेगल की फिल्म में हम फूहड़ या ऊलजलूल हास्य की कल्पना ही नहीं कर सकते। लाउड एक्टिंग, अश्लील संवाद और सितारों के आकर्षण को ही कामेडी समझने वाले इस फिल्म से समझ बढ़ा सकते हैं कि भारतीय समाज में हास्य कितना सहज और आम है। सज्जनपुर गांव में महादेव अकेला पढ़ा-लिखा नौजवान है। उसे नौकरी नहीं मिलती तो बीए करने के बावजूद वह सब्जी बेचने के पारिवारिक धंधे में लग जाता है। संयोग से वह गांव की एक दुखियारी के लिए उसके बेटे के नाम भावपूर्ण चिट्ठी लिखता है। बेटा मां की सुध लेता है और महादेव की चिट्ठी लिखने की कला गांव में मशहूर हो जाती है। बाद में वह इसे ही पेशा बना लेता है। चिट्ठी लिखने के क्रम में महादेव के संपर्क में आए किरदारों के जरिए हम गां

पीड़ा में दिलासा देती है प्रार्थना:महेश भट्ट

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एक गोरी खूबसूरत औरत झुक कर कुरान की आयतें पढती हुई मेरे चेहरे पर फूंकती है। ताड के पुराने पत्तों से मेरे ललाट पर क्रॉस बनाती है। फिर गणेश की तांबे की छोटी मूर्ति मेरे हाथों में देती है, धीमे कदमों से दरवाजे की ओर लौटती है। जाते हुए कमरे का बल्ब बुझाती है। नींद के इंतजार में उस औरत की प्रार्थनाओं से मैं सुकून और सुरक्षा महसूस करता हूं। मुश्किल वक्त की दिलासा अपनी शिया मुस्लिम मां की यह छवि मेरी यादों से कभी नहीं गई। मां ने हिंदू ब्राह्मण से गुपचुप शादी की थी। वह मदर मैरी की भी पूजा करती थी। मेरे कानों में अभी तक गणपति बप्पा मोरया, या अली मदद और आवे मारिया के बोल गूंजते हैं। जब मैं कुछ सीखने-समझने और याद करने लायक हुआ तो पाया कि मैं कहीं भी रहूं, ये ध्वनियां हमेशा साथ रहती हैं। बीमारी या भयावह पीडा के समय पूरी दुनिया में लोगों ने इन शब्दों का जाप किया है। सोचा कि क्या सचमुच इन शब्दों में राहत देने की शक्ति है। यह वह समय था, जब देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। इसे विडंबना कहें कि जहां देवताओं की अधिकतम संख्या है, उसका प्रधानमंत्री घोषित रूप से नास्तिक था। उन्होंने सौगंध खाई कि

बच्चन का सराहनीय व्यवहार

-अजय ब्रह्मात्मज यह उम्र का असर हो सकता है। यह भी संभव है कि इसके पीछे किसी भी प्रकार के विवाद से दूर रहने की मंशा काम करती हो। इन दिनों अमिताभ बच्चन तुरंत बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं। वे अपने ब्लॉग पर झट से लिखते हैं कि अगर मेरी बात से कोई आहत हुआ हो, तो मैं माफी मांगता हूं। एंग्री यंग मैन अब कूल ओल्ड मैन में बदल चुका है। उनके इस आकस्मिक व्यवहार से उनके पुराने प्रशंसकों को तकलीफ भी हो सकती है। विजय अब चुनौती नहीं देता। मुठभेड़ नहीं करता। विवाद की स्थिति आने पर दो कदम पीछे हट कर माफी मांग लेता है। ऐक्टर की इमेज को सच समझने वालों को निश्चित ही अमिताभ बच्चन की ऐसी मुद्राओं से आश्चर्य होता होगा! पिछले दिनों मुंबई में जो हुआ, उसे एक प्रहसन ही कहा जा सकता है। द्रोण फिल्म की म्यूजिक रिलीज के अवसर पर जया बच्चन के कथन का गलत आशय निकाला गया और उसे मराठी अस्मिता से जोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने बच्चन परिवार के विरोध का नारा दे दिया। बच्चन परिवार उनके निशाने पर पहले से है। इस विरोध के कारणों की पड़ताल करें तो हम राज ठाकरे के वक्तव्य और आचरण का निहितार्थ समझ सकते हैं। ब

बॉक्स ऑफिस:२६.०९,२००८

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औसत व्यापार कर लेगी 1920 निर्माता सुरेन्द्र शर्मा की विक्रम भट्ट निर्देशित डरावनी फिल्म 1920 हर जगह पसंद की गयी। मुंबई के मल्टीप्लेक्स से लेकर छोटे शहरों के सिं गल स्क्रीन तक में इसे ठीक-ठाक दर्शक मिल रहे हैं। विक्रम भट्ट की पिछली फिल्मों की तुलना में 1920 बड़ी हिट है। एक लंबे समय के बाद विक्रम भट्ट ने फिर से कामयाबी का स्वाद चखा है। मुंबई में आरंभिक दिनों में इसका कलेक्शन 55 से 60 प्रतिशत के बीच रहा। चूंकि फिल्म की तारीफ हो रही है, इसलिए ट्रेड पंडित अनुमान लगा रहे हैं कि 1920 औसत व्यापार कर लेगी। नए चेहरों रजनीश दुग्गल और अदा शर्मा को लेकर बनी फिल्म के लिए यह बड़ी बात है। अर्जुन बाली की रू-ब-रू में भले ही रणदीप हुडा और शहाना गोस्वामी ने बेहतर काम किया था। लेकिन लचर पटकथा और कमजोर प्रस्तुति केकारण फिल्म दर्शकों को नहीं बांध सकी। पहले दिन इसे सिर्फ 15 प्रतिशत दर्शक मिले। रितुपर्णो घोष की फिल्म द लास्ट लियर अंग्रेजी फिल्म है, लेकिन अमिताभ बच्चन, प्रीति जिंटा और अर्जुन रामपाल के कारण हिंदी फिल्मों के ट्रेड सर्किल में उसकी चर्चा है। इस फिल्म को पर्याप्त दर्शक नहीं मिले। मुं

फ़िल्म समीक्षा:१९२०

डर लगता है -अजय ब्रह्मात्मज डरावनी फिल्म की एक खासियत होती है कि वह उन दृश्यों में नहीं डराती, जहां हम उम्मीद करते हैं। सहज ढंग से चल रहे दृश्य के बीच अचानक कुछ घटता है और हम डर से सिहर उठते हैं। विक्रम भट्ट की 1920 में ऐसे कई दृश्य हैं। इसे देखते हुए उनकी पिछली डरावनी फिल्म राज के प्रसंग याद आ सकते हैं। यह विक्रम की विशेषता है। 1920 वास्तव में एक प्रेम कहानी है, जो आजादी के पहले घटित होती है। अर्जुन और लिसा विभिन्न धर्मोके हैं। अर्जुन अपने परिवार के खिलाफ जाकर लिसा से शादी कर लेता है। शादी के तुरंत बाद दोनों एक मनोरम ठिकाने पर पहुंचते हैं। वहां रजनीश को एक पुरानी हवेली को नया रूप देना है। फिल्म में हम पहले ही देख चुके हैं कि हवेली में बसी अज्ञात शक्तियां ऐसा नहीं होने देतीं। लिसा को वह हवेली परिचित सी लगती है। उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ती हैं और कुछ छायाएं भी दिखती हैं। ऐसा लगता है किहवेली से उसका कोई पुराना रिश्ता है। वास्तव में हवेली में बसी अतृप्त आत्मा को लिसा का ही इंतजार है। वह लिसा के जिस्म में प्रवेश कर जाती है। जब अर्जुन को लिसा की अजीबोगरीब हरकतों से हैरत होती है तो वह पहले मे