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हिंदी टाकीज: मायके से फिल्‍में देख कर ही लौटती हूं-मीना श्रीवास्‍तव

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हिंदी टाकीज-50 चवन्‍नी ने हिंदी टाकीज की यात्रा आरंभ की थी तो सोचा था कि लगे हाथ 50 कडि़यां पूरी हो जाएंगी। ऐसा नहीं हो सका। थोड़ा वक्‍त लगा,लेकिन आज 50 वें पड़ाव पर आ गए। यह सिलसिला चलता रहेगा। दोस्‍तों की सलाह से योजना बन रही है कि हिंदी टाकीज के संस्‍मरणों को पुस्‍तक का रूप दिया जाए। आप क्‍या सलाह देते हैं 50 वीं कड़ी में हैं मीना श्रीवास्‍तव। उनका यह संस्‍मरण कुछ नयी तस्‍वीरें दिखाता है। उनका परिचय है... मीना ग्राम माधवपुर, ज़िला मोतिहारी, बिहार के एक संभ्रांत परिवार की अनुज पुत्री हैं - शादी होने तक गाँव-घर में प्यार से 'मेमसाहब' नाम से पुकारी जाने जाने वाली मीना, गाँव की पहली महिला स्नातक भी थी। विवाह, वो भी एक लेखक से, और वो भी पसंदीदा पत्रिका सारिका मे छपने वाले अपने चहेते लेखक से, होने के उपरांत पटना आना हुआ - पर क्योंकि मामला मेमसाहब का था, भारत सरकार ने उनके विवाह के उपलक्ष्य में गाँधी सेतु बनवा डाला और मीना जी गाँधी सेतु पार कर के जो पटना आईं, तो अबतक बस वहीं हैं - २५ साल की पारी। जोक्स अपार्ट, मीनाजी बहुप्रतिभासंपन्न विदुषी और हिन्दी साहित्य की सजग

DDLJ रोमैंटिंक प्रेम का नया आख्‍यान

-जगदीश्वर चतुर्वेदी यह एकदम नए परि‍प्रेक्ष्‍य की फि‍ल्‍म थी। यह ऐसे समय में आयी थी जब चारों ओर से रोमैंटि‍क प्रेम पर तरह-तरह के हमले हो रहे थे,रोमैंटि‍क प्रेम का समाज में एक सांस्‍थानि‍क स्‍थान है। गे और लेस्‍बि‍यन से लेकर फंडामेंटलि‍स्‍टों तक, कठमुल्‍ले वामपंथि‍यों से लेकर कठमुल्‍ला स्‍त्रीवादि‍नि‍यों तक सबमें रौमेंटिंक प्रेम के प्रति‍ घृणा देखी जा सकती है। ये सभी रोमैंटि‍क प्रेम को आए दि‍न नि‍शाना बनाते हैं। 'दि‍ल वाले दुल्‍हनि‍या ले जाएंगे' इस अर्थ में नए पैराडाइम की फि‍ल्‍म है क्‍योंकि‍ इसमें रोमैंटि‍क प्रेम का संस्‍थान के रूप में रूपायन कि‍या गया है। उसकी सफलता का रहस्‍य भी यही है। हमारे समाज में स्‍त्रीवादी आंदोलन ने भी रोमैंटि‍क प्रेम पर हमले कि‍ए हैं। जगह-जगह अनेक महि‍ला संगठनों का इस प्रसंग में हस्‍तक्षेप देखने में आया है। स्‍त्रीवादी संगठनों का मानना है रोमैंटि‍क प्रेम स्‍त्री की स्‍वायत्‍तता को छीन लेता है। उसे परनि‍र्भर बना देता है। रोमैटिंक प्रेम का चि‍त्रण करते हुए फि‍ल्‍म के प्रमुख स्‍त्री पात्र कुछ इस तरह दि‍खाए गए हैं कि‍ वे स्‍त्री की शि‍रकत को बढावा देते

DDLJ किसी को आहत नहीं करती

- मृणाल वल्लरी डीडीएलजे की चर्चा पढ़के मन थोड़ा रूमानी हो गया। यकीन नहीं होता कि डीडीएलजे चैदह साल पहले की बात है। वह साल स्कूल में मेरा आखिरी साल था। यानी अगले साल से कॉलेज में जाना था। पटना जैसे शहर में आज से चैदह साल पहले हमें अपनी सहेलियों के साथ सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखने की इजाजत नहीं थी। लेकिन डीडीएलजे देखने की हमारी हसरत लोकल केबल वाले ने पूरी कर दी। मंैने मोहल्ले की सभी दोस्तों के साथ बैठ कर फिल्म देखी। पिक्चर क्वालिटी थोड़ी खराब जरूर थी और संवादों के साथ घर्र-घर्र की आवाज भी आ रही थी। लेकिन ये बात अब समझ में आती है। उस वक्त तो उसी पिक्चर क्वालिटी में राज हमारे दिलों पर राज कर रहा था। कहीं एक लेख में मैंने पढ़ा था कि पायरेसी आपका दोस्त है। सच है, अगर पायरेटेड सीडियां नहीं रहतीं तो...। स्कूल के खाली पीरियड में जिनका गला अच्छा था, वह गाने लग जातीं- मेरे ख्वाबो में जो आए... और हम सभी ब्लैक बोर्ड के पास डांस करना शुरू कर देतीं। हर ग्रुप में चर्चा के केंद्र में थे सिमरन और राज। किसी के साथ कुछ भी हुआ तो डायलॉग निकलता- बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें हो जाया करती हैं। हद तो

DDLJ के जादू का बाकी है असर

-प्रशांत प्रियदर्शी आजकल जिसे देखो वही डीडीएलजे की बातें कर रहा है.. करे भी क्यों ना? आखिर इसने चौदह साल पूरा करने के साथ ही जाने कितने ही लोगों और लगभग दो पीढि़यों को प्यार करना सिखाया होगा.. चलिये सीधे आते हैं अपने अनुभव के ऊपर.. उस समय हमलोग आधा पटना और आधा बिक्रमगंज में रहते थे.. पापा बिक्रमगंज में पदस्थापित थे और हम बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के चलते एक घर हमें पटना में भी लेकर रखना पड़ा था, क्योंकि बिक्रमगंज में " केंद्रीय विद्यालय" नहीं था.. उस समय हमारे घर में सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखने का प्रचलन लगभग ना के बराबर ही था और डीडीएलजे से पहले हमने अंतिम बार किसी सिनेमा हॉल में जाकर सिनेमा कब देखा था यह भी मुझे याद नहीं है.. हमलोग नये-नये जवान होना शुरू हुये थे और इस सिनेमा के आने से घर में हमारी जिद शुरू हो चुकी थी कि इसे देखेंगे तो सिनेमा हॉल में ही.. स्कूल में कई लड़के स्कूल से भागकर यह सिनेमा देखने जाते थे.. जिस दिन उन्हें स्कूल से भागकर सिनेमा देखना होता था उससे एक दिन पहले ही सभी मिलकर प्लानिंग करते थे.. शायद 10 साल बाद आये रौबिन शर्मा के उपन्यास(द मौंक हू सोल्ड हिज फरा

DDLJ हम न थे ‘राज’ और और न वो थी ‘सिमरन’

-विनीत उत्‍पल राष्ट्रीय सहारा में वरिष्ठ उपसंपादक विनीत उत्पल अपने नाम से ब्लॉग का संचालन करते हैं। राजनीति, सामाजिक, संस्कृतिक सहित विभिन्न विषयों पर लगातार लेखन करने वाले विनीत अनुवादक भी हैं। मैथिली और हिंदी में कविता भी लिखते हैं . अब जब फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाए जायेंगे’ की बात उठी है तो जिन्दगी के अतीत के झरोखे से रूबरू होना ही पड़ेगा। वरना इतने फिसले, इतने उठे, गिर-गिरकर उठे कि शाहरूख़ खान की जीभ भी उस कदर पूरी फिल्म में नहीं फिसली होगी। साल था 1995, पर मुंगेर जिले के तारापुर कस्बे में यह फिल्म जब लगी तब 1996 आ चुका था। पोस्टर देखता तिरछी आँखों से, क्योंकि जिस कल्पना सिनेमा हाल में यह फिल्म लगी थी उसके मेन गेट के पास शहर की सबसे बड़ी कपड़े की दुकान ‘जियाजी शूटिंग’ थी, जहां हमेशा कोई न कोई परिचित बैठा रहता। यह वह दौर था जब छोटे शहरों में फिल्म देखना अच्छा नहीं माना जाता। हमारे उम्र का कोई फिल्म देखने जाता तो लोग कहते, ‘वह तो ‘लफुआ’ हो गया है। आखिर और लोगों की तरह काजोल और शाहरूख़ मुझे भी अच्छे लगते। यह वही समय था जब लोगों की जुबान पर छाया था, ‘बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी

DDLJ लाइन मारना तो शाहरुख ने ही समझाया था....

-सुशांत झा घर से नजदीकी शहर मधुबनी 35 किलोमीटर दूर था, अकेले जाने की इजाजत अक्सर नहीं मिलती थी जब डीडीएलजे का वक्त आया था। बिहार बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में जब फर्स्ट क्लास में पास हुआ तो अचानक इज्जत बढ गई, मधुबनी अकेले जाने का पासपोर्ट मिल गया-जो हमारे लिए उस वक्त कैलिफोर्नियां से कम नहीं था। उससे पहले सिनेमा का मतलब गांव का वीसीआर और दूरदर्शन पर आनेवाला सिनेमा था जो दरभंगा के कमजोर टावर की वजह से अक्सर डिस्टर्व आता था। हम कड़ियों को जोड़-जोड़ कर सिनेमा का अनुमान लगाते थे। गांव में छिटपुट घरो में टीवी आई था जो बिजली न होने की वजह से बैटरी से देखी जाती था और बैटरी चार्ज कराकर लानेवाले और टीवी चलाने वाले की इज्जत आईआईटी इंजिनियर से कम नहीं थी। हमें टीवी पर रंगोली, चित्रहार और सप्ताह में एक फिल्म देखने की इजाजत थी, इससे ज्यादा देखने पर आवारा का तमगा निश्चित था। रामायण के वक्त शायद 89 या 90 में जब मेरे बड़े चाचा जो स्कूल में मास्टर थे ने टीवी लाया था तो उनका दावा था कि उनका टीवी दुनिया का बेहतरीन ब्रांड है और मुजफ्फरपुर दुनिया का सबसे अच्छा शहर। वजह? उन्होने मुजफ्फरपुर से टीवी लाया था ज

DDLJ चौदह साल बाद हॉल में देखनी

- रघुवेन्द्र सिंह दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे हम पहिली बार कब देखनी ? इ याद ना ह , लेकिन एतना पता ह कि जब ए फिलिम के हम पहिली बार देखनी तबसे इ हमार फेवरेट हो गइल। अब तक हम डीडीएलजे के टीवी पर अनगिनत बार देख भयल हंई , लेकिन हमरे मन में हमेसा अपने ए फेवरेट फिलिम के सिनेमा हॉल में न देख पउले क पछतावा अउर दुख रहे। डीडीएलजे जब रिलीज भइल रहे तब हम गांव में रहनीं। शहर में फिलिम देखे जाए क परमिशन हमहन के कब्बो ना मिले। सच कहीं त डीडीएलजे हमरे सहर में कब लगल रहे , हमके पते ना ह। काहें से कि तब हम छोट रहनीं। शुक्र हो , फिलिम रिपोर्टर के नौकरी के , जेकरे वजह से हमके इ फिलिम अब हॉल में देखले के सौभाग्य मिलल , और शुक्र हो मराठा मंदिर हॉल के करता-धरता लोगन के , जे चौदह साल बाद भी अपने इहां इ फिलिम के चलावत हवें। पन्द्रह अक्टूबर दो हजार नौ के दिने ऑफिस से डीडीएलजे पर इस्पेसल इस्टोरी करे क जिम्मा दिहल गइल। हम और हमार सहकर्मी मिलके इ फैसला कइनी जा कि पहिले हॉल में चलके फिलिम देखल जाइ ओकरे बाद इस्टोरी लिखल जाइ। एही बहाने हॉल में डीडीएलजे देखले क हमार पेंडिंग ख्वाहिश भी पूरी हो जाई। मराठा मंदिर म

DDLJ ने लाखों सपने दिए,लेकिन...

-आकांक्षा गर्ग आकांक्षा बंगलुरू में रहती और एक फायनेशियल कंपनी चलाती हैं।छठी कक्षा से कहानी-कविता लिखने का शौक जागा,जो जिंदगी की आपाधापी में मद्धम गति से चत रहा है।समय मिलते ही कुछ लिखती हैं। अभी निवेश के गुर सिखाती हैं और मदद भी करती हैं।आप उनसे iifpl@yahoo.com पर संपर्क कर सकते हैं। १९९५ में जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तब कॉलेज में आये- आये थे । फिल्मो से कुछ एलर्जी सी थी।लगता था टाइम वेस्ट मनी वेस्ट। मेरे फ्रेंड्स ने मेरा नाम रखा हुआ था किताबी कीडा, क्यूंकि लाइब्रेरी में सबसे ज्यादा टाइम गुजारना मेरा पसंदीदा शगल था । कॉलेज की सभी फ्रेंड जैसे इस मूवी के पीछे पागल हो गयी थी . उनका हॉट टोपिक हुआ करता था इस मूवी का डिस्कशन करना । कई बार उन्होंने कहा जाने के लिए लेकिन उन सब के रोज़-रोज़ के डिस्कशन ने इतना ज्यादा बोरियत कर दी तो कभी मूड ही नहीं हुआ । फ्रेंड्स ने नए- नए नाम रखने शुरू कर दिए। किसी ने कहा I am unromantic। किसी किसी ने तो ये भी कहा that I love the four letter word, HATE and I hate the four letter word,LOVE from the deep of my heart । अब मैं क्या करती, सबका अपना -अपना नजरिया

DDLJ:अच्छा है कि 'राज' हमारी यादों में जिंदा एक फिल्म किरदार है

-रश्मि रवीजा डीडीएलजे से जुड़ी मेरी यादें कुछ अलग सी हैं. इनमे वह किशोरावस्था वाला अनुभव नहीं है,क्यूंकि मैं वह दहलीज़ पार कर गृहस्थ जीवन में कदम रख चुकी थी.शादी के बाद फिल्में देखना बंद सा हो गया था क्यूंकि पति को बिलकुल शौक नहीं था और दिल्ली में उन दिनों थियेटर जाने का रिवाज़ भी नहीं था.पर अब हम बॉम्बे(हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) में थे और यहाँ लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे.एक दिन पति ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'फिल्म देखने चलना है?'(शायद उन्होंने भी ऑफिस में डीडीएलजे की गाथा सुन रखी थी.) मैं तो झट से तैयार हो गयी.पति ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था.जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए.चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था.यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था.मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख पति को भी लौटना पड़ा.पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए. फिल्म शुरू हुई तो काजोल की क