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पक्का इडियट का इकबालिया बयान

साताक्रूज में स्थित विधु विनोद चोपड़ा के दफ्तर की पहली मंजिल का विशाल कमरा...दरवाजे के करीब तीन कुर्सियों के साथ लगी है छोटी-सी टेबल और उसके ठीक सामने रखा है आधुनिक शैली का सोफा। लाल टीशर्ट,जींस और स्लीपर पहने आमिर कमरे में प्रवेश करते हैं। उनके हाथों में मोटी-सी किताब है। [दिल से चुनता हूं फिल्में] फिल्म साइन करते समय यह नहीं सोचता हूं कि मुझे यूथ से कनेक्ट करना है या कोई मैसेज देना है। फिल्म की कहानी सुनते समय मैं सिर्फ एक आडियंस होता हूं। देखता हूं कि कहानी सुनते समय मुझे कितना मजा आया? मजा अलग-अलग रीजन से आ सकता है। या तो बहुत एंटरटेनिंग कहानी हो या इमोशनल कहानी हो या फिल्म कोई ऐसी चीज कह रही हो, जो सोचने पर मजबूर कर रही हो। मतलब यह है कि कहानी सुनते समय मेरा पूरा ध्यान उसी में घुसा रहे। केवल उसी के लिए हा करता हूं जिसकी कहानी मेरे दिल को छू लेती है। ['सरफरोश' के बाद का सफर] पिछले दस सालों के अपने करिअर का रिव्यू करने पर मैं पाता हूं कि मेरी सारी फिल्में एक्सपेरिमेंटल किस्म की हैं। मेनस्ट्रीम से अलग हैं। अगर सोच-समझ कर फैसला लेता तो मैं ये फिल्में कर ही नहीं पाता। मैं अपने

फिल्‍म समीक्षा : पा

-अजय ब्रह्मात्‍मज आर बाल्की ने निश्चित ही निजी मुलाकातों में अमिताभ बच्चन के अंदर मौजूद बच्चे को महसूस करने के बाद ही पा की कल्पना की होगी। यह एक बुजुर्ग अभिनेता के अंदर जिंदा बच्चे की बानगी है। अमिताभ बच्चन की सुपरिचित छवि को उन्होंने मेकअप से हटा दिया है। फिल्म देखते समय हम वृद्ध शरीर के बच्चे को देखते हैं, जो हर तरह से तेरह साल की उम्र का है। पा हिंदी फिल्मों में इन दिनों चल रहे प्रयोग में सफल कोशिश है। एकदम नयी कहानी है और उसे सभी कलाकारों ने पूरी संजीदगी से पर्दे पर उतारा है। फिल्म थोड़ी देर के लिए ऑरो की मां की जिंदगी में लौटती है और उतने ही समय के लिए पिता की जिंदगी में भी झांकती है। फिल्म की स्क्रिप्ट केलिए आवश्यक इन प्रसंगों के अलावा कहानी पूरी तरह से ऑरो पर केंद्रित रहती है। ऑरो प्रोजेरिया बीमारी से ग्रस्त बालक है, लेकिन फिल्म में उसके प्रति करुणा या दुख का भाव नहीं रखा गया है। ऑरो अपनी उम्र के किसी सामान्य बच्चे की तरह है। मां, नानी, दोस्त और स्कूल केइर्द-गिर्द सिमटी उसकी जिंदगी में खुशी, खेल और मासूमियत है। स्कूल में आयोजित एक प्रतियोगिता का पुरस्कार लेने क

फिल्‍म समीक्षा : रेडियो

-अजय ब्रह्मात्‍मज हिमेश रेशमिया की भिन्नता के कारण उनकी फिल्मों को लेकर उत्सुकता रहती है। रेडियो में वे नए रूप और अंदाज में हैं। उनकी एक्टिंग में सुधार आया है। उन्होंने अपनी एक्टिंग रेंज के हिसाब से कहानी चुनी है या यों कहें कि निर्देशक ईशान त्रिवेदी ने उनकी खूबियों और सीमाओं का खयाल रखते हुए स्क्रिप्ट लिखी है। अगर हिमेश रेशमिया से बड़ी उम्मीद न रखें तो फिल्म निराश नहीं करती। विवान और पूजा का दांपत्य जीवन सामान्य नहीं चल रहा है। उन्हें लगता है कि वे दोस्त ही अच्छे थे। परस्पर सहमति से वे तलाक ले लेते हैं, लेकिन एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। इस बीच विवान की मुलाकात शनाया से होती है। शनाया धीरे-धीरे विवान की प्रोफेशनल और पर्सनल जिंदगी में आ जाती है। दोनों मिल कर रेडियो पर मिस्ट्री गर्ल नामक शो आरंभ करते हैं, जिसमें शनाया विवान की रहस्यपूर्ण प्रेमिका बनती है। विवान को पता भी नहीं चलता और वह वास्तव में शनाया से प्रेम करने लगता है। विवान की जिंदगी में आ चुकी शनाया को उसकी तलाकशुदा बीवी पहचान लेती है। आखिरकार विवान अपने प्रेम को स्वीकार करने के साथ उसका इजहार भी करता

डायरेक्टर की हीरोइन हूं मैं : करीना

पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के समय करीना कपूर अमेरिका के फिलाडेल्फिया में कुर्बान की शूटिंग कर रही थीं। आतंकवाद के बैकग्राउंड पर बनी यह फिल्म पिछले दिनों रिलीज हुई। इसमें उन्होंने अवंतिका की भूमिका निभाई है। करीना मानती हैं, टेररिज्म अभी दुनिया की बड़ी समस्या है और इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। करीना आगे कहती हैं, यह सोच बिल्कुल गलत है कि हर मुसलमान टेररिस्ट है। हम सभी इंसान हैं। हम सभी शांति चाहते हैं। हमारी सरकार हर तरह की सावधानी बरत रही है, लेकिन हमें भी चौकस रहने की जरूरत है। कुर्बान में निभाई अपनी भूमिका को करीना इंटेंस मानती हैं और उसे जब वी मेट, ओमकारा, देव और चमेली की श्रेणी की फिल्म कहती हैं। वे बताती हैं, अगर फिल्म में हीरोइन का रोल अच्छा हो। उसके कैरेक्टर पर काम किया गया हो, तो काम करने में मजा आता है। सिर्फ तीन गाने, तीन सीन हों, तो आप क्या परफॉर्म करेंगे? मेरी ऐसी ही कुछ फिल्मों से प्रशंसक निराश हुए हैं। दर्शकों की प्रतिक्रियाओं से मुझे एहसास हो रहा है कि जब किसी फिल्म से मेरा नाम जुड़ जाता है, तो लोग उसमें कुछ ज्यादा देखना चाहते हैं। एक उम्मीद के स

दरअसल : हिंदी फिल्‍मों में आतंकवाद

-अजय ब्रह्मात्‍मज 26/11 से छह दिन पहले रिलीज हुई कुर्बान के लिए इससे बेहतर वक्त नहीं हो सकता था। सभी पत्र-पत्रिकाओं और समाचार चैनलों पर 26/11 के संदर्भ में आतंकवाद पर कवरेज चल रहा है। पाठक और दर्शक उद्वेलित नहीं हैं, लेकिन वे ऐसी खबरों को थोड़े ध्यान और रुचि से देखते हैं। कुर्बान के प्रचार में निर्देशक रेंसिल डिसिल्वा ने स्पष्ट तौर पर आतंकवाद का जिक्र किया और अपनी फिल्म को सिर्फ प्रेम कहानी तक सीमित नहीं रखा। कुर्बान आतंकवाद पर अभी तक आई फिल्मों से एक कदम आगे बढ़ती है। वह बताती है कि मुसलिम आतंकवाद को आरंभ में अमेरिका ने बढ़ाया और अब अपने लाभ के लिए आतंकवाद समाप्त करने की आड़ में मुसलिम देशों में प्रवेश कर रहा है। मुसलमान अपने साथ हुई ज्यादतियों का बदला लेने के लिए आतंकवाद की राह चुन रहे हैं। हिंदी फिल्मों के लेखक-निर्देशक मनोरंजन के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक फिल्मों में उनकी विचारशून्यता जाहिर हो जाती है। लेखक-निर्देशकों में एक भ्रम है कि उनका अपना कोई पक्ष नहीं होना चाहिए। उन्हें अपनी राय नहीं रखनी चाहिए, जबकि बेहतर लेखन और निर्देशन की प्राथमिक शर्त

फिल्‍म समीक्षा : दे दना दन

-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियदर्शन अपनी फिल्मों का निर्देशन नहीं करते। वे फिल्मांकन करते हैं। ऐसा लगता है कि वे अपने एक्टरों को स्क्रिप्ट समझाने के बाद छोड़ देते हैं। कैमरा ऑन होने के बाद एक्टर अपने हिसाब से दिए गए किरदारों को निभाने की कोशिश करते हैं। उनकी फिल्मों के अंत में जो कंफ्यूजन रहता है, उसमें सीन की बागडोर एक्टरों के हाथों में ही रहती है। अन्यथा दे दना दन के क्लाइमेक्स सीन को कैसे निर्देशित किया जा सकता है? दे दना दन प्रियदर्शन की अन्य कामेडी फिल्मों के ही समान है। शिल्प, प्रस्तुति और निर्वाह में भिन्नता नहीं के बराबर है। हां, इस बार किरदारों की संख्या बढ़ गई है। फिल्म के हीरो अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी हैं। उनकी हीरोइनें कट्रीना कैफ और समीरा रेड्डी है। इन चारों के अलावा लगभग दो दर्जन कैरेक्टर आर्टिस्ट हैं। यह एक तरह से कैरेक्टर आर्टिस्टों की फिल्म है। वे कंफ्यूजन बढ़ाते हैं और उस कंफ्यूजन में खुद उलझते जाते हैं। फिल्म नितिन बंकर और राम मिश्रा की गरीबी, फटेहाली और गधा मजदूरी से शुरू होती है। दोनों अमीर होने की बचकानी कोशिश में एक होटल में ठहरते हैं, जहां पहले से ही कुछ ल

एहसास : विवाह को नया रूप देंगे युवा-महेश भट्ट

तुमने विवाह जैसी पवित्र संस्था को नष्ट कर दिया है। क्या तुम अवैध संबंध को उचित बता कर उसे अपनी पीढी की जीवनशैली बनाना चाहते हो? तुम्हारी फिल्म विकृत है। क्या तुम यह कहना चाहते हो कि दो पुरुष और एक स्त्री किसी कारण से साथ हो जाते हैं तो दोनों पुरुष स्त्री के साथ शारीरिक संबंध रख सकते हैं? एक वरिष्ठ सदस्य ने मुझे डांटा। वे फिल्म इंडस्ट्री की सेल्फ सेंसरशिप कमेटी के अध्यक्ष थे। यह कमेटी उन फिल्मों को देख रही थी, जिन्हें सेंसर बोर्ड ने विकृत माना या सार्वजनिक प्रदर्शन के लायक नहीं समझा था। विवाह की पवित्र धारणा मैंने पर्दे पर वही दिखाया है, जो मैंने जिंदगी में देखा-सुना है। ईमानदारी से कह रहा हूं कि मैं कभी ऐसी स्थिति में फंस गया तो मुझे ऐसे संबंध से गुरेज नहीं होगा, मैंने अपना पक्ष रखा। कौन कहता है कि सत्य की जीत होती है? मेरी स्पष्टवादिता का उल्टा असर हुआ। मेरी फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया। यह 35 साल पहले 1978 की बात है। मेरी उम्र 22 साल थी और मैंने पहली फीचर फिल्म मंजिलें और भी हैं पूरी की थी। मुझे समझने में थोडा वक्त लगा कि विवाह हिंदी फिल्मों का अधिकेंद्र है, क्योंकि वह भारतीय जीवन

हिंदी टाकीज द्वितीय : फिल्मों ने ही मुझे बिगाड़ा-बनाया-कुमार विजय

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हिंदी टाकीज द्वितीय-2 बनारस के हैं कुमार विजय। उन्‍होंने लगभग तीन दशक पूर्व नाटकों और फिल्मों पर समीक्षाएं लिखने के साथ स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की। बाद में नियमित पत्रकारिता से जुड़ाव हुआ। धर्मयुग , दिनमान आदि पत्रिकाओं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन करते रहे। एक अरसे तक दैनिक आज और हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग से संबद्धता भी रही। हिन्दुस्तान के वाराणसी संस्करण में फीचर संपादन किया। केबल चैनलों की शुरुआत के दौर में तीन वर्षों तक जीटीवी के सिटी चैनल की वाराणसी इकाई के लिए प्रोडक्शन इंचार्ज के रूप में कार्यक्रमों का निर्माण भी किया। संप्रति एक दैनिक पत्र के संपादकीय विभाग से संबद्ध हैं। साहित्य के पठन-पाठन में उनकी गहरी रुचि है। जीवन के पचास वसंत पूरे करने के बाद अचानक अपने फिल्मी चस्के के बारे में याद करना वाकई एक मुश्किल और तकलीफ देह काम है। अव्वल तो लम्बे समय का गैप है , दूसरे लम्बे समय से फिल्मों से अनकन्सर्ड हो जाने वाली स्थित रही है। इस सफर में सिनेमा ने काफी परिवर्तन भी देखा है। न सिर्फ फिल्में महंगी हुई हैं फिल्में देखना भी महंगा हुआ है। मल्टीप्लेक्स का जमाना है।

फ़िल्म समीक्षा : कु़र्बान

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धुंधले विचार और जोशीले प्रेम की कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज रेंसिल डिसिल्वा की कुर्बान मुंबइया फिल्मों के बने-बनाए ढांचे में रहते हुए आतंकवाद के मुद्दे को छूती हुई निकलती है। गहराई में नहीं उतरती। यही वजह है कि रेंसिल आतंकवाद के निर्णायक दृश्यों और प्रसंगों में ठहरते नहीं हैं। बार-बार कुर्बान की प्रेमकहानी का ख्याल करते हुए हमारी फिल्मों के स्वीकृत फार्मूले की चपेट में आ जाते हैं। आरंभ के दस-पंद्रह मिनटों के बाद ही कहानी स्पष्ट हो जाती है। रेंसिल किरदारों को स्थापित करने में ज्यादा वक्त नहीं लेते। अवंतिका और एहसान के मिलते ही जामा मस्जिद के ऊपर उड़ते कबूतर और शुक्रन अल्लाह के स्वर से जाहिर हो जाता है कि हम मुस्लिम परिवेश में प्रवेश कर रहे हैं। हिंदी फिल्मों ने मुस्लिम परिवेश को प्रतीकों, स्टारों और चिह्नों में विभाजित कर रखा है। इन दिनों मुसलमान किरदार दिखते ही लगने लगता है कि उनके बहाने आतंकवाद पर बात होगी। क्या मुस्लिम किरदारों को नौकरी की चिंता नहीं रहती? क्या वे रोमांटिक नहीं होते? क्या वे पड़ोसियों से परेशान नहीं रहते? क्या वे आम सामाजिक प्राणी नहीं होते? कथित रूप से सेक्युलर हिंदी फि