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फिल्म समीक्षा :फूँक 2

-अजय ब्रह्मात्मज दावा था कि फूंक से ज्यादा खौफनाक होगी फूंक-2, लेकिन इस फिल्म के खौफनाक दृश्यों में हंसी आती रही। खासकर हर डरावने दृश्य की तैयारी में साउंड इफेक्ट के चरम पर पहुंचने के बाद सिहरन के बजाए गुदगुदी लगती है। कह सकते हैं कि राम गोपाल वर्मा से दोहरी चूक हो गई है। पहली चूक तो सिक्वल लाने की है और दूसरी चूक खौफ पैदा न कर पाने की है। इस फिल्म के बारे में रामू कहते रहे हैं कि मिलिंद का आइडिया उन्हें इतना जोरदार लगा कि उन्होंने निर्देशन की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंप दी। अफसोस की बात है कि मिलिंद अपने आइडिया को पर्दे पर नहीं उतार पाए। रामू ने भी गौर नहीं किया कि फूंक-2 हॉरर फिल्म है या हॉरर के नाम पर कामेडी। किसी ने सही कहा कि जैसी कामेडी फिल्म में लाफ्टर ट्रैक चलता है, पाश्‌र्र्व से हंसी सुनाई पड़ती रहती है और हम भी हंसने लगते हैं। वैसे ही अब हॉरर फिल्मों में हॉरर ट्रैक चलना चाहिए। साथ में चीख-चित्कार हो तो शायद डर भी लगने लगे। फूंक-2 में खौफ नहीं है। आत्मा और मनुष्य केबीच का कोई संघर्ष नहीं है, इसलिए रोमांच नहीं होता। फिल्म में कुछ हत्याएं होती हैं, लेकिन उन हत्याओं से भी डर

फिल्‍म समीक्षा : पाठशाला

हिंदी फिल्मों में शिक्षा, स्कूल, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति मुद्दा बने हुए हैं। 3 इडियट में राजकुमार हिरानी ने छात्रों पर पढ़ाई के बढ़ते दबाव को रोचक तरीके से उठाया था। अहमद खान ने पाठशाला में शिक्षा के व्यवसायीकरण का विषय चुना है। नेक इरादे के बावजूद पटकथा, अभिनय और निर्देशन की कमजोरियों की वजह से पाठशाला बेहद कमजोर फिल्म साबित होती है। बढ़ती फीस, छात्रों को रियलिटी शो में भेजने की कोशिश, छात्रों के उपयोग की चीजों की ऊंची कीमत और मैनेजमेंट के सामने विवश प्रिंसिपल ़ ़ ़ अहमद खान ने शिक्षा के व्यवसायीकरण के परिचित और सतही पहलुओं को ही घटनाओं और दृश्यों के तौर पर पेश किया है। इस दबाव के बीच अंग्रेजी शिक्षक उदयावर और स्पोर्ट्स टीचर चौहान की पहलकदमी पर सारे टीचर एकजुट होते हैं ओर वे छात्रों को असहयोग के लिए तैयार कर लेते हैं। छोटा-मोटा ड्रामा होता है। मीडिया में खबर बनती है और मुद्दा सुलझ जाता है। विषय की सतही समझ और कमजोर पटकथा फिल्म के महत्वपूर्ण विषय को भी लचर बना देती है। सारे कलाकारों ने बेमन से काम किया है। सभी कलाकारों के निकृष्ट परफार्मेस के लिए पाठशाला याद रखी जा सकती है। नाना

दरअसल : हिंदी फिल्मों में बढ़ते इंग्लिश संवाद

-अजय बह्मात्‍मज   हमारे समाज में इंग्लिश का चलन बढ़ा है और बढ़ता ही जा रहा है। हम अपनी रोजमर्रा की बातचीत में बेहिचक इंग्लिश व‌र्ड्स का इस्तेमाल करते हैं। अभी तो यह स्थिति हो गई है कि ठीक से हिंदी बोलो, तो लोगों को समझने में दिक्कत होने लगती है। इसी वजह से अखबार और चैनलों की भाषा बदल रही है। हिंदी वाले (लेखक और पत्रकार) लिखते समय भले ही हिंदी शब्दों का उपयोग करते हों, लेकिन उनकी बातचीत में अंग्रेजी के शब्द घुस चुके हैं। बोलते समय खुद को अच्छी तरह संप्रेषित करने के लिए हम अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेते हैं। हालांकि देखा गया है कि दोबारा बोलने या सही संदर्भ और कंसर्न के साथ बोलने पर ठेठ हिंदी भी समझ में आती है, लेकिन हम सभी जल्दबाजी में हैं। कौन रिस्क ले और हमने मान लिया है कि कुछ जगहों पर अंग्रेजी ही बोलना चाहिए। फाइव स्टार होटल, एयरपोर्ट, ट्रेन में फ‌र्स्ट एसी, किसी भी प्रकार की इंक्वायरी आदि प्रसंगों में हम अचानक खुद को अंग्रेजी बोलते पाते हैं, जबकि हम चाहें तो हिंदी बोल सकते हैं और अपना काम करवा सकते हैं। कहीं न कहीं हिंदी के प्रति एक हीनभावना हम सभी के अंदर मजबूत होती जा रही है। समाज

हिंदी टाकीज द्वितीय:सिनेमा के कई रंग-ओम थानवी

यह संस्मरण चवन्नी ने मोहल्ला लाइव से लिया है . ओम थानवी से अनुमति लेने के बाद इसे यहाँ प्रकाशित करते हुए अपार ख़ुशी हो रही है.ओम जी ने इसे चवन्नी के लिए नहीं लिखा, लेकिन यह हिंदी टाकीज सीरिज़ के लिए उपयुक्त है। भाषाई विविधता और वैचारिक असहमतियों का सम्‍मान करने वाले विलक्षण पत्रकार। पहले रंगकर्मी। राजस्‍थान पत्रिका से पत्रकारीय करियर की शुरुआत। वहां से प्रभाष जी उन्‍हें जनसत्ता, चंडीगढ़ संस्‍करण में स्‍थानीय संपादक बना कर ले गये। फिलहाल जनसत्ता समूह के कार्यकारी संपादक। उनसे om.thanvi@ expressindia.com पर संपर्क किया जा सकता है। हमारे कस्बे फलोदी में तब एक सिनेमा हॉल था। अब दो हैं। पर पहले जो था उसमें सिनेमा तो था, हॉल नहीं था। यानी चारदीवारी थी, छत नहीं थी। सर्दी हो या गरमी, नीले गगन के तले सिनेमा का अजब प्यार पलता था। और तो और, ‘हॉल’ में कुर्सियां भी नहीं थीं। मुक्ताकाशी था, इसलिए फिल्में दिन ढलने के बाद ही देखी-दिखायी जा सकती थीं। उस सिनेमाघर का नाम था – श्रीलटियाल टाकीज। लटियाल देवी का नाम है, इसलिए ‘श्री’ उपसर्ग। ऐसे ही बीकानेर में घर के पास जो सिनेमाघर था, उसका नाम था श्रीगंगा थ

दरअसल : सेंसर बोर्ड की सावधानियां

-अजय ब्रह्मात्‍मज     फिल्मों के विषय, संवाद और रेफरेंस के संबंध में पैदा हो रहे नित नए विवादों के मद्देनजर सेंसर बोर्ड कुछ ज्यादा ही सावधान हो गया है। जब भी किसी फिल्म के प्रसंग में कोई आपत्ति उठती है, तो सेंसर बोर्ड को भी अनायास कठघरे में खड़ा किया जाता है। सवाल पूछे जाते हैं कि सेंसर बोर्ड के सदस्यों ने क्यों ध्यान नहीं दिया? बार-बार की जवाबदेही से बचने के लिए सेंसर बोर्ड के सदस्य एहतियातन विवादास्पद दृश्य और संवादों को पहले ही कटवा देते हैं। थोड़ी भी शंका होने पर वे निर्माता पर दबाव डालते हैं। इन दिनों फिल्में जिस जल्दबाजी और हड़बड़ी में रिलीज की जा रही हैं, उसमें समय की कमी और दांव पर लगे पैसे को ध्यान में रखते हुए निर्माता आनाकानी नहीं करता। निर्देशक ने ना-नुकुर की, तो उस पर दबाव डाला जाता है। सेंसर के सुझाव के मुताबिक दृश्य काट कर, संवाद बदल कर या शब्दों को ब्लिप कर फिल्में रिलीज हो रही हैं। पिछले दिनों विशाल भारद्वाज, दिबाकर बनर्जी, संजय गुप्ता जैसे निर्माता-निर्देशक सेंसर बोर्ड की इन सावधानियों के शिकार हुए। विशाल भारद्वाज के कमीने में उत्तर प्रदेश के एक शहर का नाम बदल कर कु

पैशन से बनती हैं फिल्में: सूरज बड़जात्या

-अजय ब्रह्मात्‍मज  पिछली सदी का आखिरी दशक एक्शन के फार्मूले में बंधी एक जैसी फिल्मों में प्रेम की गुंजाइश कम होती जा रही थी। दर्शक ऊब रहे थे, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री को होश नहीं था कि नए विषयों पर फिल्में बनाई जाएं। फिल्म इंडस्ट्री का एक नौजवान भी कुछ बेचैनी महसूस कर रहा था। प्रेम की कोमल भावनाओं को पर्दे पर चित्रित करना चाहता था। सभी उसे डरा रहे थे कि यह प्रेम कहानियों का नहीं, एक्शन फिल्मों का दौर है। प्रेम कहानी देखने दर्शक नहीं आएंगे, लेकिन उस नौजवान को अपनी सोच पर भरोसा था। उसका नाम है सूरज बडजात्या और उनकी पहली फिल्म है, मैंने प्यार किया। कुछ वर्ष बाद आई उनकी फिल्म हम आपके हैं कौन को एक मशहूर समीक्षक ने मैरिज विडियो कहा था, लेकिन दर्शकों ने उसे भी खुले दिल से स्वीकार किया। सौम्य, सुशील और संस्कारी सूरज बडजात्या को कभी किसी ने ऊंचा बोलते नहीं सुना। सूरज ने अभी तक बाजार के दबाव को स्वीकार नहीं किया है। प्रस्तुत है फिल्मों में उनके सफर विभिन्न आयामों पर एक समग्र बातचीत। कौन सी शुरुआती फिल्में आपको याद हैं? पांच-छह साल की उम्र से ट्रायल में जाता था। फिल्म सूरज और चंदा याद है। दक्षि

फिल्‍म समीक्षा : प्रिंस

एक्शन से भरपूर  -अजय ब्रह्मात्‍मज   हिंदी फिल्मों में प्रिंस की कहानी कई बार देखी जा चुकी है। एक तेज दिमाग लुटेरा, लुटेरे का प्रेम, प्रेम के बाद जिंदगी भी खूबसूरती का एहसास, फिर अपने आका से बगावत, साथ ही देशभक्ति की भावना और इन सभी के बीच लूट हथियाने के लिए मची भागदौड़ (चेज).. प्रिंस इसी पुराने फार्मूले को अपनाती है, लेकिन इसकी प्रस्तुति आज की है, इसलिए आज की बातें हैं। मेमोरी, चिप, कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर आदि शब्दों का उपयोग संवादों और दृश्यों में ता है। यह फिल्म एक्शन प्रधान है। शुरू से आखिर तक निर्देशक कुकू गुलाटी ने एक्शन का रोमांच बनाए रखा है। फिल्म की कहानी कुछ खास नहीं है। एक नया मोड़ यही है कि प्रिंस की याददाश्त किसी ने चुरा ली है। छह दिनों में उसकी याददाश्त नहीं लौटी तो रोजाना अपने दिमाग में लगे चिप के क्रैश होने से वह सातवें दिन जिंदा नहीं रह सकता। समस्या यह है कि याददाश्त खोने के साथ वह अपनी आखिरी लूट के बारे में भी भूल गया है। उस लूट की तलाश देश की सरकार, विदेशों से कारोबार कर रहे अंडरव‌र्ल्ड सरगना और स्वयं प्रिंस को भी है। इसी तलाश में जमीन, आसमान, नदी, पहाड़ और इमारतें नापी ज

फिल्‍म समीक्षा : तुम मिलो तो सही

-अजय ब्रह्मात्‍मज  इस फिल्म को देखने की एक बड़ी वजह नाना पाटेकर और डिंपल कपाडि़या हो सकते हैं। दोनों के खूबसूरत और भावपूर्ण अभिनय ने इस फिल्म की बाकी कमियों को ढक दिया है। उनके अव्यक्त प्रेम और साहचर्य के दृश्यों उम्रदराज व्यक्तियों की भावनात्मक जरूरत जाहिर होती है। तुम मिलो तो सही ऊपरी तौर पर तीन प्रेमी युगलों की प्रेम कहानी लग सकती है, लेकिन सतह के नीचे दूसरी कुलबुलाहटें हैं। कबीर सदानंद अपनी पहली कोशिश में सफल रहते हैं। नाना पाटेकर और डिंपल कपाडि़या दो विपरीत स्वभाव के व्यक्ति हैं। दोनों अकेले हैं। नाना थोड़े अडि़यल और जिद्दी होने के साथ अंतर्मुखी और एकाकी तमिल पुरुष हैं, जबकि डिंपल मुंबई की बिंदास, बातूनी और सोशल स्वभाव की पारसी औरत हैं। संयोग से दोनों भिड़ते, मिलते और साथ होते हैं। इनके अलावा दो और जोडि़यां हैं। सुनील शेट्टी और विद्या मालवड़े के दांपत्य में पैसों और जिंदगी की छोटी प्राथमिकताओं को लेकर तनाव है, जो बड़े शहरों के युवा दंपतियों के बीच आम होता जा रहा है। अंत में सुनील को अपनी गलतियों का एहसास होता है और दोनों की जिंदगी सुगम हो जाती है। रेहान और अंजना दो भिन्न पृष्ठभूमि

कामेडी का बुद्धिमान चेहरा बोमन ईरानी

-अजय ब्रह्मात्‍मज  हिंदी फिल्मों में कॉमेडी के इंटेलीजेंट और मैच्योर फेस के रूप में हम सभी बोमन ईरानी को जानते हैं। 44 साल की उम्र में फिल्मों में बोमन देर से आए, लेकिन इतने दुरुस्त आए कि अभी उनके बगैर सीरियस कामेडी की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने कामेडी जॉनर की ज्यादा फिल्में नहीं की हैं, लेकिन अपनी अदाओं और भंगिमाओं से वे किरदार को ऐसी तीक्ष्णता दे देते हैं कि वह खुद तो हास्यास्पद हो जाता है, लेकिन दर्शकों के दिल में हंसी की न मिटने वाली लकीर छोड़ा जाता है। पिछले हफ्ते उनकी फिल्म वेल डन अब्बा आई। इस फिल्म में उन्होंने प्यारे अब्बा के रूप में हंसाने के साथ देश की सोशल और पॉलिटिकल सिचुएशन पर तंज भी किया। यह श्याम बेनेगल की खासियत है, लेकिन उसे पर्दे पर बोमन ईरानी ने बड़ी सहजता के साथ उतारा। हिंदी फिल्मों में अपनी मजबूत मौजूदगी से वाकिफ बोमन के लिए कॉमेडी केले के छिलके से फिसलना नहीं है। बोमन कहते हैं, इस पर कोई बचा हंस सकता है, क्योंकि वह चलते-फिरते व्यक्ति को गिरते देख कर चौंकता है और उस गिरने के पीछे का लॉजिक नहीं समझ पाने के कारण हंसता है। मेरी कामेडी केले के छिलके से फिसलने के

मन का काला सिनेमा - वरुण ग्रोवर

चवन्‍नी को वरुण का यह लेख मोहल्‍ला लाइव पर मिला। उनकी अनुमति से उसे यहां पोस्‍ट किया जा रहा है। लव मैं तब करीब सोलह साल का था। (सोलह साल, हमें बताया गया है कि अच्छी उम्र नहीं होती। किसने बताया है, यह भी एक बहुत बड़ा मुद्दा है। लेकिन शायद मैं खुद से आगे निकल रहा हूं।) क्लास के दूसरे सेक्शन में एक लड़की थी जिसे मेरा एक जिगरी दोस्त बहुत प्यार करता था। वाजिब सवाल – ‘प्यार करता था’ मतलब? वाजिब जवाब – जब मौका मिले निहारता था, जब मौका मिले किसी बहाने से बात कर लेता था। हम सब उसे महान मानते थे। प्यार में होना महानता की निशानी थी। ये बात और थी कि वो लड़की किसी और लड़के से प्यार करती थी। यहां भी ‘प्यार करती थी’ वाला प्रयोग कहावती है। फाइन प्रिंट में जाएं तो – दूसरा लड़का भी उसको बेमौका निहारता था, और (सुना है) उसके निहारने पर वो मुस्कुराती थी। दूसरा लड़का थोड़ा तगड़ा – सीरियस इमेज वाला था। जैसा कि हमने देखा है – एक दिन सामने वाले खेमे को मेरे दोस्त के इरादे पता चल गये और बात मार-पीट तक पहुंच गयी। मैंने भी बीच-बचाव कराया। सामने वाले लड़के से दबी हुई आवाज़ में कहा कि असल में तुम्हारी पसंद (माने लड