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हिंदी सिनेमा का मुंबई तक सीमित रहना उसके भविष्‍य के लिए सही नहीं-डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

(फिल्‍मकार डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत) - हिंदी सिनेमा की वर्तमान स्थिति को आप किस रूप में देखते हैं ? 0 हिंदी सिनेमा पर गंभीरता से विचार करें तो लंबे समय तक श्याम बेनेगल और गोविंत निहलानी सक्रिय रहे। उनके साथ के फिल्मकारों ने फिल्मों की समानंतर भाषा गढऩे और खोजने की कोशिश की। उनमें से प्रकाश झा को मैं एक ऐसे फिल्मकार के तौर पर देख रहा हूं , जिन्होंने समानांतर और व्यावसायिक सिनेमा में संयोग और मेल कराने की अच्छी कोशिश की है। गौर करें तो फिलहाल हिंदी सिनेमा में सार्थक सिनेमा के लिए कम जगह रही है। उसके अपने व्यवसायिक कारण हैं। सच्चाई है कि हिंदी सिनेमा ने घोषणा कर दी है कि उसका साहित्य का सार्थकता से कोई संबंध नहीं है। सिनेमा का लक्ष्य और उद्देश्य मनोरंजन करने तक सीमित कर दिया गया है। उसमें लतीफेबाजी और चुटकुलेबाजी आ गई है। फिर सार्थकता कहां से आएगी। अफसोस की बात है कि दर्शकों ने स्वीकार कर लिया है और फिल्मकारों पर मुनाफे का दबाव है। पहले माना जाता था कि सिनेमा कला और व्यवसाय का योग है। अब सिनेमा के कला कहने पर प्रश्न चिह्न लग गया है। अगर यह कला है तो क

समाज का अक्स है सिनेमा - मंजीत ठाकुर

हिंदी सिनेमा पर मंजीत ठाकुर ने यह सिरीज आरंभ की है। भाग-1 सिनेमा , जिसके भविष्य के बारे में इसके आविष्कारक लुमियर बंधु भी बहुत आश्वस्त नहीं थे , आज भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। 7 जुलाई 1896, जब भारत में पहली बार किसी फिल्म का प्रदर्शन हुआ था , तबसे आज तक सिनेमा की गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा। सिनेमा ने समाज के सच को एक दस्तावेज़ की तरह संजो रखा है। चाहे वह 1930 में आर एस डी चौधरी की बनाई व्रत हो , जिसमें मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म को बैन भी कर दिया था , चाहे 1937 में वी शांताराम की दुनिया न माने । बेमेल विवाह पर बनी इस फिल्म को सामाजिक समस्या पर बनी कालजयी फिल्मों में शुमार किया जा सकता है। जिस दौर में पाकिस्तान अलग करने की मांग और सांप्रदायिक वैमनस्य जड़े जमा चुका था , 1941 में फिल्म बनी पड़ोसी , जो सांप्रदायिके सौहार्द्र पर आधारित थी। फिल्म शकुंतला के भरत को नए भारत के मेटाफर के रुप में इस

बी आर चोपड़ा का सफ़र -भाग तीन...प्रकाश रे

प्रकाश रे बी आर चोपड़ा पर एक सिरीज लिख रहे हैं... भाग-3 अफ़साना की शूटिंग के शुरुआती कुछ दिनों में ही अशोक कुमार को बी आर चोपड़ा के अनुभवहीन होने का भान हो गया था और उन्होंने चोपड़ा से कुछ बुनियादी पहलुओं पर चर्चा भी की थी. चोपड़ा अशोक कुमार जैसे वरिष्ठ कलाकार के ऐसे सहयोगपूर्ण रवैये से अचंभित थे जबकि कुछ ही समय पहले उन्होंने फ़िल्म की कहानी तक सुनने से इंकार कर दिया था. उन्होंने चोपड़ा को सलाह दी कि वह उनकी अन्य फ़िल्म संग्राम की शूटिंग को देखें. संग्राम उन्हीं दिनों ज्ञान मुख़र्जी के निर्देशन में बन रही थी जिसमें अशोक कुमार की केंद्रीय भूमिका थी. चोपड़ा ने उनकी सलाह मानी और उनसे भी सीखने से गुरेज़ नहीं किया. अशोक कुमार भी उनके शीघ्र सीखने-समझने की क्षमता से प्रभावित थे और कई सालों बाद भी उन दिनों को याद किया करते थे. उल्लेखनीय है कि अफ़साना के बाद चोपड़ा की अधिकांश फ़िल्मों में अशोक कुमार ने काम किया. लेकिन चोपडा़ को अपने ऊपर भी भरोसा कम न था. इसका अंदाजा अफ़साना की शूटिंग के दौरान हुई एक घटना से लगाया जा सकता है. उस दिन चोपड़ा ने सेट पर कुछ वितरकों और पत्रकारों को आमंत्रित किया