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New Voices Fellowship for Screenwriters

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Voices Fellowship for Screenwriters Program offers support for Indian film writers Email Print Share enlarge image The New Voices Fellowship for Screenwriters will award fellowships to six Indian screenwriters. (Jeezny/ Flickr ) Download the application form Download Frequently Asked Questions HOW TO APPLY ADVISORY COUNCIL & MENTORS FELLOWS | SCHEDULE RULES, REGULATIONS & DISCLAIMER FAQs | CONTACT Asia Society India Centre announces the launch of the New Voices Fellowship for Screenwriters (NVFS), a program to identify and support a group of six talented independent screenwriters to develop their feature film scripts by working in a dynamic and innovative environment with guidance from eminent filmmakers and screenwriters. Our premise is that screenwriters are seeking to develop powerful, nuanced and well-crafted scripts while exploring new approaches to the art of writing for the cinema. We invite writers from across the country to submit an original story for consid

क्यूँ न "देसवा" को हिंदी फिल्मो की श्रेणी में समझा जाये ?

मुझे यह समीक्षा रविराज पटेल ने भेजी है। वे पटना में रहते हैं और सिनेमा के फ्रंट पर सक्रिय हैं। -रविराज पटेल देसवा की पटकथा उस बिहार का दर्शन करवाती है ,जो पिछले दशक में बिहार का चेहरा कुरूप और अपराधिक छवि का परिचायक बन चूका था .शैक्षणिक ,आर्थिक ,सामाजिक एवं मानसिक रूप से विकलांग बिहार हमारी पहचान हो चुकी थी ,और ज़िम्मेदार जन प्रतिनिधिओं के रौब तले रहना हम जनता की मज़बूरी . मूल रूप से बिहार के बक्सर जिले के युवा निर्देशक नितिन चंद्रा बक्सर जिले में ही वर्ष २००३-२००४ के मध्य घटी वास्तविक घटनाओं को अपनी पहली फिल्म का आधार बनाया है ,जो संपूर्ण बिहार का धोतक प्रतिबिंबित होता है . चंपारण टॉकीज के बैनर तले निर्मित देसवा के सितारे हैं - क्रांति प्रकाश झा ,आशीष विद्यार्थी ,नीतू चंद्रा ,पंकज झा ,दीपक सिंह ,अजय कुमार ,आरती पूरी ,एन .एन पाण्डेय ,अभिषेक शर्मा ,नवनीत शर्मा एवं डोल्फिन दुबे जबकि सभी भोजपुरी फिल्मों के तरह देसवा में भी आईटम सोंग का तड़का देने से नही चूका गया है , जिसका मुख्य आकर्षण यह है की फिल्म निर्मात्री एवं बिहार बाला मशहूर अभिनेत्री नीतू चंद्रा स्वय यह न. पेश करती नज़र आती है

अब चलन दे गन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बतौर एक्शन हीरो अजय देवगन की आखिरी फिल्म कयामत थी। इस बीच अजय देवगन ने लगभग हर विधा की फिल्में कीं, लेकिन एक्शन से बचे रहे। रोहित शेंट्टी की वजह से उनकी कॉमेडी फिल्मों में भी एक्शन की झलक मिलती रही, लेकिन सिंघम अजय की फुल एक्शन फिल्म है। आप की पहचान एक्शन हीरो की रही है। फिर एक्शन फिल्म के चुनाव में इतना लंबा गैप क्यों हुआ? सही स्क्रिप्ट की तलाश में वक्त लगा। मैं नहीं चाहता था कि एक्शन के नाम पर कोई साधारण फिल्म कर लूं। 'सिंघम' पहले तमिल में बन चुकी है। हिंदी में इसे बनाते समय आप लोगों ने कुछ चेंज भी किया है क्या? हम लोगों ने फिल्म की थीम को नहीं छेड़ा है, लेकिन हिंदी दर्शकों का खयाल रखते हुए बहुत कुछ चेंज कर दिया है। साउथ और हिंदी के दर्शकों की पसंद अलग है। हमने हिंदी दर्शकों की फीलिंग और कल्चर के हिसाब से कहानी में कुछ एड किया है। कुछ कैरेक्टर बदल गए और कुछ नए जोड़े गए हैं। फिल्म में इंटरवल के बाद का हिस्सा और क्लाइमेक्स एकदम अलग है। उसे हिंदी दर्शकों के अनुसार कर दिया गया है। एक्शन हीरो की इमेज के बावजूद आप इमोशनल एक्टर माने जाते हैं। एक्शन परफार्मेस कितना

फीका रहा आईफा 2011

-अजय ब्रह्मात्‍मज शाहरुखखान से किसी ने पूछ दिया कि वे सात सालों तक आईफा में क्यों नहीं आए, तो वे बिफर गए और इसे मीडिया का दिमागी फितूर बता दिया कि हमारे न आने को वे लाबिंग से नाहक जोड़ते हैं। शाहरुख के इंकार करने के बावजूद सच्चाई तो यही है कि बच्चन परिवार का कोई सदस्य वहां मौजूद नहीं था। सलमान खान और करीना कपूर लंदन में फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। सैफ अली खान आाईफा रॉक्स प्रेजेंट करने वाले थे, लेकिन ऐन मौके पर नदारद हो गए। चगमगाते सितारों में केवल शाहरुख और प्रियंका चोपड़ा ही थे। बाकी तो मुंबई के टिमटिमाते तारे थे, जो सितारों की अनुपस्थिति में चमकने लगे थे। 12वां आईफा अवार्ड समारोह सितारों की मौजूदगी और प्रभाव के लिहाज से फीका रहा। अवार्ड समारोह के दिन प्रियंका के परफॉर्मेस ने ही नाक बचाई। शाहरुख घुटने की चाोट की वजह से मंच पर रंग नहीं जमा सके। उन्होंने जल्दी-जल्दी में जो स्पूफ पेश किया, वह बचकाना और बोरिंग था। रितेश देशमुख और बोमन ईरानी की जोड़ी की प्रस्तुति में जोश और विट कमजोर रहा। अब उन्हें बदलने की जरूरत है। हालांकि टोरंटों में उमड़े भारतवंशी पहुंचे स्टारों को ही देखकर आह्लादित थे

Understanding Mani Kaul and his films

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-devdutt trivedi Kaul gradually acquired a reputation of being cerebral and pretentious to the point of being termed a pseudo. Although there have been many instances of crowds staging group walk outs or dozing through screenings of his masterworks, a few instances claim to have incited mob violence addressed directly at the director while he was present at the screening. I t is with immense difficulty that one comes to terms with the fact that the great Indian film artist of our time, Mani Kaul is no more. Kaul was one of the few film makers functioning outside of the contours of the narrative parallel cinema and was perhaps the most significant amongst directors in India to produce a full-fledged aesthetic discourse around his practice. Born in Jodhpur on Christmas, 1944, Kaul studied filmmaking at the Film and Television Institute of India (FTII) under the tutelage of the illustrious Ritwik Kumar Ghatak. However after a screening of Pickpocket (1959), directed by the high priest of

मणि कौल का साक्षात्कार

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सौजन्‍य-प्रकाश के रे श्री मणि कौल का यह साक्षात्कार यूनेस्को कूरियर के जुलाई-अगस्त 1995 के सिनेमा के सौ साल के अवसर पर विशेषांक में पृष्ठ 36 -37 पर छ्पा था. आप सिनेमा से कैसे जुड़े और यह लगाव किस तरह आगे बढ़ा? सिनेमा से मेरा परिचय होने में कुछ देर लगी क्योंकि बचपन में मैं ठीक से देख नहीं पाता था. तेरह साल की उम्र में डॉक्टरों को मेरी आँखों की बीमारी का ईलाज समझ में आया. वही समय था जब दुनिया को मैंने पाया- जैसे बिजली की तारें, इन्हें मैं पहली दफ़ा देख सकता था. और फिर सिनेमा. जहाँ तक मुझे याद आता है जिस फ़िल्म ने मुझे सबसे पहले प्रभावित किया वह थी अमरीकी कॉस्टयूम ड्रामा - हेलेन ऑव ट्रॉय. शुरू में मेरी इच्छा अभिनेता बनने की थी. स्वाभविक रूप से यह मेरे पिता को पसंद न था. कुछ समय बाद मैंने एक डॉक्यूमेंट्री देखी जिससे मुझे यह ज्ञान हुआ कि फ़िल्में बिना अभिनेताओं के भी बन सकती हैं. इसने मेरी आँखें खोल दी. मुझे अब भी याद है कि वह फ़िल्म कलकत्ता शहर के बारे में थी. सौभाग्य से मेरे एक चाचा बंबई में फ़िल्म निर्देशक हुआ करते थे जो कि काफी जाने-माने थे. उनका नाम महेश कौल था. मैं उनसे मिला और उन्हों

ऑन स्‍क्रीन,ऑफ स्‍क्रीन : एक्टिंग की दीवानी प्रियंका चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज साल 2002.. मुंबई का फिल्मालय स्टूडियो.. सेट की तेज रोशनी और हडबडी-गडबडी के बीच चमकते दो नर्वस चेहरे.. मिस व‌र्ल्ड प्रियंका चोपडा और मिस यूनिवर्स लारा दत्ता..। सुनील दर्शन ने सत्र 2000 की सौंदर्य प्रतियोगिताओं की तीन में से दो विनर्स को हीरोइन के तौर पर साइन कर लिया था। उस दोपहर प्रियंका का साहस बढाने के लिए सेट पर मां मधु और पिता अशोक चोपडा थे। मां के सपनों को बेटी साकार कर रही थी। वह फिल्म की हीरोइन थी। मां-पिता के लिए बेटी की उपलब्धि मिस व‌र्ल्ड से भी बडी थी। समझदारी भरे निर्णय मां का सपना और विश्वास ही था कि वह अपना मेडिकल प्रोफेशन छोडकर बेटी के कारण मुंबई आ गई। बेटी ने भी उन्हें निराश नहीं किया। वह छलांगें मारती गई। राष्ट्रीय पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी प्रियंका लोकप्रियता और गंभीरता के बीच संतुलन बना कर चल रही हैं। वह जानती हैं कि समय के हिसाब से चलना जरूरी है। किसी ऐक्टर की अस्वीकृत फिल्मों की जानकारी हो तो उसके करियर का आकलन किया जा सकता है। एक उदाहरण दूं। प्रियंका ने अभिषेक बच्चन के साथ ब्लफ मास्टर की, उमराव जान छोड दी, फिर द्रोण की। मधुर भ