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फिल्‍म समीक्षा : तलाश

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-अजय ब्रह्मात्‍मज लगभग तीन सालों के बाद बड़े पर्दे पर लौटे आमिर खान 'तलाश' से अपने दर्शकों और प्रशंसकों को नए ढंग से रिझाते हैं। 'तलाश' है हिंदी सिनेमा ही, लेकिन रीमा कागती और आमिर खान ने उसे अपडेट कर दिया है। सस्पेंस के घिसे-पिटे फार्मेट को छोड़ दिया है और बड़े ही चुस्त तरीके से नए तत्व जोड़ दिए हैं। छल, प्रपंच, हत्या, दुर्घटना और बदले की यह कहानी अपने अंतस में इमोशनल और सोशल है। रीमा कागती और जोया अख्तर ने संबंधों के चार गुच्छों को जोड़कर फिल्म का सस्पेंस रचा है। 'तलाश' मुंबई की कहानी है। शाम होने के साथ मुंबई की जिंदगी करवट लेती है। रीमा कागती ने अपने कैमरामैन मोहनन की मदद से बगैर शब्दों में रात की बांहों में अंगड़ाई लेती मुंबई को दिखाया है। आरंभ का विजुअल कोलाज परिवेश तैयार कर देता है। फिल्म एक दुर्घटना से शुरू होती है। मशहूर फिल्म स्टार ओंकार कपूर की गाड़ी का एक्सीडेंट हो जाता है। उनकी कार सीफेस रोड से सीधे समुद्र में चली गई है। मुंबई पुलिस के अन्वेषण अधिकारी सुर्जन सिंह शेखावत (आमिर खान) की तहकीकात आरंभ होती है। फिल्मसिटी से दुर्घटना स्थल क

फिल्‍म समीक्षा : लाइफ ऑफ पाई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यान मार्टेल का उपन्यास 'लाइफ ऑफपाई' देश-विदेश में खूब पढ़ा गया है। इस उपन्यास ने पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है। विश्वप्रसिद्ध फिल्मकार आंग ली ने इसी उपन्यास को फिल्म का रूप दिया है। 3 डी तकनीक के उपयोग से उन्होंने मार्टेल की कल्पना को पर्दे पर धड़कन दे दी है। जीव-जंतु और प्राकृतिक सौंदर्य की लगभग नैसर्गिक अनुभूति दिलाने में वे सफल रहे हैं। यह फिल्म पाई की कहानी है। पांडिचेरी के निजी चिड़ियाघर के मालिक के छोटे बेटे पाई के माध्यम से निर्देशक ने जीवन, अस्तित्व, धर्म और सहअस्तित्व के बुनियादी प्रश्नों को छुआ है। पाई अपने परिवार के साथ कनाडा के लिए समुद्र मार्ग से निकला है। रास्ते के भयंकर तूफान में उसका जहाज डूब जाता है। मां-पिता और भाई को डूबे जहाज में खो चुका पाई एक सुरक्षा नौका पर बचा रह जाता है। उस पर कुछ जानवर भी आ गए हैं। आखिरकार नाव पर बचे पाई और बाघ के बीच बने सामंजस्य और सरवाइवल की यह कहानी रोमांचक और रमणीय है। किशोर पाई की [सूरज शर्मा] की कहानी युवा पाई [इरफान खान] सुनाते हैं। अपने ही जीवन के बारे में बताते समय पाई का चुटीला अंदाज कहानी

तब्‍बू से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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तब्बू ‘ बाजार ’ और ‘ हम नौजवां ’ में झलक दिखलाने के बाद 1987 में तेलुग़ू फिल्म कुली नं. 1 से तब्बू ने अभिनय यात्रा आरंभ की। उनकी पहली हिंदी फिल्म ‘ प्रेम ’ बनने में ही सात साल लग गए। बोनी कपूर ने अपने छोटे भाई संजय कपूर के साथ उन्हें लांच किया था। 1994 में आई ‘ विजयपथ ’ से उन्हें दर्शकों ने पहचाना और मुंबई के निर्माताओं ने रूक कर देखा। तब्बू ने हर तरह की फिल्मों में काम किया। उन्हें ‘ माचिस ’ और ‘ चंादनी बार ’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मीरा नायर की फिल्म ‘ नेमसेक ’ में तब्बू 2007 में दिखी थीं। उसके बाद से उनकी कोई महत्वपूर्ण फिल्म नहीं आई है। दर्शकों को तब्बू का और तब्बू को फिल्मों का इंतजार है। इस साल इरफान के साथ उनकी फिल्म ‘ लाइफ ऑफ पी ’ आएगी। तब्बू से यह बातचीत किसी विशेष प्रयोजन से नहीं की गई है। तब्बू ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार शेयर किए हैं। - आप ने ज्यादातर नए डायरेक्टर के साथ काम किया। ऐसे चुनाव में जोखिम भी रहता है। क्या आप को कभी डर नहीं लगा कि आप का बेजा इस्तेमाल हो सकता है ? 0 मैंने लगभग हर फिल्म में नए डायरेक्टर के साथ काम

फिल्‍म समीक्षा : लव शव ते चिकेन खुराना

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  अनुराग कश्यप के प्रोडक्शन से धड़ाधड़ फिल्में आ रही हैं। इन्हें कॉरपोरेट हाउस का सहयोग मिल रहा है। अनुराग के संरक्षण में युवा फिल्मकार नई सोच की फिल्में लेकर आ रहे हैं? कथ्य, शिल्प, भाषा और प्रस्तुति में नयेपन के साथ थोड़ा अनगढ़पन भी है। यह किसी किस्म की कमी या बुराई नहीं है। समीर शर्मा की लव शव ते चिकेन खुराना में पंजाब का परिवेश है,लेकिन यह हिंदी फिल्मों के चोपड़ा और जौहर के पंजाब से अलग है। इसमें वहां की जिंदगी, मुश्किलें, खुशियां, साजिशें और पारिवारिक प्रेम है। मध्यवर्गीय मूल्यों से रचा संसार और परिवार है। ओमी खुराना के सपने अपने पिंड में नहीं समा पा रहे हैं। एक रात वह चुपके से सपनों के पीछे निकल जाता है। लंदन में कर्ज और चालाकी से अपनी जिंदगी चला रहा है। धीरे-धीरे पाउंड का कर्ज इतना बढ़ जाता है कि उसे अपने सपने गिरवी रखने पड़ते हैं। वह पिंड लौटता है। उसे उम्मीद है कि कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा। पिंड में उसके दादा जी का ढाबा चिकेन खुराना के लिए मशहूर है। लौटने पर उसे पता चलता है कि दादा जी की याददाश्त खो गई है और ढाबा बंद हो चुका है। वह लौटने के बाद

aishwarya rai speaking at the award function of Knight of the Order of Arts and letters

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Good evening and thank you to the French Ambassador Francois Richier, Eminent dignitaries, respected members of the media, my dear family and friends, ladies and gentlemen…. I must begin by sincerely thanking the French Government, for honouring me with this award of Knight of the Order of Arts and letters, the 2 nd highest civilian award, for my humble contribution to the world of cinema over the years. To be conferred with this distinction is truly overwhelming. And given the fine company of distinguished Indian personalities from the fields of cinema, art, literature as well as those conferred with this honour internationally, this is treasured. FRANCE has been quite the symbol of the celebration of ART and CULTURE globally…much like India…and immensely contributed to and influenced the ever-evolving world of cinema, theatre, literature, music, architecture and fashion. Mention PARIS and you witness this very celebration in its FULL GLORY and its magnetic romantic CHA

यश चोपड़ा पर अमिताभ बच्‍च्‍न के भावभीने शब्‍द

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44 वर्षों का साथ , जो कि 1968 में शुरू हुआ , 2012 में अचानक और समय से पहले समाप्त हो गया . इन ४४ वर्षों में , कला के क्षेत्र में यश जी का जो योगदान रहा , देश विदेश में , जग जाहिर है . परन्तु मैंने उन्हें हमेशा एक घनिष्ठ मित्र और एक अद्भुत इंसान के रूप में पाया . नाम और शोहरत के साथ साथ मित्रता और इन्सानियत को साथ लेकर , अपना जीवन व्यतीत करना , ये कोई सरल काम नहीं है . लेकिन यश जी में ऐसे ही गुण थे . मैंने उनके साथ इस लम्बे सफ़र में , बहुत कुछ सीखा और जाना . बहुत से सुखद और दुखद पल बिताये . काम के प्रति जो उनकी लगन , निष्ठा, और उत्साह था , उससे उन्होंने मुझे भिगोया - इसके लिए मैं सदा उनका आभारी रहूँगा . इतने वर्ष उनकी संगत में रहकर , जो उनमें एक महत्वपूर्ण बात देखी, वो ये कि मैंने उन्हें कभी भी किसी के साथ अपना क्रोध व्यक्त करते नहीं देखा . कभी भी किसी के साथ ऊंचे स्वर में बात करते नहीं देखा . ऊंचा स्वर उनका था , लेकिन अपने काम के प्रति उल्ल्हास व्यक्त करने के लिए होता था , क्रोध नहीं . परिस्थिति चाहे कुछ भी रही हो , उनका स्वभाव हमेशा शांत रहा . मिलनसार व्यक्ति

मुंबई का अपना फिल्म फेस्टिवल

-अजय ब्रह्मात्मज देश में चल रहे छोटे-बड़े सभी तरह के फिल्म फेस्टिवल को मुंबई फिल्म फेस्टिवल से सीखने की जरूरत है। मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेजेज(मामी) इसे आयोजित करता है। इस फेस्टिवल की खासियत है कि इसके आयोजकों में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की कुछ नामवर हस्तियां जुड़ी हुईं हैं। शुरुआत से इसके चेयरमैन श्याम बेनेगल हैं। उनके मार्गदर्शन में मुंबई फिल्म फेस्टिवल साल-दर-साल मजबूत और बेहतर होता गया है। अभी इसकी इंटरनेशनल पहचान और लोकप्रियता भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया से अधिक है। फिल्मों के चयन, उनके प्रदर्शन, ज्यूरी मेंबर और देश-विदेश के आमंत्रित फिल्मकारों की सूची मात्र ही देख लें तो मुंबई फिल्म फेस्टिवल की बढ़ती महत्ता समझ में आ जाती है।     फिल्म फेस्टिवल किसी भी प्रकार आमदनी का आयोजन नहीं है। इसे सरकारी या गैर-सरकारी आर्थिक सहयोग से ही दक्षतापूर्वक आयोजित किया जा सकता है। मुंबई फिल्म फेस्टिवल को आरंभ से ही रिलायंस का सहयोग मिलता रहा है। एक-दो सालों के व्यवधानों के बावजूद महाराष्ट्र सरकार का समर्थन भी इसे हासिल है। इसके अतिरिक्त

फिल्‍म रिव्‍यू : चक्रव्‍यूह

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-अजय ब्रह्मात्मज  पैरेलल सिनेमा से उभरे फिल्मकारों में कुछ चूक गए और कुछ छूट गए। अभी तक सक्रिय चंद फिल्मकारों में एक प्रकाश झा हैं। अपनी दूसरी पारी शुरू करते समय 'बंदिश' और 'मृत्युदंड' से उन्हें ऐसे सबक मिले कि उन्होंने राह बदल ली। सामाजिकता, यथार्थ और मुद्दों से उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा। उन्होंने शैली और नैरेटिव में बदलाव किया। अपनी कहानी के लिए उन्होंने लोकप्रिय स्टारों को चुना। अजय देवगन के साथ 'गंगाजल' और 'अपहरण' बनाने तक वे गंभीर समीक्षकों के प्रिय बने रहे, क्योंकि अजय देवगन कथित लोकप्रिय स्टार नहीं थे। फिर आई 'राजनीति.' इसमें रणबीर कपूर, अर्जुन रामपाल और कट्रीना कैफ के शामिल होते ही उनके प्रति नजरिया बदला। 'आरक्षण' ने बदले नजरिए को और मजबूत किया। स्वयं प्रकाश झा भी पैरेलल सिनेमा और उसके कथ्य पर बातें करने में अधिक रुचि नहीं लेते। अब आई है 'चक्रव्यूह'। 'चक्रव्यूह' में देश में तेजी से बढ़ रहे अदम्य राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन नक्सलवाद पृष्ठभूमि में है। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में कुछ किरदार रचे गए हैं।

फिल्‍म समीक्षा : स्टूडेंट ऑफ द ईयर

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-अजय ब्रह्मात्मज देहरादून में एक स्कूल है-सेंट टेरेसा। उस स्कूल में टाटा(अमीर) और बाटा(मध्यवर्गीय) के बच्चे पढ़ते हैं। उनके बीच फर्क रहता है। दोनों समूहों के बच्चे आपस में मेलजोल नहीं रखते। इस स्कूल के डीन हैं योगेन्द्र वशिष्ठ(ऋषि कपूर)। वे अपने ऑफिस के दराज में रखी मैगजीन पर छपी जॉन अब्राहम की तस्वीर पर समलैंगिक भाव से हाथ फिराते हैं और कोच को देख कर उनक मन में ‘कोच कोच होने लगता है’। करण जौहर की फिल्मों में समलैंगिक किरदारों का चित्रण आम बात हो गई है। कोशिश रहती है कि ऐसे किरदारों को सामाजिक प्रतिष्ठा और पहचान भी मिले। बहरहाल, कहानी बच्चों की है। ये बच्चे भी समलैंगिक मजाक करते हैं। इस स्कूल के लंबे-चौड़े भव्य प्रांगण और आलीशान इमारत को देखकर देश के अनगिनत बच्चों को खुद पर झेंप और शर्म हो सकती है। अब क्या करें? करण जौहर को ऐसी भव्यता पसंद है तो है। उनकी इस फिल्म के लोकेशन और कॉस्ट्युम की महंगी भव्यता आतंकित करती है। कहने को तो फिल्म में टाटा और बाटा के फर्क की बात की जाती है, लेकिन मनीष मल्होत्रा ने टाटा-बाटा के प्रतिनिधि किरदारों को कॉस्ट्युम देने में भेद नहीं रखा है। रोहन और अभिम

फिल्‍म समीक्षा : डेल्‍ही सफारी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सबसे पहले निखिल आडवाणी को इस साहस के लिए बधाई कि उन्होंने एनीमेशन फिल्म को धार्मिक, पौराणिक और मिथकीय कहानियों से बाहर निकाला। ज्यादातर एनीमेशन फिल्मों के किरदार आम जिंदगी से नहीं होते। 'डेल्ही सफारी' में भी आज के इंसान नहीं हैं। निखिल ने जानवरों को किरदार के रूप में चुना है। उनके माध्यम से उन्होंने विकास की अमानवीय कहानी पर उंगली उठाई है। मुंबई के सजय गाधी नेशनल पार्क में युवराज पिता सुल्तान और मा के साथ रहता है। जंगल के बाकी जानवर भी आजादी से विचरते हैं। समस्या तब खड़ी होती है, जब एक बिल्डर विकास के नाम पर जंगलों की कटाई आरंभ करता है। बुलडोजर की घरघराहट से जंगल गूंज उठता है। सुल्तान बिल्डर के कारकुनों के हत्थे चढ़ जाता है और मारा जाता है। पिता की मौत से आहत युवराज देश के प्रधानमत्री तक जंगल की आवाज पहुंचाना चाहता है। इसके बाद डेल्ही सफारी शुरू होती है। युवराज और उसकी मा के साथ बग्गा भालू, बजरंगी बदर और एलेक्स तोता समेत कुछ जानवर दिल्ली के लिए निकलते हैं। दिल्ली की रोमाचक यात्रा में बाधाएं आती हैं। सारे जानवर प्रवक्ता के तौर पर एलेक्स तोता को