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हम दोनों हैं जुदा-जुदा... हुमा कुरैशी - साकिब सालिम

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रघुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स से चवन्‍नी के पाठकों के लिए साधिकार... हुमा कुरैशी अपने छोटे भाई साकिब सालिम को तंग करने का एक भी मौका नहीं गंवातीं, तो साकिब भी उनकी टांग खींचने के लिए तैयार रहते हैं. बहन-भाई की शैतानियों की कहानियां बता रहे हैं रघुवेन्द्र सिंह भाई-बहन को साथ एक फिल्म में कास्ट करना हो, तो कैसी स्क्रिप्ट होनी चाहिए? आप सोचते रहिए... हुमा कुरैशी और साकिब सालिम ने तो सोच लिया है. ''भाई-बहन की ही कहानी होनी चाहिए और अगले पांच मिनट के बाद बहन की फोटो दीवार पर टंगी होनी चाहिए." यह कहकर साकिब ठहाका लगाते हैं. ''हां, क्योंकि अगर मैं उससे ज्यादा देर तक फिल्म में रही, तो तुम्हारा रोल खा जाऊंगी." अपने छोटे भाई की बात का जवाब देकर हुमा भी हंस पड़ती हैं और वे नई कहानी का सुझाव देती हैं, ''भाई-बहन रोड ट्रिप पर जाते हैं... " और ''भाई बहन को मार देता है..." शरारती साकिब हुमा की बात को बीच में ही काट देते हैं और फिर भाई-बहन की खिलखिलाती हंसी गूंजने लगती है. आप समझ गए होंगे कि हुमा और साकिब के बीच किस तरह का रि

हिंदी फिल्‍मों का पंजाबीपन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  हिंदी फिल्म का नायक यदि ' चरण स्पर्श ' या ' पिताजी पाय लागूं ' कहते हुए पर्दे पर दिखे तो ज्यादातर दर्शक हंस पड़ेंगे। वहीं नायक जब पर्दे पर ' पैरी पौना बाउजी Ó कहता है तो हम विस्मित नहीं होते। यह हमें स्वाभाविक लगता है। दरअसल , हिंदी फिल्मों में पंजाब की निरंतर मौजूदगी से हम पंजाबी लहजे , संगीत और संवाद के आदी हो गए हैं। हिंदी फिल्मों का बड़ा हिस्सा पंजाबी संस्कृति और प्रभाव से आच्छादित है। कभी करीना कपूर का जब वी मेट में पंजाबी स्टाइल देश भर की लड़कियों का जुनून बन गया तो कभी गदर में तारा सिंह की भूमिका में सनी देओल बने गबरू जवानों का पैमाना। यही नहीं , देश में सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म का रिकार्ड भी दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे   के नाम है , जो विशुद्ध रूप से पंजाबी-एनआरआई समीकरण पर आधारित फिल्म थी।   चाहे वह विकी डोनर , बैंड बाजा बारात , पटियाला हाउस , खोसला का घोंसला , दो दूनी चार जैसी मल्टीप्लेक्स फिल्में हों ; सिंह इज किंग , दिल बोले हडि़प्पा , यमला पगला दीवाना , सन आफ सरदार जैसी शुद्ध मसाला मूवीज या माचिस और पिंजर जैस

फिल्‍मों की कास्टिंग और मुकेश छाबड़ा

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कैमरे के पीछे सक्रिय विभागों में कास्टिंग एक महत्‍वपूर्ण विभाग है। पहले इसे स्‍वतंत्र विभाग का दर्जा और सम्‍मान हासिल नहीं था। पिछले पांच सालों में परिदृश्‍य बदल गया है। कोशिश है कि चवन्‍नी के पाठक इस के बारे में विस्‍तार से जान सकें।  कास्टिंग परिद्श्‍य -अजय ब्रह्मात्मज     फिल्म निर्माण में इस नई जिम्मेदारी को महत्व मिलने लगा है। इधर रिलीज हो रही फिल्मों में कास्टिंग डायरेक्टर के नाम को भी बाइज्जत क्रेडिट दिया जाता है। हाल ही में रिलीज हुई ‘काय पो छे’ की कास्टिंग की काफी चर्चा हुई। इसके मुख्य किरदारों की कास्टिंग नई और उपयुक्त रही। सुशांत सिंह राजपूत, अमित साध, अमृता पुरी, राज कुमार यादव और मानव कौल आदि मुख्य किरदारों में दिखे। सहायक किरदारों में भी परिचित चेहरों के न होने से एक ताजगी बनी रही। कास्टिंग डायरेक्टर के महत्व और भूमिका को अब निर्देशक और निर्माता समझने लगे हैं।     हालांकि अभी भी निर्माता-निर्देशक स्टारों के चुनाव में कास्टिंग डायरेक्टर के सुझाव को नजरअंदाज करते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के स्ट्रक्चर में स्टार के पावरफुल और निर्णायक भूमिका (डिसाइडिंग फैक्टर) में होने

फिल्‍म समीक्षा : नौटंकी साला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  फूहड़ और फार्मूला कामेडी की हमें आदत पड़ चुकी है। फिल्मों में हंसने की स्थितियां बनाने के बजाए लतीफेबाजी और मसखरी पर जोर रहता है। सुने-सुनाए लतीफों को लेकर सीन लिखे जाते हैं और उन्हें ही संवादों में बोल दिया जाता है। ऐसी फिल्में हम देखते हैं और हंसते हैं। इनसे अलग कोई कोशिश होती है तो वह हमें नीरस और फीकी लगने लगती है। 'नौटंकी साला' प्रचलित कामेडी फिल्मों से अलग है। नए स्वाद की तरह भाने में देरी हो सकती है या फिर रोचक न लगे। थोड़ा धैर्य रखें तो थिएटर से निकलते समय एहसास होगा कि स्वस्थ कामेडी देख कर निकल रहे हैं, लेकिन 'जंकफूड' के इस दौर में 'हेल्दी फूड' की मांग और स्वीकृति थोड़ी कम होती है। रोहन सिप्पी ने एक फ्रांसीसी फिल्म की कहानी का भारतीयकरण किया है। अधिकांश हिंदी दर्शकों ने वह फिल्म नहीं देखी है, इसलिए उसका उल्लेख भी बेमानी है। यहां राम परमार (आयुष्मान खुराना) है। वह थिएटर में एक्टर और डायरेक्टर है। एक रात शो समाप्त होने के बाद अपनी प्रेमिका के साथ डिनर पर जाने की जल्दबाजी में उसके सामने आत्महत्या करता मंदार लेले (कुणाल र

‘ ---और प्राण’ को मिला दादा साहेब फालके सम्‍मान

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-अजय ब्रह्मात्मज आखिरकार प्राण को दादा साहेब सम्‍मान मिला। सन् 2004 से हर साल फाल्‍के सम्‍मान की घोषणा के समय उनके नाम की चर्चा होती रही है, लेकिन साल-दर-साल दूसरे दिग्गज सम्मानित होते रहे। प्राण के समर्थक और प्रशंसक मायूस होते रहे। इस तरह दरकिनार किए जाने पर प्राण साहेब ने कभी नाखुशी जाहिर नहीं की, लेकिन पूरी फिल्म इंडस्ट्री महसूस करती रही कि उन्हें पुरस्कार मिलने में देर हो रही है। देर आयद, दुरूस्त आयद ...2013 में 94 की उम्र में उन्हें देश का फिल्म संबंधी सर्वोच्‍च सम्‍मान मिल ही गया। मनोज कुमार ने इसी बात की खुशी जाहिर की है कि उन्हें जीते-जी यह पुरस्कार मिला।     उनके  करिअर पर सरसरी नजर डालें तो पंजाब और उत्तरप्रदेश के कुछ शहरों में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे अविभाजित भारत के लाहौर शहर में स्टिल फोटोग्राफी में करिअर के लिए प्रयत्नशील थे। एटीट्यूड और स्टायल उनमें शुरू से था। लाहौर में राम लुभाया के पान की दुकान के सामने पान मुंह में डालने और चबाने के उनके अंदाज से वली मोहम्मद वली प्रभावित हुए। उन्हें उनमें अपना खलनायक दिख गया। उन्होनें ज्यादा बातचीत नहीं की। बसख्अपनी लिखी फिल

फिल्‍म समीक्षा : कमांडो

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  एक्शन फिल्म के तौर पर प्रचारित 'कमांडो' का एक्शन रोमांचित करता है। विद्युत जामवाल में बिजली की गति और चकमा है। एक्शन दृश्यों में उनकी स्फूर्ति देखते ही बनती है। एक्शन पसंद करने वाले दर्शकों को यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। भारतीय सेना के एक कमांडो के खो जाने से कहानी शुरू होती है। करणबीर डोगारा (विद्युत जामवाल) का हेलीकॉप्टर नियमित अभ्यास के दौरान क्रैश कर जाता है। करण को चीनी सेना के जवान गिरफ्तार कर लेते हैं। वे उसे जासूस समझते हैं। चीनी कैद में निश्चित मौत से बचकर करण भागता है और भारतीय सीमा में प्रवेश कर जाता है। वह पंजाब के एक गांव पहुंचता है। वहां उसकी भिडंत अनायास कुछ गुंडों से हो जाती है। वह एक लड़की को उनसे बचाता है। बाद में वह लड़की उसके पीछे पड़ जाती ह कि अब आगे भी बचाओ। इस कहानी के साथ हम देख चुके होते हैं कि इलाके का बदमाश एके-74 (जयदीप अहलावत) गांव की लड़की सिमरन (पूजा चोपड़ा) से शादी करना चाहता है। सिमरन उसके चंगुल से बचने के लिए भागी है। इसके आगे की कहानी एके-74 और करण के संघर्ष की हो जाती है। करण किसी भी तरह सिमरन को एके-74 क

पहली तिमाही और आईपीएल

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-अजय ब्रह्मात्मज     तीन साल पहले 2010 में भी पहली तिमाही में 41 फिल्में रिलीज हुई थीं। तब तीन महीनों का कुल बिजनेस 320 करोड़ था। इस साल फिर से 41 फिल्में रिलीज हुई हैं, लेकिन बिजनेस में स्पष्ट उछाल दिख रहा है। इस साल पहली तिमाही का कलेक्शन 481 करोड़ है। प्रति फिल्म कलेक्शन पर भी नजर डालें तो लगभग डेढ़ गुने का उछाल दिखता है। 2010 में प्रति फिल्म कलेक्शन 7 ़ 8 करोड़ रहा, जबकि 2013 में प्रति फिल्म कलेक्शन 11 ़ 73 करोड़ है। स्पष्ट है कि हिंदी फिल्मों के दर्शक बढ़े हैं। हालांकि साजिद खान की ‘हिम्मतवाला’ अपेक्षा के मुताबिक नहीं चल सकी। फिर भी पहले वीकएंड के लगभग 30 करोड़ के कलेक्शन से उसने पहली तिमाही का कुल कलेक्शन 500 करोड़ से अधिक कर दिया। यह कोई संकेत नहीं है। अगले 9 महीनों में फिल्मों का बिजनेस कितना चढ़ेगा या उतरेगा ? अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता।     पिछले कुछ सालों से दूसरी तिमाही में फिल्मों की रिलीज कम हो जाती है। इससे कुल कलेक्शन भी प्रभावित होता है। इसका एक बड़ा कारण आईपीएल क्रिकेट है और दूसरा गर्मी की छुट्टियां ़ ़ ़ गर्मी की छुट्टियों में दर्शकों का बड़ी संख्या में आवागमन

‘‘I proved to the country that Shakespeare can be masala…’’ -vishal bhardwaj

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए विशाल भारद्वाज का इंटरव्यू बॉक्‍स ऑफिस इं डिया से.... by Box Office India ( April 6, 2013 ) Vishal Bhardwaj in a no-holds-barred interview to the Box Office India team BOI: Let’s start with Ek Thi Daayan . How did it happen? Vishal Bhardwaj (VB): The director Kannan (Iyer) has been a friend for a very long time. Actually, he was supposed to make a film for Ram Gopal Varma, even before Satya . Ramu introduced us. So we became friends. Even though that film got shelved, we remained friends.After that, I made seven to eight films but Kannan didn’t make a single one. That’s because he was looking for the perfect script, which didn’t exist. So I proposed that we make a film together. I had read this short story written by Mukul Sharma, who is Konkona’s (Sen Sharma) father, a great writer. I loved that short story. I gave it to Kannan and he developed it. That’s how it all started. BOI: The film has a ver

पड़ोसी देश का परिचित अभिनेता अली जफर

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-अजय ब्रह्मात्मज     अभिषेक शर्मा की ‘तेरे बिन लादेन’ के पहले ही अली जफर को भारतीय दर्शकों ने पहचानना शुरू कर दिया था। उनके गाए गाने पाकिस्तान में धूम मचाने के बाद सरहद पार कर भारत पहुंचे। सोशल मीडिया से सिमटती दुनिया में अली जफर के लिए भारतीय श्रोताओं और फिर दर्शकों के बीच आना मुश्किल काम न रहा। हालांकि उन्होंने गायकी से शुरुआत की, लेकिन अब अभिनय पर ध्यान दे रहे हैं। थोड़ा पीछे चलें तो उन्होंने पाकिस्तान की फिल्म ‘शरारत’ में ‘जुगनुओं से भर ले आंचल’ गीत गाया था। एक-दो टीवी सीरिज में भी काम किया। उन्हें बड़ा मौका ‘तेरे बिन लादेन’  के रूप में मिला। अभिषेक शर्मा की इस फिल्म के चुटीले दृश्यों और उनमें अली जफर की बेचैन मासूमियत ने दर्शकों को मुग्ध किया। अली जफर चुपके से भारतीय दर्शकों के भी चहेते बन गए।     शांत, मृदुभाषी और कोमल व्यक्तित्व के अली जफर सचमुच पड़ोसी लडक़े (नेक्स्ट डोरब्वॉय ) का एहसास देते हैं। तीन फिल्मों के बाद भी उनमें हिंदी फिल्मों के युवा स्टारों जैसे नखरे नहीं हैं। पाकिस्तान-भारत के बीच चौकड़ी भरते हुए अली जफर फिल्में कर रहे हैं। गौर करें तो आजादी के बाद से अनेक पाक

हिंदी फिल्मों का फैलता विदेशी बाजार

-अजय ब्रह्मात्मज     अप्रैल से सितंबर के बीच जापान में छह हिंदी फिल्में रेगुलर सिनेमाघरों में रिलीज होंगी। अभी टोक्यो में हिंदी फिल्मों के प्रीमियर का सिलसिला चल रहा है। कबीर खान निर्देशित सलमान खान की ‘एक था टाइगर’ के बाद फराह खान निर्देशित शाहरुख खान की ‘ओम शांति ओम’ का प्रीमियर हुआ। जल्दी ही ‘3 इडियट’ और ‘स्टेनली का डब्बा’ के भी प्रीमियर होंगे। टोक्यो के प्रीमियर में कोई भी स्टार नहीं गया। दोनों ही फिल्मों के निर्देशक मौजूद रहे। ‘एक था टाइगर’ के प्रीमियर के समय कबीर खान ने स्वीकार किया था कि अभी सलमान खान को टोक्यो बुलाना बेमानी होता। कुछ फिल्में चलेंगी और उनका क्रेज बनेगा तो जाकर उनकी भागीदारी बड़ी खबर बनेगी। अभी तो जरूरत है कि हिंदी फिल्मों का बाजार बनाया जाए।     हिंदी फिल्मों के विदेशी बाजारों का उल्लेख करते समय हम मुख्य रूप से अमेरिका, इंग्लैंड और मध्य पूर्व के देशों की बातें करते हैं। इधर जर्मनी और फ्रांस का भी जिक्र होने लगा है। पूर्व एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के बाजार पर हमारी नजर ही नहीं थी। याद करें तो फिल्म फिल्म समारोहों के बाहर के दर्शकों के बीच सबसे पहले ‘आवारा’ ने