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बॉलीवुड में हिंदी-मनोज रघुवंशी

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आठवें विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के अवसर पर मनोज रघुवंशी ने बॉलीवुड में हिंदी नाम की फिल्‍म बनाई थी। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हिंदी की स्थिति के सच का यह एक पहलू है। आप भी देखें और गौरवान्वित हों। वैसे हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हिंदी की वास्‍तविक स्थिति कुछ और है। इतराने में क्‍या जाता है ?

फिल्‍म समीक्षा : बॉम्‍बे टाकीज

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- अजय ब्रह्मात्‍मज  भारतीय सिनेमा की सदी के मौके पर मुंबई के चार फिल्मकार एकत्रित हुए हैं। सभी हमउम्र नहीं हैं, लेकिन उन्हें 21वीं सदी के हिंदी सिनेमा का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। फिल्म की निर्माता और वायकॉम 18 भविष्य में ऐसी चार-चार लघु फिल्मों की सीरिज बना सकते हैं। जब साधारण और घटिया फिल्मों की फ्रेंचाइजी चल सकती है तो 'बॉम्बे टाकीज' की क्यों नहीं? बहरहाल, यह इरादा और कोशिश ही काबिल-ए-तारीफ है। सिनेमा हमारी जिंदगी को सिर्फ छूता ही नहीं है, वह हमारी जिंदगी का हिस्सा हो जाता है। भारतीय संदर्भ में किसी अन्य कला माध्यम का यह प्रभाव नहीं दिखता। 'बॉम्बे टाकीज' करण जौहर, दिबाकर बनर्जी, जोया अख्तर और अनुराग कश्यप के सिनेमाई अनुभव की संयुक्त अभिव्यक्ति है। चारों फिल्मों में करण जौहर की फिल्म सिनेमा के संदर्भ से कटी हुई है। वह अस्मिता और करण जौहर को निर्देशकीय विस्तार देती रिश्ते की अद्भुत कहानी है। करण जौहर - भारतीय समाज में समलैंगिकता पाठ, विमर्श और पहचान का विषय बनी हुई है। यह लघु फिल्म अविनाश के माध्यम से समलैंगिक अस्मिता को रेखांकित करने के साथ उसे समझ

फिल्‍म समीक्षा :शूटआउट एट वडाला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  निर्देशक संजय गुप्ता और उनके लेखक को यह तरकीब सूझी कि गोली से जख्मी और मृतप्राय हो चुके मन्या सुर्वे की जुबानी ही उसकी कहानी दिखानी चाहिए। मन्या सुर्वे नौवें दशक के आरंभ में मारा गया एक गैंगस्टर था। 'शूटआउट एट वडाला' के लेखक-निर्देशक ने इसी गैंगस्टर के बनने और मारे जाने की घटनाओं को जोड़ने की मसालेदार कोशिश की है। मन्या सुर्वे के अलावा बाकी सभी किरदारों के नाम बदल दिए गए है, लेकिन फिल्म के प्रचार के दौरान और उसके पहले यूनिट से निकली खबरों से सभी जानते हैं कि फिल्म का दिलावर वास्तव में दाउद इब्राहिम है। यह मुंबई के आरंभिक गैंगवार और पहले एनकाउंटर की कहानी है। आरंभ के कुछ दृश्यों में मन्या निम्न मध्यवर्गीय परिवार का महत्वाकांक्षी युवक लगता है। मां का दुलारा मन्या पढ़ाई से अपनी जिंदगी बदलना चाहता है। उसकी चाहत तब अचानक बदल जाती है, जब वह सौतेले बड़े भाई की जान बचाने में एक हत्या का अभियुक्त मान लिया जाता है। उसे उम्रकैद की सजा होती है। जेल में बड़े भाई की हत्या के बाद वह पूरी तैयारी के साथ अपराध की दुनिया में शामिल होता है। यहां उसकी भिड़ंत हक्सर

प्राण चूंकि दोस्त था... -सआदत हसन मंटो

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(सआदत हसन मंटो ने अपने समकालीन फिल्म कलाकारों पर बेबाक संस्मरण लिखे हैं। उनके संस्मरण मीना बाजार में संकलित है। मीना बाजार में उन्होंने नरगिस, नूरजहां, के .क़े., सितारा, पारो देवी, नीना, नसीम बानो और लतिका रानी के जीवन प्रसंगों को अपने संस्मरण में उकेरा है। उन्होंने के .के. के संस्मरण में प्राण का भी उल्लेख किया है। हम यहां प्राण से संबंधित अंश प्रकाशित कर रहे हैं।)      ...बंटवारे पर जब पंजाब के फसादात शुरू हुए तो कुलदीप कौर, जो लाहौर में थी और वहां फिल्मों में काम कर रही थी, अपना वतन छोड़ कर बंबई चली गई। उसके साथ उसका खास दोस्त प्राण भी था, जो पंचोली की कई फिल्म में काम कर के शोहरत हासिल कर चुका था।     अब प्राण का जिक्र आया है तो उसके बारे में भी कुछ पंक्तियां बतौर परिचय लिखने में कोई हर्ज नहीं। प्राण अच्छा-खासा खुशशक्ल मर्द है। लाहौर में उसकी शोहरत इस वजह से भी थी कि वह बड़ा ही खुशपोश था। बहुत ठाठ से रहता था। उसका तांगा-घोड़ा लाहौर के रईसी तांगों में से सबसे ज्यादा खूबसूरत और दिलकश था।     मुझे मालूम नहीं, प्राण से कुलदीप कौर की दोस्ती कब और किस तरह हुई, इसलिए कि मैं लाहौर में नह

21वीं सदी का सिनेमा

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- अजय ब्रह्मात्मज             समय के साथ समाज बदलता है। समाज बदलने के साथ सभी कलारूपों के कथ्य और प्रस्तुति में अंतर आता है। हम सिनेमा की बात करें तो पिछले सौ सालों के इतिहास में सिनेमा में समाज के समान ही गुणात्मक बदलाव आया है। 1913 से 2013 तक के सफर में भारतीय सिनेमा खास कर हिंदी सिनेमा ने कई बदलावों को देखा। बदलाव की यह प्रक्रिया पारस्परिक है। आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक बदलाव से समाज में परिवर्तन आता है। इस परिवर्तन से सिनेमा समेत सभी कलाएं प्रभावित होती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी सिनेमा को देखें तो अनेक स्पष्ट परिवर्तन दिखते हैं। कथ्य , श्ल्पि और प्रस्तुति के साथ बिजनेस में भी इन बदलावों को देखा जा सकता है। हिंदी सिनेमा के अतीत के परिवर्तनों और मुख्य प्रवृत्तियों से सभी परिचित हैं। मैं यहां सदी बदलने के साथ आए परिवर्तनों के बारे में बातें करूंगा। 21 वीं सदी में सिनेमा किस रूप और ढंग में विकसित हो रहा है ?             सदी के करवट लेने के पहले के कुछ सालों में लौटें तो हमें निर्माण और निर्देशन में फिल्म बिरादरी का स्पष्ट वर्चस्व दिखता है। समाज के सभी क्षेत्रों क

हिंदी सिनेमा की वीडियो बुक

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-अजय ब्रह्मात्मज     सौ साल के हुए भारतीय सिनेमा पर विभिन्न संस्थाएं कुछ न कुछ उपक्रम और आयोजन कर रही हैं। पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों से लेकर सेमिनार के बहस-मुबाहिसों में हम किसी न किसी रूप में भारतीय सिनेमा की चर्चा सुन रहे हैं। हिंदी सिनेमा की उपलब्धियों को भी रेखांकित किया जा रहा है। व्यक्ति, प्रवृत्ति, विधा और अन्य श्रेणियों एवं वर्गों में बांट कर उनका अध्ययन, विश्लेषण और दस्तावेजीकरण हो रहा है। हम भारतीय दस्तावेज और रिकॉर्ड संरक्षण के मामले में बहुत पिछड़े और लापरवाह हैं। देश में एक राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के अलावा कोई जगह नहीं है, जहां भारतीय सिनेमा के इतिहास से संबंधित सामग्रियां उपलब्ध हों। हर साल पुरस्कार समारोहों पर करोड़ों खर्च करने के लिए तैयार प्रकाशन समूह, टीवी चैनल, फिल्म एसोसिएशन और अन्य संस्थाएं भी इस दिशा में निष्क्रिय हैं। एक अमिताभ बच्चन अपने उद्गार से लेकर क्रिया-कलाप तक का निजी संग्रहण करते हैं। उनकी इस हरकत पर लोग हंसते हैं, लेकिन यकीन करें पचास-सौ सालों के बाद किसी अध्येता को केवल उन पर व्यवस्थित और संदर्भित सामग्रियां मिल पाएंगी।     बहरहाल, मुझे हाल ही में

Artist’s domain is his work’-Balraj Sahni

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आज बलराज साहनी का जन्‍मदिन है। 1972 में उन्‍होंने जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया था। प्रकाश के रे ने इसे बरगद पर शेयर किया है। व‍हीं से इसे चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया जा रहा है। Balraj Sahni (1 May 1913–13 April 1973) was one of the most respectable film and theatre personalities of India.  This is the reproduction of his address delivered at Jawaharlal Nehru University (New Delhi) Convocation in 1972. We are grateful to Prof Chaman Lal, Jawaharlal Nehru University for making this text available. Balraj Sahni About 20 years ago, the Calcutta Film Journalists’ Association decided to honour the late Bimal Roy, the maker of Do Bigha Zameen, and us, his colleagues. It was a simple but tasteful ceremony. Many good speeches were made, but the listeners were waiting anxiously to hear Bimal Roy. We were all sitting on the floor, and I was next to Bimal Da. I could see that as his turn approached he became incr

बांबे टाकीज का शीर्षक गीत

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 हिंदी फिल्‍मों के सितारों पर चित्रित बांबे टाकीज का शीर्षक गीत भारतीय सिनेमा तो क्‍या हिंदी सिनेमा को भी परिभाषित नहीं कर रहा है। हां हम जिसे कथित बालीवुड कहते हैं। उसके रूंप-रंग का जरूर बखान करता है यह गीत। जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां अरे हम हैं वहीं, हम थे जहां सौ बरस का हुआ फिर भी है जवां अपना सिनेमा रहेगा सदा ही यह जवां पर्दे पर चमत्‍कार है यह चढ़ता सा बुखार है सर पे जुनून सवार है ख्‍वाबों का कारोबार है एक्‍शन इमोशन आप चुन लो सब हिट है चाहे फ्लॉप सुन लो दिल का छेड़ेंगे तार सुन लो देखेंगे बारम्‍बार सुन लो ये रिश्‍तों का संगम है अपना बांबे टाकीज बांबे बांबे टाकीज बांबे बांबे टाकीज सब कहते मायाजाल है यह जो भी है कमाल है जो फिल्म ना हो यार सुन लो तो जीना हो बेकार सुन लो     हर दिल की धड़कन है अपना बांबे टॉकीज यह सिखलाती है प्यार सुन लो ढिशुम ढिशुम मार सुन लो सेल्‍युलाइट डिजिटल अपना बांबे टॉकीज टॉकीज टॉकीज टॉकीज टॉकीज पिक्‍चर की कल्‍चर है अपना बांबे टाकीज ठुमका है झुमका है अपना बांबे टाकीज हो लटका है झटका है अपना बांबे टाकीज रॉकिंग ह

हकीकत और फसानों की एक सदी : तब्बसुम

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आप उन्हें बेबी तब्बसुम के नाम से जानते हैं. टेलीविजन के इतिहास में शायद ही किसी सेलिब्रिटी टॉक शो को इतनी लोकप्रियता मिली होगी जितनी फूल खिले हैं गुलशन गुलशन को मिली थी. 21 सालों तक लगातार बेबी तब्बसुम के संचालन में इस शो का प्रसारण किया जाता रहा. इस शो की लोकप्रियता की खास वजह यह थी कि इस शो में हिंदी सिनेमा जगत की लगभग सारी हस्तियां शामिल होती थीं और सभी बहुत अनौपचारिक बातें किया करते थे. चूंकि खुद बेबी तब्बसुम भी ढाई साल की उम्र से ही हिंदी सिने जगत का हिस्सा थीं. तब्बसुम ने अपने 67 साल इस इंडस्ट्री को दिये हैं. वे हिंदी सिनेमा की रग रग से वाकिफ हैं. हर सदी से वाकिफ हैं.  ऐसे में जब भारतीय सिनेमा 100वें साल में प्रवेश कर रहा है, तो बेबी तब्बसुम ने बेहतरीन शख्सियत और कौन होतीं. हिंदी सिनेमा व हिंदी सिने जगत की हस्तियों के साथ पली बढ़ी तब्बसुम की जिंदगी सिनेमा में ही रची बसी है. हिंदी सिनेमा के  100 साल के अवसर पर बेबी तब्बसुम ने अपनी यादों के पिटारे में से हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े कुछ ऐसी ही दिलचस्प किस्से अनुप्रिया अनंत से सांझा कीं... आधी इंडस्

शमशाद बेगम : खामोश हो गयी खनकती शोख आवाज

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-अजय ब्रह्मात्मज     1932 में सिर्फ 13 साल की उम्र में शमशाद बेगम ने गुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में पंजाबी गीत ‘हथ जोड़ा पंखिया दा’ गाया था। इसके आठ सालों के बाद उन्होंने पंचोली आर्ट फिल्म की ‘यमला जट’ के लिए पहला पाश्र्व गायन किया। यह प्राण की पहली फिल्म थी। प्राण 3 मई को दादा साहेब फालके पुरस्कार से सम्मानित होंगे। पंचोली की फिल्मों में वह नूरजहां के साथ गाने गाती रहीं। उन दिनों लता मंगेशकर ने शमशाद बेगम के साथ कोरस गायन किया और फिर  मशहूर होने के बाद लता मंगेशकर ने उनके साथ अनेक डुएट (दोगाने) गाए। उनके संरक्षक संगीत निर्देशक गुलाम हैदर को शमशाद बेगम की आवाज में झरने की गति और सहजता दिखती थी तो ओ पी नय्यर को उनकी आवाज मंदिर की घंटी से निकली गूंज की तरह लगती थी। शमशाद की आवाज पतली नहीं थी। वह खुले गले से गाती थीं। किशोर उम्र का चुलबुला कंपन से उनके गाए गीतों के शब्द कानों में अठखेलियां करते थे। आजादी के पहले की वह अकेली आवाज थीं,जो लता मंगेशकर की गायकी का साम्राज्य स्थापित होने पर भी स्वायत्त तरीके से श्रोताओं का चित्त बहलाती रहीं। उन्होंने 1972 में ‘बांके लाल’ के लिए आखिरी गीत